गुरुवार, 9 जून 2016

सैनी जाति


सैनी  भारत की एक योद्धा जाति है. सैनीजिन्हें पौराणिक साहित्य में शूरसैनी के रूप में भी जाना जाता हैउन्हें अपने मूल नाम के साथ केवल पंजाब और पड़ोसी राज्य हरियाणाजम्मू और कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में पाया जाता है. वे अपना उद्भव यदुवंशी सूरसेन वंश से देखते हैंजिसकी उत्पत्ति यादव राजा शूरसेन से हुई थी जो कृष्ण और पौराणिक पाण्डव योद्धाओंदोनों के दादा थे. सैनीसमय के साथ मथुरा से पंजाब और आस-पास की अन्य जगहों पर स्थानांतरित हो गए.
प्राचीन ग्रीक यात्री और भारत में राजदूतमेगास्थनीज़ ने भी इसका परिचय सत्तारूढ़ जाति के रूप में दिया था तथा वह इसके वैभव के दिनों में भारत आया था जब इनकी राजधानी मथुरा हुआ करती थी. एक अकादमिक राय यह भी है कि सिकंदर महान के शानदार प्रतिद्वंद्वी प्राचीन राजा पोरसइसी यादव कुल के थे. मेगास्थनीज़ ने इस जाति को सौरसेनोई के रूप में वर्णित किया है.
इससे स्पष्ट है कि कृष्णराजा पोरसभगत ननुआभाई कन्हैया और कई अन्य ऐतिहासिक लोग सैनी भाईचारे से संबंधित थे" डॉ. प्रीतम सैनीजगत सैनी: उत्पत्ति आते विकास 26-04, -2002, प्रोफेसर सुरजीत सिंह ननुआमनजोत प्रकाशनपटियाला, 2008
राजपूत से उत्पन्न होने वाली पंजाब की अधिकांश जाति की तरह सैनी ने भी तुर्क-इस्लाम के राजनीतिक वर्चस्व के कारण मध्ययुगीन काल के दौरान खेती को अपना व्यवसाय बनायाऔर तब से लेकर आज तक वे मुख्यतः कृषि और सैन्य सेवादोनों में लगे हुए हैं. ब्रिटिश काल के दौरान सैनी को एक सांविधिक कृषि जनजाति के रूप में और साथ ही साथ एक सैन्य वर्ग के रूप में सूचीबद्ध किया गया था.
सैनियों का पूर्व ब्रिटिश रियासतोंब्रिटिश भारत और स्वतंत्र भारत की सेनाओं में सैनिकों के रूप में एक प्रतिष्ठित रिकॉर्ड है. सैनियों ने दोनों विश्व युद्धों में लड़ाइयां लड़ी और 'विशिष्ट बहादुरीके लिए कई सर्वोच्च वीरता पुरस्कार जीते. सूबेदार जोगिंदर सिंह,जिन्हें 1962 भारत-चीन युद्ध में भारतीय-सेना का सर्वोच्च वीरता पुरस्कारपरमवीर चक्र प्राप्त हुआ थावे भी सहनान उप जाती के एक सैनी थे. [36]
ब्रिटिश युग के दौरानकई प्रभावशाली सैनी जमींदारों को पंजाब और आधुनिक हरियाणा के कई जिलों में जेलदारया राजस्व संग्राहक नियुक्त किया गया था.
सैनियों ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी हिस्सा लिया और सैनी समुदाय के कई विद्रोहियों को ब्रिटिश राज के दौरान कारवास में डाल दिया गयाया फांसी चढ़ा दिया गया या औपनिवेशिक पुलिस के साथ मुठभेड़ में मार दिया गया.
हालांकिभारत की आजादी के बाद सेसैनियों ने सैन्य और कृषि के अलावा अन्य विविध व्यवसायों में अपनी दखल बनाई. सैनियों को आज व्यवसायीवकीलप्रोफेसर,सिविल सेवकइंजीनियरडॉक्टर और अनुसंधान वैज्ञानिक आदि के रूप में देखा जा सकता है. प्रसिद्ध कंप्यूटर वैज्ञानिकअवतार सैनी जिन्होंने इंटेल के सर्वोत्कृष्ट उत्पाद पेंटिअम माइक्रोप्रोसेसर के डिजाइन और विकास का सह-नेतृत्व किया वे इसी समुदाय के हैं.  अजय बंगाभी जो वैश्विक बैंकिंग दिग्गज मास्टर कार्ड के वर्तमान सीईओ हैं एक सैनी हैं. लोकप्रिय समाचार पत्र डेली अजीतजो दुनिया का सबसे बड़ा पंजाबी भाषा का दैनिक अखबार है[ उसका स्वामित्व भी सैनी का है.
पंजाबी सैनियों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा अब अमेरिकाकनाडा और ब्रिटेन आदि जैसे पश्चिमी देशों में रहता है और वैश्विक पंजाबी प्रवासियों का एक महत्वपूर्ण घटक है.
सैनीहिंदू और सिखदोनों धर्मों को मानते हैं. कई सैनी परिवार दोनों ही धर्मों में एक साथ आस्था रखते हैं और पंजाब की सदियों पुरानी भक्ति और सिख आध्यात्मिक परंपरा के अनुरूप स्वतन्त्र रूप से शादी करते हैं.
अभी हाल ही तक सैनी कट्टर अंतर्विवाही क्षत्रिय थे और केवल चुनिन्दा जाती में ही शादी करते थे. दिल्ली स्थित उनका एक राष्ट्रीय स्तर का संगठन भी है जिसे सैनी राजपूत महासभा कहा जाता है जिसकी स्थापना 1920 में हुई थी.
प्राचीन भारत के राजनीतिक मानचित्र में ऐतिहासिक सूरसेन महाजनपद. सैनियों ने इस साम्राज्य पर 11 ई. तक राज किया (मुहम्मदन हमलों के आरंभिक समय तक). 
हरियाणा के दक्षिणी जिलों में और उत्तर प्रदेशमध्य प्रदेश और राजस्थान में भी 20वीं सदी में माली जाति के लोगों ने "सैनी" उपनाम का उपयोग शुरू कर दिया. बहरहालयह पंजाब के यदुवंशी सैनियों वाला समुदाय नहीं है. सैनी ब्रिटिश पंजाब (पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू व कश्मीर) से बाहर कभी नहीं गए. यह इस तथ्य से प्रमाणित हुआ है कि 1881 की जनगणना पंजाब से बाहर सैनी समुदाय के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करती है और इबेट्सन जैसे औपनिवेशिक लेखकों के आक्षेप के बावजूदसैनी और माली को अलग समुदाय मानती है. 1891 की मारवाड़ जनगणना रिपोर्ट ने भी राजपूताना में किसी 'सैनीनाम के समुदाय को दर्ज नहीं किया है और केवल दो समूह को माली के रूप में दर्ज किया है. जिनका नाम है महूर माली और राजपूत माली जिसमें से बाद वाले को राजपूत उप-श्रेणी में शामिल किया गया है. राजपूत मालियों ने अपनी पहचान को 1930 में सैनी में बदल लिया लेकिन बाद की जनगणना में अन्य गैर राजपूत माली जैसे माहूर या मौर ने भी अपने उपनाम को 'सैनीकर लिया. पंजाब के सैनियों ने ऐतिहासिक रूप से कभी भी माली समुदाय के साथ अंतर-विवाह नहीं किया (एक तथ्य जिसे इबेट्सन द्वारा भी स्वीकार किया गया और 1881 की जनगणना में विधिवत दर्ज किया गया)या विवाह के मामले में वे सैनी समुदाय से बाहर नहीं गए,और यह वर्जना आम तौर पर आज भी जारी है. दोनों समुदायसामाजिकसांस्कृतिक और भौगोलिक दृष्टि से भी अधिकांशतः भिन्न हैं.


अहीर आर्य या मूलवासी

अहीर आर्य या मूलवासी

      कुछ इतिहासकारों के अनुसार आभीर जाति आर्यों से इतर थी और उनकी संस्कृति बहुत समृद्ध थी तथा आर्यों की संस्कृति से उसमें काफी असमानता थी। आभीरों में स्री-स्वातंत्र्य आर्यों की अपेक्षा अधिक था, वे नृत्य-गान में परम प्रवीण और दो वेणी धारण करने वाली थीं। 'हल्लीश' या 'हल्लीसक नृत्य' इन आभीरों की सामाजिक नृत्य था, जिसमें आभीर नारियाँ अपनी रुचि के किसी भी पुरुष के साथ समूह बनाकर मंडलाकार नाचती थीं। हरिवंश पुराण के हल्लीसक-क्रीड़न अध्याय में उल्लेख है- कृष्ण की इंद्र पर विजय के उपरांत आभीर रमणियों ने उनके साथ नृत्य करने का प्रस्ताव किया। भाई या पति व अन्य आभीरों के रोकने पर भी वे नहीं रुकीं और कृष्ण को खोजने लगीं-
ता वार्यमाणा: पतिमि भ्रातृभिर्मातृमिस्तथा।
कृष्ण गोपांगना रात्रो मृगयन्ते रातेप्रिया:।।
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 हरिवंश, हल्लीसक-क्रीड़न अध्याय, श्लोक २४
      आभीर समाज में प्रचलित यह हल्लीसक मंडलाकार नृत्य था, जिसमें एक नायक के साथ अनेक नायिकाएँ नृत्य करती थीं। नृत्य में श्रृंगार-भावना का प्राधान्य था। नृत्य का स्वरुप स्पष्ट करते हुए नाट्यशास्र का टीका में अभिनव गुप्त ने कहा है-
मंडले च यत स्रीणां, नृत्यं हल्लीसकंतु तत्।
नेता तत्र भवदेको,
 गोपस्रीणां यथा हरि:।।
      इसी नृत्य को श्री कृष्ण ने अपनी कला से सजाया तब वह रास ने नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध हुआ। इस नृत्य को सुकरता व नागरता प्रदान करने के कारण ही आज तक श्रीकृष्ण 'नटनागर' की उपाधि से विभूषित किए जाते हैं। द्वारका के राज दरबार में प्रतिष्ठित हो जाने के उपरान्त द्वारका आकर उषा ने इस नृत्य में मधुर भाव-भंगिमाओं को विशेष रुप से जोड़ा व इसे स्री-समाज को सिखाया और देश देशांतरों में इसे लोकप्रिय बनाया। सारंगदेव ने अपने 'संगीत-रत्नाकर' में इस तथ्य की पुष्टि की है। वह लिखते है-
पार्वतीत्वनु शास्रिस्म, लास्यं वाणात्मामुवाम्।
तथा द्वारावती गोप्यस्तामि सोराष्योषित:।।७।।
तामिस्तु शिक्षितानार्यो नाना जनपदास्पदा:।
एवं परम्यराप्राहामेतलोके प्रतिष्ठितम्।।८।।
इस प्रकार रास की परम्परा ब्रज में जन्मी तथा द्वारका से यह पूरे देश में फैली। जैन धर्म में रास की विशेष रुप से प्रचार हुआ और उसे मन्दिरों में भी किया जाने लगा,क्योंकि जैनियों के 23वे तीर्थकर भगवान नेमिनाथ भी द्वारका के ही यदुवंशी थे। उन्हें प्रसन्न करने का रास जैन धर्म में भी एक प्रधान साधन माना गया थापरन्तु बाद में अश्लीलता बढ़ जाने के कारण जैन मुनियों ने इस पर रोक लगा दी थी।
वैदिक युग से ही मध्यदेश ( गंगा- यमुना का क्षेत्र ) भारतीय संस्कृति का हृदय रहा है और तपोवन संस्कृति का केंद्र होने से ब्रजक्षेत्र की अपनी स्थिति रही है। यद्यपि वेदों में ब्रज शब्द गायों के चारागाह के अर्थ में प्रयुक्त हैवह तब इस विशेष प्रदेश का बोध नहीं कराता था। इस प्रदेश को प्राचीन वांगमय में "मथुरा मंडलऔर बाद में "शूरसेन जनपदकहा गया हैजिसकी राजधानी मथुरा थीजिसे "मधुने बसाया था। मधु के समय जब मथुरा नगरी बसीतब इसके चारों ओर आभीरों की बस्ती थी और वे वैदिक संस्कृति से प्रतिद्वेंद्विता रखते थे।
ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ के वनों से आकर्षित होकर यहाँ आभीर अपने पशुधन के साथ भारी संख्या में आ बसे थे और उनके वैदिक ॠषियों से मधुर संबंध नहीं थे। तब यह क्षेत्र आभीर- संस्कृति का केंद्र बन गयाजो वैदिक संस्कृति के प्रतिद्वेंद्वी व उनसे कई रुपों में भिन्न थे। आभीर गोपालकअत्यंत वीरश्रृंगारप्रिय थे और इनके समाज में स्री- स्वतंत्रता आर्यों से कहीं अधिक थी। साथ ही यह यज्ञ के विरोधी भी थे और संभवतः इन्हें इसीलिए मत्स्य पुराण में मलेच्छ तक कहा गया हे। मधु को पुराणों ने धर्मात्मा तथा लवण को जो उसके उपरांत इस प्रदेश का राजा बना थाराक्षस कहा है। 
      वाल्मीकि रामायण के अनुसार मथुरा के ॠषियों ने अयोध्या जाकर श्रीराम से लवण की ब्राह्मण विरोधी व यज्ञ विरोधी नीतियों की शिकायत की तो शत्रुघ्न को उन्होंने एक बड़ी सेना के साथ यहाँ भेजा था तथा मथुरा राज्य सूर्यवंश के अधिकार में चला गया था। शत्रुघ्न को छल से लवण का वध करना पड़ा था। इस घटना के सांस्कृतिक विश्लेषण से प्रतीत होता है कि रामायण काल में मथुरा की तपोवनी वैदिक संस्कृति तथा आभीरों की संस्कृति में टकराव होने लगा था। लवण के शासन काल में आभीर प्रबल हो गए थे, क्योंकि लवण स्वयं शैव था और वह वैदिक ब्राह्मणों से आभीरों के अधिक निकट था। साथ ही इस घटना से यह भी प्रतीत होता है कि इस काल में इस क्षेत्र में शैवों का भी प्रभाव बढ़ गया होगा, क्यों कि राजा लवण स्वयं शिव का अनन्य भक्त और दुर्द्धुर्ष वीर था। यहाँ तक कि वह रावण जैसे प्रतापी नरेश की पुत्री कुभीनसी का लंका से हरण कर लायाथा। अतः शैव, आभीर और वैदिक संस्कृतियाँ इस युग में इस क्षेत्र में विकसित हो रही थी और उनमें पारस्परिक टकराव भी था। ब्रज में भगवान शंकर के सर्वत्र जो शिवलिंग विराजित हैं, उनसे स्पष्ट है कि यहाँ शैव संस्कृति का भी बोलबाला था। शत्रुघ्न ने लवण को पराजित करके जब मथुरा को नए सिरे से बसाया तो ब्रज की वन्य संस्कृति में नागरिक संस्कृति का समावेश होने लगा। शासन तंत्र की सशक्तपकड़ के कारण उस समय सांस्कृतिक समन्वय की प्रक्रिया भी प्रारंभ हुई होगी। परंतु सूर्यवंशी शासन यहाँ स्थायी नहीं रह सका। श्रीकृष्ण से पूर्व ही यहाँ यादव- शक्ति का आधिपत्य छा गया जो आभीरों के ही संबंधी थे। पौराणिक वंशावली से ज्ञात होता है कि मथुरा के यदुवंशी नरेश वसुदेव के पिता शूरसेन व आभीरों के प्रमुख सरदास नंद ( जो श्रीकृष्ण के पालक पिता थे ) के पिता पार्जन्य एक ही पिता दैवमीढ़ष या देवमीढ से उत्पन्न भाई थे, जिनकी माताएँ पृथक- पृथक थीं। देवमीढ की दो रानियाँ थी मदिषा और वैष्यवर्णा | मदिषा के गर्भ से शूरसेन और वैश्यवर्णा के गर्भ से पार्जन्य का जन्म हुआ |
 श्रीकृष्ण स्वयं वैदिक संस्कृति के समर्थक न थे। हरिवंश में वह कहते हैं --
वनंवनचरा गोपा: सदा गोधन जीवितः
गावोsस्माद्दुैवतं विद्धिगिरयश्च वनानि च।
कर्षकाजां कृषिर्वृयेत्तिपण्यं विपणि जीविनाम्।
गावोsअस्माकं परावृत्ति रेतत्वेविद्यामृच्यते।।
-- विष्णु पर्वअ. 7
इस प्रकार श्री कृष्ण ने यज्ञ- संस्कृति के विरोध में ब्रज में जिस गोपाल- संस्कृति की स्थापना की उसमें वैदिक इंद्र को नहींवरन वनों व पर्वतों को उन्होंने अपना देवता स्वीकार किया। इंद्र की पूजा बंद करना वैदिक संस्कृति की ही अवमानना थी।
एक स्थान पर यज्ञ- संस्कृति से स्पष्ट रुप से अपनी असहमति व्यक्त करते हुए कृष्ण कहते हैं
मंत्रयज्ञ परा विप्रा: सीतायज्ञ कर्षका:।
गिरीयज्ञास्तथा गोपा इजयोsस्माकिनर्गिरिवने।।
हरिवंश पुराणअ. 9
इस प्रकार पौराणिक काल में जहाँ श्री कृष्ण ने यहाँ यज्ञ- संस्कृति की उपेक्षा करके गोपाल- संस्कृति की प्रतिष्ठा की वहाँ बलराम ने हल- मूसल लेकर कृषि- संस्कृति को अपनाया जो एक- दूसरे की पूरक थीं। यदि गंभीरता से विचार किया जाए तो हमारी दृष्टि में महाभारत का युद्ध भी आर्य- संस्कृति के अभिमानी राज- नेताओं के संहार का ही श्रीकृष्ण द्वारा आयोजित एक उपक्रम था। जिसके द्वारा वह एक भेदभाव विहीन सामान्य भारतीय संस्कृति का उदय देखना चाहते थेजिसमें आर्य- अनार्य सभी उस रक्तस्नान के उपरांत एक हो गए। यही कारण है कि श्रीकृष्ण आज भी 16 कलापूर्ण अवतार के रुप में प्रत्येक वर्ग के आराध्य देव हैं। महाभारत काल या कृष्ण काल में ब्रज में असुर- संस्कृतिनाग- संस्कृति तथा शाक्त- संस्कृति का भी विकास हुआ।