गुरुवार, 16 जुलाई 2015

वीर लोरिक

वीर लोरिक

लोरिक एक लोकविश्रुत ऐतिहासिक नायक हैं जो बहुत बलशाली और आम जन के हितैषी के रूप में समस्त उत्तर भारत में विख्यात हैं | उनका जन्म बलिया जनपद के गऊरा गाँव में एक यादव परिवार में हुआ था । उनके काल निर्धारण को लेकर बहुत विवाद है - कोई विद्वान् उन्हें ईसा  के पूर्व का बताते हैं तो कुछ उन्हें मध्ययुगीन  मानते हैं | यह भी कहा जाता है लोरिक की वंशावली राजा भोज से मिलती जुलती है। लोरिकायन पवांरो का काव्य माना जाता है और पवारों के वंश में (1167-1106) ही राजा भोज हुए थे। बहरहाल लोरिक जाति  के अहीर (आभीर) थे जो एक लड़ाकू जाति (आरकियोलोजिकल  सर्वे आफ इंडिया रिपोर्ट , खंड आठ) रही है। 
जनश्रुतियों के नायक लोरिक की कथा से सोनभद्र के ही एक अगोरी (अघोरी?)  किले का गहरा सम्बन्ध है, यह किला अपने भग्न रूप में आज भी मौजूद तो है मगर है बहुत प्राचीन और इसके प्रामाणिक इतिहास के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं है | यह किला ईसा पूर्व का है किन्तु दसवीं शती के आस पास  इसका पुनर्निर्माण खरवार और चन्देल राजाओं ने करवाया। अगोरी दुर्ग के  ही नृशंस अत्याचारी   राजा मोलागत से लोरिक का घोर युद्ध हुआ था | कहीं कहीं ऐसी भी जनश्रुति है कि लोरिक को तांत्रिक शक्तियाँ भी सिद्ध थीं और लोरिक ने अघोरी किले पर अपना वर्चस्व कायम किया | लोरिक ने उस समय के अत्यंत क्रूर राजा मोलागत को पराजित किया था और इस युद्ध का हेतु बनी थी - लोरिक और मंजरी (या चंदा) की प्रेम कथा।

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अगोरी के राजा मोलागत के अधीन ही महरा (मेहर) नाम का अहीर रहता था | महरा की ही आख़िरी सातवीं संतान थी मंजरी | जो अत्यंत ही सुन्दर थी | जिस पर मोलागत की बुरी नजर पडी थी और वह उसे महल में ले जाने का दबाव डाल  रहा था। इसी दौरान मंजरी के पिता महरा को लोरिक के बारे में जानकारी हुई और मंजरी की शादी लोरिक से तय कर दी गयी |
वीर अहीर लोरिक बलिया जनपद के गौरा गाँव के निवासी थे, जो बहुत ही बहादुर और बलशाली थे | उनकी तलवार 85 मण की थी। उनके बड़े भाई का नाम था सवरू । वीर लोरिक काली माता के बहुत बड़े भक्त थे। युद्ध में वे अकेले हज़ारो के बराबर थे।
लोरिक को पता था कि बिना मोलागत को पराजित किये वह मंजरी को विदा नहीं करा पायेगा। युद्ध की तैयारी के  साथ बलिया से बारात सोनभद्र के मौजूदा सोन (शोण)  नदी तट  तक आ गयी । राजा मोलागत ने तमाम उपाय किये कि बारात सोन को न पार कर सके, किन्तु बारात नदी पार  कर अगोरी किले तक जा पहुँची, भीषण युद्ध और रक्तपात हुआ - इतना खून बहा कि अगोरी से निलकने वाले नाले का नाम ही रुधिरा नाला पड़ गया और आज भी इसी नाम से जाना जाता है, पास ही नर मुंडों का ढेर लग गया - आज भी नरगडवा नामक   पहाड़ इस जनश्रुति को जीवंत बनाता खडा है | कहीं  शोण (कालांतर का नामकरण सोन ) का नामकरण भी तो उसके इस युद्ध से रक्तिम हो जाने से तो नहीं हुआ ? 

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अघोरी किले का एक मौजूदा दृश्य 

मोलागत और उसकी सारी सेना और उसका अपार बलशाली इनराव्त हाथी भी मारा गया -इनरावत हाथी का वध लोरिक करता है और सोंन  नदी में उसके शव को फेंक देता है - आज भी हाथी का एक प्रतीक प्रस्तर किले के सामने सोंन  नदी में दिखता है। लोरिक के साथ मोलागत और उसके कई मित्र राजाओं से हुए युद्ध के  प्रतीक चिह्न किले के आस पास मौजूद है | जिसमें  राजा निर्मल की पत्नी जयकुंवर का उसके पति के लोरिक द्वारा मारे जाने के उपरान्त  उसके  सिर  को लेकर सती होने के प्रसंग से जुड़ा एक बेर का पेड़ सतिया का बेर और युद्ध के दौरान ही बेहद  निराश मंजरी द्वारा कुचिला का फल (जहर ) खाने का उपक्रम करना और उसके हाथ से लोरिक का कुचिला का फल फेक देना और आज भी केवल  अगोरी के इर्द गिर्द ही कुचिला के पेड़ों का मिलना रोचकता लिए हुए है। 

मंजरी की विदाई के बाद डोली मारकुंडी  पहाडी पर पहुँचने पर नवविवाहिता मंजरी लोरिक के  अपार बल को एक बार और देखने  के लिए  चुनौती देती है और कहती है कि कि कुछ ऐसा करो जिससे यहां के लोग याद रखें कि लोरिक और मंजरी कभी किस हद तक प्यार करते थे। लोरिक कहता है कि बताओ ऐसा क्या करूं जो हमारे प्यार की अमर निशानी बने ही, प्यार करने वाला कोई भी जोड़ा यहां से मायूस भी न लौटे। मंजरी लोरिक को एक पत्थर दिखाते हुए कहती है कि वे अपने प्रिय हथियार  बिजुलिया खांड (तलवार नुमा हथियार) से एक विशाल  शिलाखंड को एक ही वार में दो भागो में विभक्त कर दें - लोरिक ने ऐसा ही किया और अपनी प्रेम -परीक्षा में पास हो गए |
यह खंडित शिला आज उसी अखंड प्रेम की  जीवंत कथा कहती प्रतीत होती है | मंजरी ने खंडित शिला को अपने मांग का  सिन्दूर भी लगाया।  यहाँ गोवर्द्धन पूजा और अन्य अवसरों पर मेला लगता है -लोग कहते हैं कि कुछ अवसरों पर शिला का सिन्दूर  चमकता है –
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लोरिक और मंजरी के अमर प्रेम का प्रतीक वीर लोरिक पत्थर

वीर लोरिक पत्थर, एक विशालकाय दो टुकड़ो में खंडित पत्थर, जिस पत्थर को यादवो के वीर अहीर राजा लोरिक ने तलवार के एक ही प्रहार से चीर दिया था, राबर्ट्सगंज से शक्तिनगर मुख्यमार्ग पर मात्र 6 किमी दूरी पर स्थित है, जो सहज ही यात्रियों - पर्यटकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है और इसके इतिहास के बारे में जानने कि उत्सुकता उत्पन्न करता है । इस पत्थर से जुड़ा  आख्यान वस्तुतः हजारो पक्तियों की गाथा लोरिकी है जिसे यहाँ के लोक साहित्यकार डॉ अर्जुन दास केसरी ने अपनी पुरस्कृत कृति लोरिकायन में संग्रहीत किया है | उत्तर प्रदेश में आल्हा के साथ ही लोरिकी एक बहुत महत्वपूर्ण लोकगाथा है | कहते हैं संस्कृत की मशहूर कृति मृच्छ्कटिकम  का प्रेरणास्रोत लोरिकी (लोरिकायन) ही है। पंडित जवाहरलाल नेहरु ने डिस्कवरी आफ इंडिया में लोरिकी का उल्लेख किया है । पश्चिमी विद्वानों में बेवर ,बरनाफ ,जार्ज ग्रियर्सन आदि ने भी लोरिकी पर काफी कुछ लिखा है।

लोरिकायनभोजपुरी की सबसे प्रसिद्ध लोकगाथा है। इसका नायक लोरिक है। वीर रस से परिपूर्ण इस लोकगीत में नायक लोरिक के जीवन-प्रसंगों का जिस भाव से वर्णन करता है, वह देखते-सुनते ही बनता है | लोरकी में वीर लोरिक और मंजरी के प्यार के किस्से गाये जाते हैं। लोरिक जी के पिता जी का नाम बुधकुब्बे था, उनकी 2 रानिया थी मंजरी और चंदा। उनके बेटे का नाम वीर भोरिक था। उनके बड़े भाई का नाम था सवरू।
कितनो होई हैं अहीर सयाना,
लोरिक छाडी न गई हैं गाना i i

छत्तीसगढ़ में लोरिकी को ’’चंदैनी’’ कहा जाता है | छत्तीसगढ़ी कथानुसार एक रोज पनागर नामक राज्य से बोड़रसाय अपनी पत्नी बोड़नीन तथा भाई कठावत और उसकी पत्नी खुलना के साथ गढ़गौरा अर्थात् आरंग आयें। उन्होंने राजा महर को एक ‘‘पॅंड़वा’’ (भैंस का बच्चा) जिसका नाम सोनपड़वा रखा गया था, भेंट किया, इस भेंट से राजा महर अति प्रसन्न हुए और बोड़रसाय को बदले में रीवां राज्य दे दिया। बोड़रसाय राऊत अपने परिवार सहित रींवा राज्य में राज करने लगा। इसी बोड़रसाय का एक पुत्र था- बावन और सहोदर का पुत्र था-लोरिक। संयोग की बात है कि राजा महर की लाडली बेटी और बोड़रसाय का पुत्र बावन हम उम्र थे। राजा महर ने बावन की योग्य समझकर चंदा से उसका विवाह कर किया, पर कुछ समय व्यतीत हो पाया था कि बावन किसी कारणवश नदी तट पर तपस्या करने चला गया (संभवतः बावन निकटस्थ महानदी पर तपस्थार्थ गया हो) उधर राजा महर का संदेश आया कि चंदा का गौना करा कर उसे ले जाओ। इस विकट स्थिति में राजा बोड़रसाय को कुछ सूझ नहीं रहा था। अंततः इस विपदा से बचने का उन्हें एक ही उपाय नजर आया। लोरिक, जो कि बावन का चचेरा भाई था, दूल्हा बनाकर गौना कराने भेज दिया। लोकगीत नाट्य चंदैनी में लोरिक का रूप बड़ा आकर्षण बताया गया है। लोरिक सांवले बदन का बलिष्ठ शरीर वाला था। उसके केश घुंघराले थे, वह हजारों में अलग ही पहचाना जाता था। लोरिक गढ़गौरा चला गया और सभी रस्मों को निपटाकर वापसी के लिए चंदा के साय डोली में सवार हुआ। डोली के भीतर जब चंदा ने घूंघट हटाकर अपने दूल्हे को निहारा तो उसके रूप में एक अज्ञात व्यक्ति को देखकर वह कांप उठी। चंदा इतनी भयभीत हो गई कि वह तत्क्षण डोली से कूदकर जंगल की ओर भाग गयी। लोरिक भी घबरा गया और चंदा के पीछे भागा। उसने चंदा को रोका और अपना परिचय दिया। अब जब संयत होकर चंदा ने लोरिक को देखा, तब वह उस पर मुग्ध हो गयी। लोरिक सीधे उसके मन में समाता चला गया। लोरिक का भी लगभग यही हाल था। यह चंदा के धवल रूप को एकटक देखता रहा गया। दोनों अपनी समस्या भूलकर एक-दूसरे के रूप-जाल में फंस गये। वही उनके कोमल और अछूते मन में प्रणय के बीच पड़े। दोनों ने एक दूसरे से मिलने का और सदा संग रहने का वचन किया।
           प्रायः समीक्षक लोरिक चंदा को वीराख्यानक लोकगाथा के अंतर्गत स्वीकार करते हैं। यदि लोरिक केवल वीर चरित्र होता तो इसे राजा या सामंत वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में चित्रित किया जाता। महाकाव्य अथवा लोकगाथाओं में वीर लोकनायक प्रायः उच्च कुल अथवा नरेशी होते हैं। इस आधार पर लोरिक वीर होते हुए भी सामान्य यदुवंशियों के युद्ध कौशल का प्रतीक है। उसके रूप और गुण से सम्मोहित राजकुमारी चंदा अपने पति और घर को त्यागकर प्रेम की ओर अग्रसित होती है। इस दोनों के मिलन में जो द्वन्द और बंधन है, उसे पुरूषार्थ से काटने का प्रयास इस लोकगाथा का गंतव्य है। इस आधार पर उसे प्रेमाख्यानक लोकगाथा के अंतर्गत सम्मिलित करना समीचीन प्रतीत होता है।
            उपर्युक्त गाथाओं से स्पष्ट है कि लोरिक चंदा की गाथा अत्यंत व्यापक एवं साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। यद्यपि इसे अहीरों की जातीय धरोहर माना जाता है तथापि यह संपूर्ण हिन्दी प्रदेश की नहीं वरन् दक्षिण भारत में भी लोकप्रिय एवं प्रचलित है। श्री श्याम मनोहर पांडेय के अनुसार - ‘‘बिहार में मिथिला से लेकर उत्तरप्रदेश और छत्तीसगढ़ में इसके गायक अभी भी जीवित है’’ वे प्रायः अहीर है जिनका मुख्य धंधा दूध का व्यापार और खेती करना है। लोरिक की कथा लोकसाहित्य की कथा नहीं है, बल्कि इस कथा पर आधारित साहित्यिक कृतियां भी उपलब्ध है। विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित ‘‘लोरिकी’’ लोकगाथा के नाम एवं कथा में अंतर सर्वाधिक व्यापक रूप से ‘‘भोजपुरी’’ में उपलब्ध होता है जहां यह लोकगाथा चार खंडों में गायी जाती है। ‘‘लोरिक’’ की लोकगाथा का दूसरा भाग, ‘‘लोरिक एवं चनवा का विवाह’’ भोजपुरी क्षेत्र के अतिरिक्त अन्य प्रदेशों में भी प्रचलित है। मैथिली और छत्तीसगढ़ी प्रदेशों में तो यह अत्यधिक प्रचलित है। विभिन्न प्रदेशों में प्रचलित ‘‘लोरिकी’’ की कथा में परिलक्षित साम्य-वैषम्य अधोलिखितानुसार है-
‘‘भोजपुरी रूप में चनवा का सिलहर (बंगाल) से लौटकर अपने पिता के घर गउरा आना वर्णित है। छत्तीसगढ़ी रूप में भी यह समादृत है, परन्तु कुछ विभिन्नताएं है। इसमें चनैनी का अपने पिता के घर से पति वीर बावन के घर लौटना वर्णित है। अन्य रूपों में यह वर्णन अलभ्य है।’’
         भोजपुरी रूप में चनैनी को मार्ग में रोककर बाठवा अपनी पत्नी बनाना चाहता है, परन्तु वह किसी तरह गउरा अपने पिता के घर पहुंच जाती है। बाठवा गउरा में आकर उसको कष्ट देता है, राजा सहदेव भी बाठवा से डरता है। मंजरी के बुलाने पर लोरिक पहुंचता है और बाठवा को मार भगाता है। जिसकी सब लोग प्रशंसा करते हैं।
         छत्तीसगढ़ी रूप में यह कथा वर्णित है परन्तु उसमें थोड़ा अंतर है महुआ (बाठवा) मार्ग में चनैनी को छेड़ता है। लोरिक वहां आकर उसे मार भगाता है। लोरिक की वीरता देखकर वह मोहित हो जाती है, लोरिक को वह अपने महल में बुलाती है। शेष अन्य रूपों में वह वर्णन नहीं मिलता।
         भोजपुरी में राजा सहदेव के यहां भोज है, चनवा लोरिक को अपनी ओर आकर्षित करती है, रात्रि में लोरिक रस्सी लेकर चनवा के महल के पीछे पहुंचता है, जहां दोनों का मिलन वर्णित है। छत्तीसगढ़ में भोज का वर्णन नहीं मिलता, परन्तु रात्रि में लोरिक उसी प्रकार रस्सी लेकर जाता है और कोठे पर चढ़ता है तथा दोनों मिलकर एक रात्रि व्यतीत करते है।
        
            श्री हीरालाल काव्योपाध्याय द्वारा प्रस्तुत छत्तीसगढ़ी कथायान ‘‘लोरिक’’ में भी इसका वर्णन है परन्तु कुछ भिन्न रूप में इसमें चंदा (चनैनी) का पति वीरबावन महाबली है, जो कुछ महीने सोता और छह महीने जागता है। उसकी स्त्री चंदा, लोरी से प्रेम करने लगती है, वह उसे अपने महल में बुलाती है और स्वयं खिड़की से रस्सी फेंककर ऊपर चढ़ाती है। मैथिली तथा उत्तरप्रदेश की गाथा में यह वर्णन प्राप्त नहीं होता।
      

            भोजपुरी लोकगाथा में रात्रि व्यतीत कर जब लोरिक चनैनी के महल सें जाने लगता है। तब अपनी पगड़ी के स्थान पर चनैनी का चादर बांधकर चल देता है। धोबिन उसे इस कठिनाई से बचाती है। वेरियर एल्विन द्वारा प्रस्तुत छत्तीसगढ़ी रूप में यह वर्णन नहीं है परन्तु काव्योपाध्याय द्वारा प्रस्तुत गाथा में यह अंश उसी प्रकार वर्णित है। शेष अन्य रूपों में यह वर्णन नहीं मिलता।
         चनैनी के बहुत मनाने पर लोरिक का हरदी के लिए पलायन की घटना सभी क्षेत्रों की गाथा में उपलब्ध है।
लोरिक को मार्ग में मंजरी और संवरू रोकते है। छत्तीसगढ़ी रूप में भी यह वर्णित है, परन्तु केवल संवरू का नाम आता है। शेष रूपों में यह नहीं प्राप्त होता है।
        भोजपुरी रूप में लोरिक मार्ग में अनेक विजय प्राप्त करता है तथा महापतिया दुसाध को जुए और युद्ध में भी हराता है, छत्तीसगढ़ी तथा अन्य रूपों में इसका वर्णन नहीं हैं।
       भोजपुरी में लोरिक अनेक छोटे-मोटे दुष्ट राजाओं को मारता है, मार्ग में चनवा को सर्प काटता है, परन्तु वह गर्भवती होने के कारण बच जाती है। बेरियर एल्विन द्वारा संपादित छत्तीसगढ़ी में लोरिक को सर्प काटता है तथा चनैनी शिव पार्वती से प्रार्थना करती है। लोरिक पुनः जीवित हो जाता है। शेष रूपों में यह वर्णन नहीं प्राप्त होता।
भोजपुरी के अनुसार लोरिक की हरदी के राजा महुबल से बनती नहीं थी। महुबल ने अनेक उपाय किया, परन्तु लोरिक मरा नहीं। अंत में महुबल ने पत्र के साथ लोरिक की नेवारपुर ‘‘हरवा-बरवा’’  दुसाध के पास भेजा। लोरिक वहां भी विजयी होता है। अंत में महुबल को अपना आधा राजपाट लोरिक को देना पड़ता है और मैत्री स्थापित करनी पड़ती है।
        मैथिली गाथा के अनुसार हरदी के राजा मलबर (मदुबर) और लोरिक आपस में मित्र है। मलबर अपने दुश्मन हरबा-बरवा के विरूद्ध सहायता चाहता है। लोरिक प्रतिज्ञा करके उन्हें नेवारपुर में मार डालता है।
       एल्विन द्वारा प्रस्तुत छत्तीसगढ़ी रूप में यह कथा विशिष्ट है इसमें लोरिक और करिंधा का राजा हारकर लोरिक के विरूद्ध षड़यंत्र करता है और उसे पाटनगढ़ भेजना चाहता है। लोरिक नहीं जाता।
      भोजपुरी रूप में कुछ काल पश्चात् मंजरी से पुनः मिलन वर्णित है। छत्तीसगढ़ी रूप में हरदी में लोरिक के पास मंजरी की दीन-दशा का समाचार आता है। लोरिक और चनैनी दोनों गउरा लौट आते है। उत्तरप्रदेश के बनारसी रूप में भी लोरिक अपनी मां एवं मंजरी की असहाय अवस्था का समाचार सुनकर चनैनी के साथ गउरा लौटता है। शेष रूपों में यह वर्णन नहीं मिलता।
         भोजपुरी रूप सुखांत है, इसमें लोरिक अंत में मंजरी और घनवा के साथ आनंद से जीवन व्यतीत करते है। मैथिली रूप में भी सुखांत है परन्तु उसमें गउरा लौटना वर्णित नहीं है। एल्विन द्वारा प्रस्तुत छत्तीसगढ़ी रूप में लोरिक अपनी पत्नी व घर की दशा से दुखित होकर सदा के लिए बाहर चला जाता है। छत्तीसगढ़ में काव्योपाध्याय द्वारा प्रस्तुत रूप का अंत इस प्रकार से होता है-
         लोरी चंदा के साथ भागकर जंगल के किले में रहने लगता है। वहां चंदा का पति वीरबावन पहुंचता है। उससे लोरी का युद्ध होता है। वीरबावन हार जाता है और निराश होकर अकेले गउरा में रहने लगता है।
        लोकगाथा के बंगला रूप में वर्णित ‘‘लोर’’, मयनावती तथा चंद्राली वास्तव में भोजपुरी के लोरिक मंजरी और चनैनी ही है। बावनवीर का वर्णन छत्तीसगढी़ रूप में भी प्राप्त होता है। बंगला रूप में चंद्राली को सर्प काटता है। भोजपुरी रूप में भी गर्भवती चनैनी को सर्प काटता है। दोनों रूप में वह पुनः जीवित हो जाती है। बंगला रूप में मयनावती के सतीत्व का वर्णन है। भोजपुरी में भी मंजरी की सती रूप में वर्णन किया गया है। लोकगाथा का हैदराबादी रूप छत्तीसगढ़ी के काव्योपाध्य के अधिक साम्य रखता है।
          श्री सत्यव्रत सिन्हा द्वारा उल्लेखित उपर्युक्त साम्य वैषम्य के सिवाय भी लोरिक लोकगाथा में कतिपय अन्य साम्य वैषम्य भी परिलक्षित होते है। यथा-गाथा के भोजपुरी रूप में मंजरी द्वारा आत्महत्या करने तथा गंगामाता द्वारा वृद्धा का वेष धारण कर मंजरी को सांत्वना देने, गंगा और भावी (भविष्य) का वार्तालाप, भावी का इन्द्र एवं वशिष्ठ के पास जाना आदि घटनाओं का वर्णन है जो गाथा के अन्य रूपों में प्राप्त नहीं है। इसी प्रकार मंजरी के मामा शिवचंद एवं राजा सहदेव द्वारा मंजरी के बदले चनवा के साथ विवाह करने पर दुगुना दहेज देने का वर्णन अन्य क्षेत्रों के ‘‘लोरिक’’ में अप्राप्त है।
        ‘‘लोरिक’’ लोकगाथा के बंगाली रूप में एक योगी द्वारा चंद्राली के रूप में वर्णन सुनकर उसका चित्र देखकर लोरिक को चंद्राली के प्रति आसक्त चित्रित किया गया है। यहां बावनवीर (चंद्राली का पति) को नपुंसक बताया गया है। मैनावती पर राजकुमार दातन की अनुरक्ति तथा उसे प्राप्त करने के लिए दूतियों को भेजने का वर्णन है तथा मैनावती द्वारा शुक्र और ब्राम्हण द्वारा लोरिक के पास संदेश प्रेषित करने का वर्णन प्राप्त होता है जो कि अन्य लोकगाथाओं में नहीं है। गाथा के हैदराबादी रूप में ही बंगाली रूप की भांति उस देश के राजा का मैना पर मुग्ध होना वर्णित है।
       ‘‘लोरिक’’ गाथा के उत्तरप्रदेश (बनारसी रूप) में प्रचलित चनवा द्वारा लोरिक को छेड़खानी करने पर अपमानित करना तथा बाद में दोनों का प्रेम वर्णित है। इस प्रकार लोरिक द्वारा सोलह सौ कन्याओं के पतियों को बंदी जीवन से मुक्त कराने का वर्णन है, जो अन्य क्षेत्रों के ‘‘लोरिक’’ लोकगाथा में   उपलब्ध नहीं है। गाथा के छत्तीसगढ़ी रूप में चनैनी और मंजरी दोनों सौत के बीच मार-पीट एवं विजयी मंजरी द्वारा लोरिक के स्वागतार्थ पानी लाने तथा पानी के गंदला होने पर लोरिक का विरक्त होकर घर छोड़ चले जाने का वर्णन है, आज के इस प्रगतिशील दौर में भी जब प्रेमी हृदय समाज के कठोर-प्रतिबंध तोड़ते हुए दहल जाते है। तब उस घोर सामंतवादी दौर में लोरिक और चंदा ने सहज और उत्कृष्ट प्रेम पर दृढ़ रहते हुए जाति, समाज, धर्म और स्तर के बंधन काटे थे।










रविवार, 14 जून 2015

प्रमुख यादव विभूति - सुरेखा यादव

सुरेखा यादव – भारत एवं एशिया कि प्रथम महिला रेल चालक

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सुरेखा यादव, भारत और एशिया कि प्रथम महिला रेल चालक है | सुरेखा यादव एक सरल, शांतचित एवं हिम्मती महिला है | उनका जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिले के एक किसान परिवार में हुआ था | उसने ट्रेन का इंजन चलाने वाली देश की ही नहीं बल्कि एशिया महादीप की प्रथम महिला ड्राइवर बन कर देश की महिलाओं का सर गर्व से उंचा उठाया है | सुरेखा पढाई में शुरू से ही अच्छी थी | उसे तकनीकी विषयों में अधिक रूचि थी | उन्होंने 1986 कराड़ के गवर्नमेंट पॉलिटेक्निक कॉलेज से विद्युत अभियांत्रिकी में डिप्लोमा प्राप्त किया |  अपने बैच में वह एक मात्र लड़की थी | वह 1990 में टे्रनीज सहायक इलेक्ट्रिक ड्राइवर पद पर मध्य रेलवे में नियुक्त हुई थीं। इंजन की जानकारी, मालगाड़ी और पैसेंजर गाड़ी चलाना आदि के बारे में सम्पूर्ण जानकारी उन्हें प्रशिक्षण के द्वारा दी गई | श्रीमती सुरेखा यादव प्रथम ईएमयू (मुम्बई उपनगरीय रेल सेवा) का ड्राइवर भी बन गई हैं, जिन्होंने छत्रपति शिवाजी टर्मिनस में डोंबिवली स्टेशन तथा उपनगरीय रेलवे में 16 अप्रैल, 2000 को प्रथम बार उपनगरीय ईएमयू रेलगाड़ी चलाई थी। श्रीमती सुरेखा यादव भारत एवं एशिया की प्रथम महिला ड्राइवर हैं। वर्ष 1996 में सहायक ड्राइवर से पदोन्नत होकर मालगाड़ी ड्राइवर बनीं थीं, वे भारत की प्रथम मोटरवूमैन हैं। मुख्य ड्राईवर बनना एक चुनौतीपूर्ण कार्य था, परन्तु उसने इस चुनौती को स्वीकार किया एवं उसमे सफल भी हुई |

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सुरेखा एक निडर महिला है | सुनसान घाटों में तकनीकी खराबी आ जाने से रेल रुक जाये तो वह भयभीत नहीं होती | गाड़ी विलम्ब से चलने पर लोग बेकाबू हो जाएँ तो भी वह नहीं घबड़ाती | सुरेखा के पति मुंबई पुलिस में कार्यरत है | सुरेखा मुंबई शहर को महिलाओं कि सुरक्षा की दृष्टि से सबसे सुरक्षित शहर मानती है |

रविवार, 7 जून 2015

यदुकुल तिलक - उदय प्रताप सिंह

उदय प्रताप सिंह
उदय प्रताप सिंह (जन्म: 1932मैनपुरी) एक कवि, साहित्यकार तथा राजनेता हैं। उन्होंने उत्तर प्रदेश से वर्ष 2002-2008 के लिये समाजवादी पार्टी की ओर से राज्य सभा का प्रतिनिधित्व किया। राज्य सभा में यद्यपि उनका कार्यकाल 2008 में समाप्त हो गया तथापि पूर्णत: स्वस्थ एवं सजग होने के बावजूद समाजवादी पार्टी ने उन्हें दुबारा राज्य सभा के लिये नामित नहीं किया। जबकि वे पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव के गुरू रह चुके हैं और जाति से यादव भी हैं।
उदय प्रताप सिंह को उनकी बेवाक कविता के लिये आज भी कवि सम्मेलन के मंचों पर आदर के साथ बुलाया जाता है। साम्प्रदायिक सद्भाव पर उनका यह शेर श्रोता बार-बार सुनना पसन्द करते हैं:
              न तेरा है न मेरा है ये हिन्दुस्तान सबका है।
नहीं समझी गयी ये बात तो नुकसान सबका है॥

इसी प्रकार सत्तासीनों द्वारा शहीदों के प्रति बरती जा रही उदासीनता पर उनका यह आक्रोश उनके चेले भी बर्दाश्त नहीं कर पाते किन्तु उदय प्रताप सिंह उनके मुँह पर भी अपनी बात कहने से कभी नहीं चूकते:
कभी-कभी सोचा करता हूँ वे वेचारे छले गये हैं।
जो फूलों का मौसम लाने की कोशिश में चले गये हैं॥
उदय प्रताप सिंह आजकल उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष पद पर आसीन हैं।
अनुक्रम

संक्षिप्त परिचय
उदय प्रताप सिंह का जन्म हिन्दी साहित्यकार सन्दर्भ कोश के अनुसार ग्राम गढिया छिनकौरा जिला मैनपुरी (उ०प्र०) में 1 सितम्बर, 1932 को हुआ था जबकि राज्य सभा की आधिकारिक वेबसाइट में उनकी जन्मतिथि 18 मई, 1932 दी गयी है। अब कौन सी तिथि सही है, यह तो स्वयं उदय प्रताप सिंह ही बता सकते हैं। बहरहाल उनका जन्म सन् 1932 में हुआ था, यह निश्चित है। उनकी माता पुष्पा यादव व पिता डॉ० हरिहर सिंह चौधरी थे। 20 मई 1958 को डॉ० चैतन्य यादव के साथ उनका विवाह हुआ। उनके एक बेटा व तीन बेटियाँ हैं। सूरीनाम में 1993 के विश्व हिन्दी सम्मेलन के प्रतिनिधि मण्डल का उन्होंने नेतृत्व किया। वे देश विदेश में पिछले पैंतालिस वर्षों से कवि सम्मेलनों में जाते रहे हैं और भाषायी एकता का मुद्दा उठाते रहे हैं।
मुलायम सिंह यादव के गुरू
1960 में करहल (मैनपुरी) के जैन इण्टर कॉलेज में वीर रस के विख्यात कवि दामोदर स्वरूप 'विद्रोही' ने अपनी प्रसिद्ध कविता दिल्ली की गद्दी सावधान! सुनायी जिस पर खूब तालियाँ बजीं। तभी यकायक पुलिस का एक दरोगा मंच पर चढ़ आया और विद्रोही जी को डाँटते हुए बोला-"बन्द करो ऐसी कवितायेँ जो सरकार के खिलाफ हैं।" उसी समय कसे (गठे) शरीर का एक लड़का बड़ी फुर्ती से मंच पर चढ़ा और उसने उस दरोगा को उठाकर पटक दिया। विद्रोही जी ने कवि सम्मेलन की अध्यक्षता कर रहे उदय प्रताप सिंह से पूछा-"ये नौजवान कौन है ?" तो पता चला कि यह मुलायम सिंह यादव थे जो उस समय जैन इण्टर कॉलेज के छात्र थे और उदय प्रताप सिंह उनके गुरू हुआ करते थे।
मानद उपाधि एवं सम्मान
मन्त्रीपद का विशेष दर्ज़ा

उत्तर प्रदेश सरकार ने इसी साल सितम्बर में उदय प्रताप सिंह को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का कार्यकारी अध्यक्ष नामित कर कैबिनेट मन्त्री का दर्जा दिया।

शनिवार, 6 जून 2015

प्रमुख यादव विभूति- रासबिहारी लाल मंडल - मिथिला के यादव शेर




रासबिहारी लाल मंडल (1866-1918) - मिथिला के यादव शेर
                                                        
अगर बिहार के आधुनिक इतिहास में पिछड़े वर्ग के और यादव समाज के प्रथम क्रन्तिकारी व्यकित्व का उल्लेख किया जाये तो मुरहो एस्टेट के ज़मींदार रासबिहारी लाल मंडल का ही नाम आयेगा. ज़मींदार होते हुए भी स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय और बिहार में कांग्रेस पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक रासबिहारी बाबू का संपर्क सुरेन्द्र नाथ बनर्जी, बिपिन चन्द्र पाल, सच्चिदानंद सिन्हा जैसे प्रमुख नेताओं से था. वह 1908 से 1918 तक प्रदेश कांग्रेस कमिटी और ए आई सी सी के बिहार से निर्वाचित सदस्य थे| 1911 में गोप जातीय महासभा (बाद में यादव महासभा) की स्थापना के साथ, यादवों के लिए जनेऊ धारण आन्दोलन और 1917 में मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड समिति के समक्ष यादवों के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करते हुए, वायसरॉय चेम्सफोर्ड को परंपरागत 'सलामी' देने की जगह उनसे हाथ मिलते हुए जब यादवों के लिए नए राजनैतिक सुधारों में उचित स्थान और सेना में यादवों के लिए रेजिमेंट की मांग की तो वे वायसरॉय चेम्सफोर्ड भी दंग रह गए | 1911 में सम्राट जार्ज पंचम के हिंदुस्तान में ताजपोशी के दरबार में प्रतिष्टित जगह से शामिल हो कर वह उन अँगरेज़ अफसरों को भी दंग कर दिए जिनके विरुद्ध वे वर्षों से कानूनी लड़ाई लड़ रहे थे | कांग्रेस के अधिवेशन में वे सबसे पहले पूर्ण स्वराज्य की मांग की. कलकत्ता से छपने वाली हिंदुस्तान का तत्कालीन प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक अमृता बाज़ार पत्रिका ने रासबिहारी लाल मंडल की अदम्य साहस और अभूतपूर्व निर्भीकता की भूरी-भूरी प्रशंसा की और अनेक लेख और सम्पादकीय लिखी और दरभंगा महराज ने उन्हें 'मिथिला का शेर' कह कर संबोधित किया | 27 अप्रैल, 1908 के सम्पादकीय में अमृता बाज़ार पत्रिका ने कलकत्ता उच्च न्यायलय के उस आदेश पर विस्तृत टिप्पणी की थी जिसमें भागलपुर के जिला पदाधिकारी लायल के रासबिहारी बाबू के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रसित व्यवहार को देखते हुए उनके विरुद्ध सभी मामले को दरभंगा हस्तांतरित कर दिया था. रासबिहारी बाबू के वकील जैक्सन ने न्यायलय को बताया था की चूँकि तत्कालीन जिला पदाधिकारी सीरीज को 1902 में मधेपुरा में अदालत और डाक बंगले के निर्माण के लिए काफी भूमि देने के बाद भी, लायब्रेरी के लिए एक बड़े भूखंड (जहाँ अभी रासबिहारी विद्यालय स्थित है) मांगे जाने पर उसे देने से इनकार कर दिया, तब से स्थानीय प्रशासन और पुलिस के निशाने पर आ गए हैं, और उनके विरुद्ध 100 से अधिक मामले दर्ज किये गए हैं, और लगभग एक दर्ज़न बार बचने के लिए उन्हें उच्च न्यायालय के शरण में आना पड़ा है. यह संयोग नहीं है की गिरफ्तार होने से पहले ज़मानत (जिसे आज कल अग्रिम ज़मानत कहते हैं, और जो आम है) हिंदुस्तान के कानूनों के इतिहास में सबसे पहले रासबिहारी लाल मंडल को ही दिया गया |
रासबिहारी लाल मंडल का जन्म मुरहो, मधेपुरा के ज़मींदार रघुबर दयाल मंडल के एकमात्र पुत्र के रूप में हुआ. बचपन में ही उनके माँ-बाप की मृत्यु हो गयी, और तब रानीपट्टी में उनकी नानी ने उनका लालन-पालन किया| रासबिहारी बाबू 11वी तक पढ़े फिर भी उन्हें हिंदी, उर्दू, मैथिली, फारसी, संस्कृत, अंग्रेजी और फ्रेंच भाषा का समुचित ज्ञान था और हर रोज़ मुरहो में उनके पलंग के बगल में तीन-चार अख़बार उनके पढने के लिए रखा रहता था | रासबिहारी लाल मंडल ने 1911 में यादव जाति के उत्थान के लिए मुरहो, मधेपुरा (बिहार) में गोप जातीय महासभा की स्थापना की. इस महान कार्य में उनका साथ दिया बांकीपुर (पटना) के श्रीयुत्त केशवलाल जी, देवकुमार प्रसादजी, संतदास जी वकील, सीताराम जी, मेवा लाल जी, दसहरा दरभंगा के नन्द लाल राय जी, गोरखपुर के रामनारायण राउत जी, छपरा के शिवनंदन जी वकील, जमुना प्रसाद जी, जौनपुर के फेकूराम जी, सलिग्रामी मुंगेर के रघुनन्दन प्रसाद मुख़्तार जी, हजारीबाग से स्वय्म्भर दासजी, लखनऊ के कन्हैय्यालाल जी, मुरहो, मधेपुरा से ब्रिज बिहारी लाल मंडल जी, रानीपट्टी से शिवनंदन प्रसाद मंडल जी एवं मधेपुरा से लक्ष्मीनारायण मंडल जी. रासबिहारी बाबू ने अपने स्वागत भाषण में इस सभा के उद्देश्य को रेखांकित किया – सनातन धर्मपरायणता, विद्याप्रचार, विवाह विषयक संशोधन, सामाजिक आचरण संसोधन, कृषि, गोरक्ष वान्निज्यो - व्रती, पारस्परिक सम्मलेन, मद्य निषेध तथा अनुचित व्यय निषेध. यह महासभा के संस्थापकों की दूरदृष्टी ही थी जिसके अनुरूप उन्होंने शिक्षा प्रसार को महत्व दिया और स्कूल कालेजों की स्थापना के साथ साथ यादव छात्र- छात्राओं के लिए होस्टलों एवं वजीफे के इंतजाम करने का प्रयास किया जिससे डाक्टर, इंजीनियर बनने के अलावे आई ए एस व आई पी एस भी बनें. प्रत्येक जिले में यादव भवन व संगठन बनाये जाने और 'गोपाल-मित्र' मासिक पत्रिका का मुद्रण का लक्ष्य रखा गया. अपने भाषण के समाप्ति में उन्होंने कहा -" उत्थवयं , जागृतवयं,जोक्तवयं भूति कर्माषु. भावोष्यतीत्येव मनः कृत्वा सततमव्यथै. - उठाना चाहिए जागना चाहिए सत कार्यों में सदैव प्रवृत रहना चाहिए और ढृढ़ विश्वास रखना चहिये की सफलता हमें अवश्य प्राप्त होगी." इस प्रयास पर रासबिहारी बाबू के पौत्र न्यायमूर्ति राजेश्वर प्रसाद मंडल ( पटना उच्च न्यायलय के प्रथम यादव न्यायाधीश) ने कहा था - " अंग्रेजों ने शिक्षा को मंदिर मस्जिद से निकाल कर जनता की झोली में डाल दिया. किन्तु धर्म के द्वारा स्थापित बंधनों पर सबसे बड़ा अघात तब लगा जब बाबू रासबिहारी लाल मंडल ने आवाज़ दी की तोड़ डालों इन बंधनों को, मिटा दो शोषण के इस रीति-रिवाजों को. ब्राहमण ग्रंथों के अनुसार शुद्र समुदाय की श्राद्ध क्रिया को एक माह तक चलनी चाहिए. जनेऊ संस्कार के हकदार ऊँची जाति के ही लोग हुआ करते थे. मंडल जी ने इन पाबंदियों को तोड़ डाला. इनके प्रोत्साहन पर जन समुदाय बारह दिनों में ही श्राद्ध क्रम करने लगे. जेनू धारण करने लगे. एक नया संस्कार जग उठा, एक नया जागरण हुआ." बाद में समाजशास्त्रियों ने इसे "संस्कृतिकरण" कहा. वैसे इसका उच्च जातियों द्वारा पुरजोर विरोध भी हुआ. मुंगेर जिला में यादवों और भूमिहारों के बीच संघर्ष हुआ. दरभंगा में तो जनेऊ धारण करने वाले यादवों को दाग दिया गया था. परन्तु रासबिहारी बाबू अपने प्रयास में आगे बढ़ते रहे. उन्होंने ब्रह्म-समाज के साथ मिलकर ग्राम-सुधार कार्यक्रम भी चलाये. सांप्रदायिक ईर्ष्या-द्वेष, जाति-व्यवस्था, अस्पृश्यता, सती-प्रथा, बाल-विवाह, अपव्यय और ऋण, निरक्षरता और मद्यपान, जसी सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध कई सभाएं की.
कांग्रेस के 1918 के कलकत्ता अधिवेशन के दौरान वे बीमार पद गए और 51 वर्ष की अल्प-आयु में बनारस में 25-26 अगस्त, 1918 को रासबिहारी लाल मंडल का निधन हो गया | यह संयोग ही था की उसी दिन बनारस में ही रासबिहारी बाबू के सबे छोटे पुत्र बी पी मंडल का जन्म हुआ | रासबिहारी लाल मंडल के बड़े पुत्र भुवनेश्वरी प्रसाद मंडल थे, जो 1924 में बिहार-उड़ीसा विधान परिषद् के सदस्य बने थे तथा 1948 में अपने मृत्यु तक भागलपुर लोकल बोर्ड (जिला परिषद्) के अध्यक्ष थे. दूसरे पुत्र कमलेश्वरी प्रसाद मंडल आज़ादी की लड़ाई में जय प्रकाश बाबू वगैरह के साथ गिरफ्तार हुए थे और हजारीबाग सेन्ट्रल जेल में थे और 1937 में बिहार विधान परिषद् के सदस्य चुने गए थे | कनिष्ठ पुत्र बी पी मंडल 1952 में मधेपुरा विधान सभा से सदस्य चुने गए. 1962 पुनः चुने गए और 1967 में मधेपुरा से लोक सभा सदस्य चुने गए. 1965 में मधेपुरा क्षेत्र के पामा गाँव में हरिजनों पर सवर्णों एवं पुलिस द्वारा अत्याचार पर वे विधानसभा में गरजते हुए कांग्रेस को छोड़ सोशलिस्ट पार्टी में आ चुके थे. बड़े नाटकीय राजनैतिक उतार-चढ़ाव के बाद 1 फ़रवरी, 1968 में बिहार के पहले यादव मुख्यमंत्री बने |



प्रमुख यादव विभूति - राव तुलाराम


हरियाणा प्रान्त के महान् योद्धा राव राजा तुलाराम

     


राव तुला राम का जन्म 1825 ई० में हुआ था | राव पूरण सिंह के निधन पर 13 वर्ष की उम्र में ही राव तुला राम रेवाड़ी के राजा बने | राव तुला राम महान योद्धा, महत्वाकांक्षी राजा एवं देशभक्त थे | 

इस संसार में कितने ही मनुष्य जन्म लेते हैं और अपना सांसारिक जीवन समाप्त कर मृत्यु के ग्रास बन जाते हैं। संस्कृत के एक कवि का वचन है
परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते ।
स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम् ॥
अर्थात् इस संसार में वह मनुष्य ही पैदा हुआ है जिसके पैदा होने से वंश व जाति को उन्नति प्राप्त होती है । वैसे तो इस संसार में कितने ही नर पैदा होते हैं और मरते हैं । इस वचन के अनुसार रेवाड़ी के राव राजा तुलाराम अपनी अपनी महान कार्यों से अपने प्रान्त एवं जाति को गौरवान्वित कर गए।
जब 10 मई 1857 को चर्बी वाले कारतूस के धार्मिक जोश की आड़ में मेरठ में भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का झंडा बुलन्द कर दिया । तब प्रसुप्त भावनायें जाग उठीं, देश ने विलुप्त हुई स्वतन्त्रता को पुनः प्राप्त करने के लिए करवट बदली, राजवंशों ने तलवार तान स्वतन्त्रता देवी का स्वागत किया, समस्त राष्ट्र ने फिरंगी को दूर करने की मन में ठान ली ।
भला इस शुभ अवसर को उपस्थित देख स्वाधीन भावनाओं के आराधक राव राजा तुलाराम कैसे शान्त बैठते ? उन्होंने भी उचित अवसर देख स्वतन्त्रता के लिए शंख ध्वनि का शंखनाद किया | वीर राजा तुलाराम की ललकार को सुन हरियाणा के समस्त रणबांकुरे स्वतन्त्रता के झण्डे के नीचे एकत्रित हो, अपने यशस्वी नेताओं के नेतृत्व में चल दिए, शत्रु से दो हाथ करने के लिए दिल्ली की ओर । जब राव तुलाराम अपनी सेना के साथ दिल्ली की ओर कूच कर रहे थे, तो मार्ग में सोहना और तावड़ू के बीच अंग्रेजी सेना से मुठभेड़ हो गई, क्योंकि फिरंगियों को राव तुलाराम के गतिविधियों का पता चल गया था । दोनों सेनाओं के मध्य घमासान युद्ध हुआ । आजादी के दीवाने दिल खोल कर लड़े और मैदान जीत लिया । मिस्टर फोर्ड को मुंह की खानी पड़ी और उसकी सारी फौज नष्ट हो गई और वह स्वयं दिल्ली भाग आया ।
उधर मेरठ में स्वाधीनता यज्ञ को आरम्भ करने वाले राव राजा तुलाराम के चचेरे भाई राव कृष्ण गोपाल जो नांगल पठानी (रेवाड़ी) के राव जीवाराम के द्वितीय पुत्र थे और मेरठ में कोतवाल पद पर थे, उन्होंने समस्त कैदखानों के दरवाजों को खोल दिया तथा नवयुवकों को स्वतन्त्रता के लिए ललकारा और समस्त वीरों को स्वाधीनता के झण्डे के नीचे एकत्र किया । अपने साथियों सहित जहां अंग्रेज विद्रोह का दमन करने के लिए परामर्श कर रहे थे, उस स्थान पर आक्रमण किया तथा समस्त अंग्रेज अधिकारियों का सफाया कर दिया और फिर मार-धाड़ मचाते अपने साथियों सहित दिल्ली की तरफ बढ़े ।
दिल्ली आये । भारत के अन्तिम मुगल सम्राट् बहादुरशाह के समीप पहुंचे । अकबर, जहांगीर आदि के चित्रों को देख-देख ठण्डी आहें भरकर अपने पूर्वजों के वैभव को इस प्रकार लुटता देख बहादुरशाह चित्त ही चित्त में अपने भाग्य को कोसा करता था । आज उसने सुना कि कुछ भारतीय सैनिक मेरठ में स्वाधीनता का दीपक जलाकर तेरे पास आये हैं । उनका सोया हुआ मुगल-शौर्य जाग उठा । तुरन्त वीर सेनापति कृष्णगोपाल ने आगे बढ़कर कहा - जहांपनाह ! उठो, अपनी तलवार संभालो, अपना शुभाशीर्वाद दो, जिससे हम अपनी तलवार द्वारा भारतभूमि को फिरंगियों से खाली कर दें । बादशाह ने डबडबाई सी आंखें खोलकर कहा - मेरे वीर सिपाही ! क्या करूं ? आज मेरे पास एक सोने की ईंट भी नहीं जो तुम्हें पुरस्कार में दे सकूं । वीर कृष्णगोपाल साथियों सहित गर्ज उठे - "महाराज, हमें धन की आवश्यकता नहीं है, हम इस प्रशस्त मार्ग में आपका शुभाशीर्वाद चाहते हैं । हम संसार की धन-दौलत को अपनी तलवार से जीतकर आपके चरणों पर ला डालेंगे ।" वीर की सिंहगर्जना सुनकर वृद्ध बादशाह की अश्रुपूर्ण आंखें हो गईं और कह ही तो दिया कि
"गाजियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की ।
तख्ते लंदन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की ।"
राव कृष्णगोपाल को तब यह समाचार मिला कि रेवाड़ी में राजा तुलाराम स्वतन्त्रता के लिए महान् प्रयत्न कर रहे हैं, तो वे स्वयं अपने साथियों सहित रेवाड़ी पहुंच गए । उन्हीं दिनों मि० फोर्ड से युद्ध के ठीक उपरान्त राजा तुलाराम ने अपने प्रान्त की एक सभा बुलाई । इस सभा में महाराजा अलवर, राजा बल्लभगढ़, राजा निमराणा, नवाब झज्जर, नवाब फरुखनगर, नवाब पटौदी, नवाब फिरोजपुर झिरका शामिल हुए । राम तुलाराम ने अपने विशेष मित्र महाराजा जोधपुर को विशेष रूप से निमन्त्रित किया किन्तु उन्होंने राव तुलाराम को लिखकर भेज दिया कि अंग्रेज बहादुर से लोहा लेना कोई सरल कार्य नहीं है । नवाब फरुखनगर, नवाब झज्जर एवं नवाब फिरोजपुर झिरका ने भी नकारात्मक उत्तर दे दिया । इस पर उनको बड़ा क्रोध आया और उन्होंने सभा में ही घोषणा कर दी कि "चाहे कोई सहायता दे या न दे, वह राष्ट्र के लिए कृत-प्रतिज्ञ हैं ।" अपने अन्य वीर साथियों की तरफ देखकर उनका वीर हृदय गरज उठा - "हे भारतमाता ! मैं सब कुछ तन, मन, धन तुम्हारी विपत्तियों को नष्ट करने में समर्पित कर दूंगा। यह मेरी धारणा है । भगवान् सूर्य ! मुझे प्रकाश दो । भूमि जननी ! मुझे गम्भीरता दो, वायु शान्ति दो और दो बाहुओं में अपार बल, जो सच्चे चरित्र के नाम पर मर मिटे तथा मार भगाये कायरता को हृदय मंदिरों से ।" आओ वीरो ! अब सच्चे क्षत्रियत्व के नाते इस महान् स्वाधीनता युद्ध (यज्ञ) को पूरा करें ।" उनकी इस गर्जना से प्रभावित होकर उपरोक्त राजा, नवाबों के भी पर्याप्त मनचले नवयुवक योद्धा राजा तुलाराम की स्वाधीनता सेना में सम्मिलित हो गये जिनमें नवाब झज्जर के दामाद समदखां पठान भी थे। राजा तुलाराम ने अंग्रेजों के विरुद्ध और नई सेना भी भरती की और स्वातन्त्र्य-संग्राम को अधिक तेज कर दिया । उन्होंने अपने चचेरे भाई गोपालदेव को सेनापति नियुक्त किया । जब अंग्रेजों को यह ज्ञात हुआ कि राव तुलाराम हम से लोहा लेने की पुरजोर तैयारी कर रहे हैं और आस-पास के राजाओं एवं नवाबों को हमारे विरुद्ध उभार रहे हैं तो मि० फोर्ड के नेतृत्व में पुनः एक विशाल सेना राव तुलाराम के दमन के लिए भेजी गई। जब राव साहब को यह पता चला कि इस बार मि० फोर्ड बड़े दलबल के साथ चढ़ा आ रहा है तो उन्होंने रेवाड़ी में युद्ध न करने की सोच महेन्द्रगढ़ के किले में मोर्चा लेने के लिए महेन्द्रगढ़ की ओर प्रस्थान किया । अंग्रेजों ने आते ही गोकुलगढ़ के किले तथा राव तुलाराम के निवासघर, जो रामपुरा (रेवाड़ी) में स्थित है, को सुरंगें लगाकर नष्ट-भ्रष्ट कर दिया और तुलाराम की सेना के पीछे महेन्द्रगढ़ की तरफ कूच किया ।
राव तुलाराम ने पर्याप्त प्रयत्न किया कि किसी प्रकार महेन्द्रगढ़ किले के फाटक खुल जावें, किन्तु दुर्ग के अध्यक्ष ठाकुर स्यालुसिंह कुतानी निवासी ने हजार विनती करने पर भी किले के द्वार आजादी के दीवानों के लिए नहीं खोले । (बाद में अंग्रेजों ने दुर्ग न खोलने के उपलक्ष्य में स्यालुसिंह को समस्त कुतानी ग्राम की भूमि प्रदान कर दी ।)
वीर सेनापति तुलाराम दृढ़ हृदय कर, असफलताओं को न गिनते हुए नारनौल के समीप एक पहाड़ी स्थान नसीबपुर के मैदान में साथियों सहित वक्षस्थल खोलकर रणस्थल में डट गये । अंग्रेजों के आते ही युद्ध ठन गया । भीषण युद्ध डटकर हुआ । रणभेरियां बज उठीं । वीरों के खून में उबाल था । गगनभेदी जयकारों से तुमुल निनाद गुंजार करने लगा । साधन न होने पर भी सेना ने संग्राम में अत्यन्त रणकौशल दिखाया । रक्त-धारा बह निकली । नरमुंडों से मेदिनी मंडित हो गई । शत्रु सेना में त्राहि-त्राहि की पुकार गूंज उठी । तीन दिन तक भीषण युद्ध हुआ । तीसरे दिन तो इतना भीषण संग्राम हुआ कि हिन्दू कुल गौरव महाराणा प्रताप के घोड़े की भांति राव तुलाराम का घोड़ा भी शत्रु सेना को चीरते हुए अंग्रेज अफसर (जो काना साहब के नाम से विख्यात थे) के हाथी के समीप पहुंचा । पहुंचते ही सिंहनाद कर वीरवर तुलाराम ने हाथी का मस्तक अपनी तलवार के भरपूर वार से पृथक् कर दिया । दूसरे प्रहार से काना साहब को यमपुर पहुंचाया । काना साहब के धराशायी होते ही शत्रु सेना में भगदड़ मच गई । शत्रु सेना तीन मील तक भागी । मि० फोर्ड भी मैदान छोड़ भागे और दादरी के समीप मोड़ी नामक ग्राम में एक जाट चौधरी के यहां शरण ली । बाद में मि० फोर्ड ने अपने शरण देने वाले चौधरी को जहाजगढ़ (रोहतक) के समीप बराणी ग्राम में एक लम्बी चौड़ी जागीर दी और उस गांव का नाम फोर्डपुरा रखा, वहां पर आजकल उस चौधरी के वंशज निवास करते हैं ।परन्तु इस दौरान में पटियाला, नाभाजीन्द एवं जयपुर की देशद्रोही नागा फौज के अंग्रेजों की सहायता के लिए आ जाने से पुनः भीषण युद्ध छिड़ गया । वीरों ने अन्तिम समय सन्निकट देखकर घनघोर युद्ध किया परन्तु अपार सेना के समक्ष अल्प सेना का चारा ही क्या चलता ? इसी नसीबपुर के मैदान में राजा तुलाराम के महान् प्रतापी योद्धा, मेरठ स्वाधीनता-यज्ञ को आरम्भ करने वाले, अहीरवाल के एक-एक गांव में आजादी का अलख जगाने वाले, राव तुलाराम के चचेरे भाई वीर शिरोमणि राव कृष्णगोपाल एवं कृष्णगोपाल के छोटे भाई वीरवर राव रामलाल जी और राव किशनसिंह, सरदार मणिसिंह, मुफ्ती निजामुद्दीन, शादीराम, रामधनसिंह, समदखां पठान आदि-आदि महावीर क्षत्रिय जनोचित कर्त्तव्य का पालन करते हुए भारत की स्वातन्त्र्य बलिवेदी पर बलिदान हो गये । उन महान् योद्धाओं के पवित्र रक्त से रंजित होकर नसीबपुर के मैदान की वीरभूमि हरियाणा का तीर्थस्थान बन गई । दुःख है कि आज उस युद्ध को समाप्त हुए एक शताब्दि हो गई किन्तु हरियाणा निवासियों ने आज तक उस पवित्र भूमि पर उन वीरों का कोई स्मारक बनाने का प्रयत्न ही नहीं, साहस भी न किया । यदि भारत के अन्य किसी प्रान्त में इतना बलिदान किसी मैदान में होता तो उस प्रान्त के निवासी उस स्थान को इतना महत्व देते कि वह स्थान वीरों के लिए आराध्य-भूमि बन जाता तथा प्रतिवर्ष नवयुवक इस महान् बलिदान-भूमि से प्रेरणा प्राप्त कर अपना कर्त्तव्य पालन करने के लिए उत्साहित होते । आज मराठों की जीवित शक्ति ने सन् 1857 के स्वातन्त्र्य युद्ध की अमर सेनानी लक्ष्मीबाई एवं तांत्या टोपे नाना साहब के महान् बलिदान को अंग्रेजों के प्रबल दमनचक्र के विपरीत भी समाप्त नहीं होने दिया । अंग्रेजों के शासन काल में भी उपर्युक्त वीरों का नाम भारत के स्वातन्त्र्य-गगन में प्रकाशित होता रहा । बिहार के बूढ़े सेनापति ठा. कुंवरसिंह के बलिदान को बिहार निवासियों ने जीवित रखा । जहां कहीं भी कोई बलिदान हुआ, किसी भी समय हुआ, वहां की जनता ने अपने प्राचीन गौरव के प्रेरणाप्रद बलिदानों को जीवित रखा । आज मेवाड़ प्रताप का ही नहीं, अपितु उसके यशस्वी घोड़े का "चेतक चबूतरा" बनाकर प्रतिष्ठित करता है । चूड़ावत सरदार के बलिदान को "जुझार जी" का स्मारक बनाकर जीवित रखे हुए हैं । परन्तु अपने को भारत का सबसे अधिक बलशाली कहने वाला हरियाणा प्रान्त अपने पूर्व के बलिदान को भुलाये बैठा है । यह लज्जा का विषय नहीं तो और क्या है ? जर्मन के महान् विद्वान मैक्समूलर लिखते हैं - A nation that forgets the glory of its past, loses the mainstay of its national character. अर्थात् जो राष्ट्र अपने प्राचीन गौरव को भुला बैठता है, वह राष्ट्र अपनी राष्ट्रीयता के आधार स्तम्भ को खो बैठता है । यही उक्ति हरयाणा के निवासियों पर पूर्णतया चरितार्थ होती है ।
नसीबपुर के मैदान में राव तुलाराम हार गये और अपने बचे हुए सैनिकों सहित रिवाड़ी की तरफ आ गये । सेना की भरती आरम्भ की । परन्तु अब दिन प्रतिदिन अंग्रेजों को पंजाब से ताजा दम सेना की कुमुक मिल रही थी ।
निकलसन ने नजफगढ़ के स्थान में नीमच वाली भारतीय सेनाओं के आपसी झगड़े से लाभ उठाकर दोनों सेनाओं को परास्त कर दिया । सारांश यह है कि अक्तूबर 1857 के अन्त तक अंग्रेजों के पांव दिल्ली और उत्तरी भारत में जम गये । अतः तुलाराम अपने नये प्रयत्न को सफल न होते देख बीकनेर, जैसलमेर पहुंचे । वहां से कालपी के लिए चल दिये । इन दिनों कालपी स्वतन्त्रता का केन्द्र बना हुआ था । यहां पर पेशवा नाना साहब के भाई, राव साहब, तांत्या टोपे एवं रानी झांसी भी उपस्थित थी । उन्होंने राव तुलाराम का महान् स्वागत किया तथा उनसे सम्मति लेते रहे । इस समय अंग्रेजों को बाहर से सहायता मिल रही थी । कालपी स्थित राजाओं ने परस्पर विचार विमर्श कर राव राजा तुलाराम को अफगानिस्तान सहायता प्राप्त करने के उद्देश्य से भेज दिया । राव तुलाराम वेष बदलकर अहमदाबाद और बम्बई होते हुए बसरा (ईराक) पहुंचे । इस समय इनके साथ श्री नाहरसिंह, श्री रामसुख एवं सैय्यद नजात अली थे । परन्तु खाड़ी फारस के किनारे बुशहर के अंग्रेज शासक को इनकी उपस्थिति का पता चल गया । भारतीय सैनिकों की टुकड़ी जो यहां थी, उसने राव तुलाराम को सूचित कर दिया और वे वहां से बचकर सिराज (ईरान) की ओर निकल गये । सिराज के शासक ने उनका भव्य स्वागत किया और उन्हें शाही सेना की सुरक्षा में ईरान के बादशाह के पास तेहरान भेज दिया । तेहरान स्थित अंग्रेज राजदूत ने शाह ईरान पर उनको बन्दी करवाने का जोर दिया, शाह ने निषेध कर दिया । तेहरान में रूसी राजदूत से राव तुलाराम की भेंट हुई और उन्होंने सहायता मांगी और राजदूत ने आश्वासन भी दिया । परन्तु पर्याप्त प्रतीक्षा के पश्चात् राव तुलाराम ने अफगानिस्तान में ही भाग्य परखने की सोची । उनको यह भी ज्ञात हुआ कि भारतीय स्वातन्त्र्य संग्राम में भाग लेने वाले बहुत से सैनिक भागकर अफगानिस्तान आ गये हैं । राजा तुलाराम डेढ़ वर्ष पीछे तेहरान से अमीर काबुल के पास आ गये, जो उन दिनों कंधार में थे । वहां रहकर बहुत प्रयत्न किया परन्तु सहायता प्राप्त न हो सकी । राव तुलाराम को बड़ा दुःख हुआ और छः वर्ष तक अपनी मातृभूमि से दूर रहकर उसकी पराधीनता की जंजीरों को काटने के प्रयत्न में एक दिन काबुल में पेचिस द्वारा इस संसार से प्रयाण कर गये । उन्होंने वसीयत की कि उनकी भस्म रेवाड़ी और गंगा जी में अवश्यमेव भेजी जावे । ब्रिटिश शासन की ओर से 1857 के स्वातन्त्र्य संग्राम में भाग लेने वालों के लिए सार्वजनिक क्षमादान की सूचना पाकर उनके दो साथी राव नाहरसिंह व राव रामसुख वापस भारत आये ।
लेख को समाप्त करते हुए अन्तरात्मा रो उठती है कि आज भारतीय जनता उस वीर शिरोमणि राव तुलाराम के नाम से परिचित तक नहीं । मैं डंके की चोट पर कहता हूं कि यदि झांसी की लक्ष्मीबाई ने स्वातन्त्र्य-संग्राम में सर्वस्व की बलि दे दी, यदि तांत्या टोपे एवं ठाकुर कुंवरसिंह अपने को स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर उत्सर्ग कर गये - यदि यह सब सत्य है तो यह भी सुनिर्धारित सत्य है कि सन् 1857 के स्वातन्त्र्य महारथियों में राव तुलाराम का बलिदान भी सर्वोपरि है । किन्तु हमारी दलित भावनाओं के कारण राजा तुलाराम का बलिदान इतिहास के पृष्ठों से ओझल रहा । आज भी अहीरवाल में जोगी एवं भाटों के सितारे पर राजा तुलाराम की अमर गाथा सुनी जा सकती है । किं बहुना, एक दिन उस वीर सेनापति राव तुलाराम के स्वतन्त्रता शंख फूंकने पर अहीरवाल की अन्धकारावृत झोंपड़ियों में पड़े बुभुक्षित नरकंकालों से लेकर रामपुरा (रेवाड़ी) के गगनचुम्बी राजप्रसादों की उत्तुंग अट्टालिकाओं में विश्राम करने वाले राजवंशियों तक ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध किये जा रहे स्वातन्त्र्य आन्दोलन में अपनी तलवार के भीषण वार दिखाकर क्रियात्मक भाग लिया था । आज भी रामपुरा एवं गोकुलगढ़ के गगन-चुम्बी पुरातन खंडहरावशेष तथा नसीबपुर के मैदान की रक्तरंजित वीरभूमि इस बात की साक्षी दे रहे हैं कि वे अपने कर्त्तव्य पालन में किसी से पीछे नहीं रहे ।
इस प्रान्त को स्वातन्त्र्य-युद्ध में भाग लेने का मजा तुरन्त ब्रिटिश सरकार ने चखा दिया । राव तुलाराम के राज्य की कोट कासिम की तहसील जयपुर को, तिजारा व बहरोड़ तहसील अलवर को, नारनौल व महेन्द्रगढ़ पटियाला को, दादरी जीन्द को, बावल तहसील नाभा को, कोसली के आस-पास का इलाका जिला रोहतक में और नाहड़ तहसील के चौबीस गांव नवाब दुजाना को पुरस्कार रूप में प्रदान कर दिया । यह था अहीरवाल का स्वातन्त्र्य संग्राम में भाग लेने का परिणाम, जो हमारे संगठन को अस्त-व्यस्त करने का कारण बना । और यह एक मानी हुई सच्चाई है कि आज अहीर जाति का न तो पंजाब में कोई राजनैतिक महत्व है और न राजस्थान में । सन् 1857 से पूर्व इस जाति का यह महान् संगठन रूप दुर्ग खड़ा था, तब था भारत की राजनीति में इस प्रान्त का अपना महत्व ।
अन्त में भारतवर्ष के स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास लेखकों से यह आशा करता हूं कि वे भारत के नवीन इतिहास में इस वीर प्रान्त की आहुति को उपयुक्त स्थान देना न भूलेंगे ।