वीर लोरिक
लोरिक एक लोकविश्रुत ऐतिहासिक नायक हैं जो बहुत बलशाली और आम जन के हितैषी के रूप में समस्त उत्तर भारत में विख्यात हैं | उनका जन्म बलिया जनपद के गऊरा गाँव में एक यादव परिवार में हुआ था । उनके काल निर्धारण को लेकर बहुत विवाद है - कोई विद्वान् उन्हें ईसा के पूर्व का बताते हैं तो कुछ उन्हें मध्ययुगीन मानते हैं | यह भी कहा जाता है लोरिक की वंशावली राजा भोज से मिलती जुलती है। लोरिकायन पवांरो का काव्य माना जाता है और पवारों के वंश में (1167-1106) ही राजा भोज हुए थे। बहरहाल लोरिक जाति के अहीर (आभीर) थे जो एक लड़ाकू जाति (आरकियोलोजिकल सर्वे आफ इंडिया रिपोर्ट , खंड आठ) रही है।
जनश्रुतियों के नायक लोरिक की कथा से सोनभद्र के ही एक अगोरी (अघोरी?) किले का गहरा सम्बन्ध है, यह किला अपने भग्न रूप में आज भी मौजूद तो है मगर है बहुत प्राचीन और इसके प्रामाणिक इतिहास के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं है | यह किला ईसा पूर्व का है किन्तु दसवीं शती के आस पास इसका पुनर्निर्माण खरवार और चन्देल राजाओं ने करवाया। अगोरी दुर्ग के ही नृशंस अत्याचारी राजा मोलागत से लोरिक का घोर युद्ध हुआ था | कहीं कहीं ऐसी भी जनश्रुति है कि लोरिक को तांत्रिक शक्तियाँ भी सिद्ध थीं और लोरिक ने अघोरी किले पर अपना वर्चस्व कायम किया | लोरिक ने उस समय के अत्यंत क्रूर राजा मोलागत को पराजित किया था और इस युद्ध का हेतु बनी थी - लोरिक और मंजरी (या चंदा) की प्रेम कथा।
अगोरी के राजा मोलागत के अधीन ही महरा (मेहर) नाम का अहीर रहता था | महरा की ही आख़िरी सातवीं संतान थी मंजरी | जो अत्यंत ही सुन्दर थी | जिस पर मोलागत की बुरी नजर पडी थी और वह उसे महल में ले जाने का दबाव डाल रहा था। इसी दौरान मंजरी के पिता महरा को लोरिक के बारे में जानकारी हुई और मंजरी की शादी लोरिक से तय कर दी गयी |
वीर अहीर लोरिक बलिया जनपद के गौरा गाँव के निवासी थे, जो बहुत ही बहादुर और बलशाली थे | उनकी तलवार 85 मण की थी। उनके बड़े भाई का नाम था सवरू । वीर लोरिक काली माता के बहुत बड़े भक्त थे। युद्ध में वे अकेले हज़ारो के बराबर थे।
लोरिक को पता था कि बिना मोलागत को पराजित किये वह मंजरी को विदा नहीं करा पायेगा। युद्ध की तैयारी के साथ बलिया से बारात सोनभद्र के मौजूदा सोन (शोण) नदी तट तक आ गयी । राजा मोलागत ने तमाम उपाय किये कि बारात सोन को न पार कर सके, किन्तु बारात नदी पार कर अगोरी किले तक जा पहुँची, भीषण युद्ध और रक्तपात हुआ - इतना खून बहा कि अगोरी से निलकने वाले नाले का नाम ही रुधिरा नाला पड़ गया और आज भी इसी नाम से जाना जाता है, पास ही नर मुंडों का ढेर लग गया - आज भी नरगडवा नामक पहाड़ इस जनश्रुति को जीवंत बनाता खडा है | कहीं शोण (कालांतर का नामकरण सोन ) का नामकरण भी तो उसके इस युद्ध से रक्तिम हो जाने से तो नहीं हुआ ?
अघोरी किले का एक मौजूदा दृश्य
मोलागत और उसकी सारी सेना और उसका अपार बलशाली इनराव्त हाथी भी मारा गया -इनरावत हाथी का वध लोरिक करता है और सोंन नदी में उसके शव को फेंक देता है - आज भी हाथी का एक प्रतीक प्रस्तर किले के सामने सोंन नदी में दिखता है। लोरिक के साथ मोलागत और उसके कई मित्र राजाओं से हुए युद्ध के प्रतीक चिह्न किले के आस पास मौजूद है | जिसमें राजा निर्मल की पत्नी जयकुंवर का उसके पति के लोरिक द्वारा मारे जाने के उपरान्त उसके सिर को लेकर सती होने के प्रसंग से जुड़ा एक बेर का पेड़ सतिया का बेर और युद्ध के दौरान ही बेहद निराश मंजरी द्वारा कुचिला का फल (जहर ) खाने का उपक्रम करना और उसके हाथ से लोरिक का कुचिला का फल फेक देना और आज भी केवल अगोरी के इर्द गिर्द ही कुचिला के पेड़ों का मिलना रोचकता लिए हुए है।
मंजरी की विदाई के बाद डोली मारकुंडी पहाडी पर पहुँचने पर नवविवाहिता मंजरी लोरिक के अपार बल को एक बार और देखने के लिए चुनौती देती है और कहती है कि कि कुछ ऐसा करो जिससे यहां के लोग याद रखें कि लोरिक और मंजरी कभी किस हद तक प्यार करते थे। लोरिक कहता है कि बताओ ऐसा क्या करूं जो हमारे प्यार की अमर निशानी बने ही, प्यार करने वाला कोई भी जोड़ा यहां से मायूस भी न लौटे। मंजरी लोरिक को एक पत्थर दिखाते हुए कहती है कि वे अपने प्रिय हथियार बिजुलिया खांड (तलवार नुमा हथियार) से एक विशाल शिलाखंड को एक ही वार में दो भागो में विभक्त कर दें - लोरिक ने ऐसा ही किया और अपनी प्रेम -परीक्षा में पास हो गए |
यह खंडित शिला आज उसी अखंड प्रेम की जीवंत कथा कहती प्रतीत होती है | मंजरी ने खंडित शिला को अपने मांग का सिन्दूर भी लगाया। यहाँ गोवर्द्धन पूजा और अन्य अवसरों पर मेला लगता है -लोग कहते हैं कि कुछ अवसरों पर शिला का सिन्दूर चमकता है –
यह खंडित शिला आज उसी अखंड प्रेम की जीवंत कथा कहती प्रतीत होती है | मंजरी ने खंडित शिला को अपने मांग का सिन्दूर भी लगाया। यहाँ गोवर्द्धन पूजा और अन्य अवसरों पर मेला लगता है -लोग कहते हैं कि कुछ अवसरों पर शिला का सिन्दूर चमकता है –
लोरिक और मंजरी के अमर प्रेम का प्रतीक वीर लोरिक पत्थर
वीर लोरिक पत्थर, एक विशालकाय दो टुकड़ो में खंडित पत्थर, जिस पत्थर को यादवो के वीर अहीर राजा लोरिक ने तलवार के एक ही प्रहार से चीर दिया था, राबर्ट्सगंज से शक्तिनगर मुख्यमार्ग पर मात्र 6 किमी दूरी पर स्थित है, जो सहज ही यात्रियों - पर्यटकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है और इसके इतिहास के बारे में जानने कि उत्सुकता उत्पन्न करता है । इस पत्थर से जुड़ा आख्यान वस्तुतः हजारो पक्तियों की गाथा लोरिकी है जिसे यहाँ के लोक साहित्यकार डॉ अर्जुन दास केसरी ने अपनी पुरस्कृत कृति लोरिकायन में संग्रहीत किया है | उत्तर प्रदेश में आल्हा के साथ ही लोरिकी एक बहुत महत्वपूर्ण लोकगाथा है | कहते हैं संस्कृत की मशहूर कृति मृच्छ्कटिकम का प्रेरणास्रोत लोरिकी (लोरिकायन) ही है। पंडित जवाहरलाल नेहरु ने डिस्कवरी आफ इंडिया में लोरिकी का उल्लेख किया है । पश्चिमी विद्वानों में बेवर ,बरनाफ ,जार्ज ग्रियर्सन आदि ने भी लोरिकी पर काफी कुछ लिखा है।
लोरिकायन, भोजपुरी की सबसे प्रसिद्ध लोकगाथा है। इसका नायक लोरिक है। वीर रस से परिपूर्ण इस लोकगीत में नायक लोरिक के जीवन-प्रसंगों का जिस भाव से वर्णन करता है, वह देखते-सुनते ही बनता है | लोरकी में वीर लोरिक और मंजरी के प्यार के किस्से गाये जाते हैं। लोरिक जी के पिता जी का नाम बुधकुब्बे था, उनकी 2 रानिया थी मंजरी और चंदा। उनके बेटे का नाम वीर भोरिक था। उनके बड़े भाई का नाम था सवरू।
कितनो होई हैं अहीर सयाना,
लोरिक छाडी न गई हैं गाना i i
लोरिक छाडी न गई हैं गाना i i
छत्तीसगढ़ में लोरिकी को ’’चंदैनी’’ कहा जाता है | छत्तीसगढ़ी कथानुसार एक रोज पनागर नामक राज्य से बोड़रसाय अपनी पत्नी बोड़नीन तथा भाई कठावत और उसकी पत्नी खुलना के साथ गढ़गौरा अर्थात् आरंग आयें। उन्होंने राजा महर को एक ‘‘पॅंड़वा’’ (भैंस का बच्चा) जिसका नाम सोनपड़वा रखा गया था, भेंट किया, इस भेंट से राजा महर अति प्रसन्न हुए और बोड़रसाय को बदले में रीवां राज्य दे दिया। बोड़रसाय राऊत अपने परिवार सहित रींवा राज्य में राज करने लगा। इसी बोड़रसाय का एक पुत्र था- बावन और सहोदर का पुत्र था-लोरिक। संयोग की बात है कि राजा महर की लाडली बेटी और बोड़रसाय का पुत्र बावन हम उम्र थे। राजा महर ने बावन की योग्य समझकर चंदा से उसका विवाह कर किया, पर कुछ समय व्यतीत हो पाया था कि बावन किसी कारणवश नदी तट पर तपस्या करने चला गया (संभवतः बावन निकटस्थ महानदी पर तपस्थार्थ गया हो) उधर राजा महर का संदेश आया कि चंदा का गौना करा कर उसे ले जाओ। इस विकट स्थिति में राजा बोड़रसाय को कुछ सूझ नहीं रहा था। अंततः इस विपदा से बचने का उन्हें एक ही उपाय नजर आया। लोरिक, जो कि बावन का चचेरा भाई था, दूल्हा बनाकर गौना कराने भेज दिया। लोकगीत नाट्य चंदैनी में लोरिक का रूप बड़ा आकर्षण बताया गया है। लोरिक सांवले बदन का बलिष्ठ शरीर वाला था। उसके केश घुंघराले थे, वह हजारों में अलग ही पहचाना जाता था। लोरिक गढ़गौरा चला गया और सभी रस्मों को निपटाकर वापसी के लिए चंदा के साय डोली में सवार हुआ। डोली के भीतर जब चंदा ने घूंघट हटाकर अपने दूल्हे को निहारा तो उसके रूप में एक अज्ञात व्यक्ति को देखकर वह कांप उठी। चंदा इतनी भयभीत हो गई कि वह तत्क्षण डोली से कूदकर जंगल की ओर भाग गयी। लोरिक भी घबरा गया और चंदा के पीछे भागा। उसने चंदा को रोका और अपना परिचय दिया। अब जब संयत होकर चंदा ने लोरिक को देखा, तब वह उस पर मुग्ध हो गयी। लोरिक सीधे उसके मन में समाता चला गया। लोरिक का भी लगभग यही हाल था। यह चंदा के धवल रूप को एकटक देखता रहा गया। दोनों अपनी समस्या भूलकर एक-दूसरे के रूप-जाल में फंस गये। वही उनके कोमल और अछूते मन में प्रणय के बीच पड़े। दोनों ने एक दूसरे से मिलने का और सदा संग रहने का वचन किया।
प्रायः समीक्षक लोरिक चंदा को वीराख्यानक लोकगाथा के अंतर्गत
स्वीकार करते हैं। यदि लोरिक केवल वीर चरित्र होता तो इसे राजा या सामंत वर्ग के
प्रतिनिधि के रूप में चित्रित किया जाता। महाकाव्य अथवा लोकगाथाओं में वीर लोकनायक
प्रायः उच्च कुल अथवा नरेशी होते हैं। इस आधार पर लोरिक वीर होते हुए भी सामान्य
यदुवंशियों के युद्ध कौशल का प्रतीक है। उसके रूप और गुण से सम्मोहित राजकुमारी
चंदा अपने पति और घर को त्यागकर प्रेम की ओर अग्रसित होती है। इस दोनों के मिलन
में जो द्वन्द और बंधन है, उसे पुरूषार्थ से काटने का प्रयास
इस लोकगाथा का गंतव्य है। इस आधार पर उसे प्रेमाख्यानक लोकगाथा के अंतर्गत
सम्मिलित करना समीचीन प्रतीत होता है।
उपर्युक्त गाथाओं से स्पष्ट है कि लोरिक चंदा की गाथा अत्यंत व्यापक
एवं साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। यद्यपि इसे अहीरों की जातीय धरोहर माना
जाता है तथापि यह संपूर्ण हिन्दी प्रदेश की नहीं वरन् दक्षिण भारत में भी लोकप्रिय
एवं प्रचलित है। श्री श्याम मनोहर पांडेय के अनुसार - ‘‘बिहार
में मिथिला से लेकर उत्तरप्रदेश और छत्तीसगढ़ में इसके गायक अभी भी जीवित है’’
वे प्रायः अहीर है जिनका मुख्य धंधा दूध का व्यापार और खेती करना
है। लोरिक की कथा लोकसाहित्य की कथा नहीं है, बल्कि इस कथा
पर आधारित साहित्यिक कृतियां भी उपलब्ध है। विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित ‘‘लोरिकी’’ लोकगाथा के नाम एवं कथा में अंतर सर्वाधिक
व्यापक रूप से ‘‘भोजपुरी’’ में उपलब्ध
होता है जहां यह लोकगाथा चार खंडों में गायी जाती है। ‘‘लोरिक’’
की लोकगाथा का दूसरा भाग, ‘‘लोरिक एवं चनवा का
विवाह’’ भोजपुरी क्षेत्र के अतिरिक्त अन्य प्रदेशों में भी
प्रचलित है। मैथिली और छत्तीसगढ़ी प्रदेशों में तो यह अत्यधिक प्रचलित है। विभिन्न
प्रदेशों में प्रचलित ‘‘लोरिकी’’ की
कथा में परिलक्षित साम्य-वैषम्य अधोलिखितानुसार है-
‘‘भोजपुरी
रूप में चनवा का सिलहर (बंगाल) से लौटकर अपने पिता के घर गउरा आना वर्णित है।
छत्तीसगढ़ी रूप में भी यह समादृत है, परन्तु कुछ विभिन्नताएं
है। इसमें चनैनी का अपने पिता के घर से पति वीर बावन के घर लौटना वर्णित है। अन्य
रूपों में यह वर्णन अलभ्य है।’’
भोजपुरी रूप में चनैनी को मार्ग में रोककर बाठवा अपनी पत्नी बनाना
चाहता है, परन्तु वह किसी तरह गउरा अपने पिता के घर पहुंच
जाती है। बाठवा गउरा में आकर उसको कष्ट देता है, राजा सहदेव
भी बाठवा से डरता है। मंजरी के बुलाने पर लोरिक पहुंचता है और बाठवा को मार भगाता
है। जिसकी सब लोग प्रशंसा करते हैं।
छत्तीसगढ़ी रूप में यह कथा वर्णित है परन्तु उसमें थोड़ा अंतर है महुआ
(बाठवा) मार्ग में चनैनी को छेड़ता है। लोरिक वहां आकर उसे मार भगाता है। लोरिक की
वीरता देखकर वह मोहित हो जाती है, लोरिक को वह अपने महल में
बुलाती है। शेष अन्य रूपों में वह वर्णन नहीं मिलता।
भोजपुरी में राजा सहदेव के यहां भोज है, चनवा
लोरिक को अपनी ओर आकर्षित करती है, रात्रि में लोरिक रस्सी
लेकर चनवा के महल के पीछे पहुंचता है, जहां दोनों का मिलन
वर्णित है। छत्तीसगढ़ में भोज का वर्णन नहीं मिलता, परन्तु
रात्रि में लोरिक उसी प्रकार रस्सी लेकर जाता है और कोठे पर चढ़ता है तथा दोनों
मिलकर एक रात्रि व्यतीत करते है।
श्री हीरालाल काव्योपाध्याय द्वारा प्रस्तुत छत्तीसगढ़ी कथायान ‘‘लोरिक’’ में भी इसका वर्णन है परन्तु कुछ भिन्न रूप
में इसमें चंदा (चनैनी) का पति वीरबावन महाबली है, जो कुछ
महीने सोता और छह महीने जागता है। उसकी स्त्री चंदा, लोरी से
प्रेम करने लगती है, वह उसे अपने महल में बुलाती है और स्वयं
खिड़की से रस्सी फेंककर ऊपर चढ़ाती है। मैथिली तथा उत्तरप्रदेश की गाथा में यह वर्णन
प्राप्त नहीं होता।
भोजपुरी लोकगाथा में रात्रि व्यतीत कर जब लोरिक चनैनी के महल सें जाने
लगता है। तब अपनी पगड़ी के स्थान पर चनैनी का चादर बांधकर चल देता है। धोबिन उसे इस
कठिनाई से बचाती है। वेरियर एल्विन द्वारा प्रस्तुत छत्तीसगढ़ी रूप में यह वर्णन
नहीं है परन्तु काव्योपाध्याय द्वारा प्रस्तुत गाथा में यह अंश उसी प्रकार वर्णित
है। शेष अन्य रूपों में यह वर्णन नहीं मिलता।
चनैनी के बहुत मनाने पर लोरिक का हरदी के लिए पलायन की घटना सभी
क्षेत्रों की गाथा में उपलब्ध है।
लोरिक को मार्ग में
मंजरी और संवरू रोकते है। छत्तीसगढ़ी रूप में भी यह वर्णित है, परन्तु केवल संवरू का नाम आता है। शेष रूपों में यह
नहीं प्राप्त होता है।
भोजपुरी रूप में लोरिक मार्ग में अनेक विजय प्राप्त करता है तथा महापतिया
दुसाध को जुए और युद्ध में भी हराता है, छत्तीसगढ़ी तथा अन्य
रूपों में इसका वर्णन नहीं हैं।
भोजपुरी में लोरिक अनेक छोटे-मोटे दुष्ट राजाओं को मारता है, मार्ग में चनवा को सर्प काटता है, परन्तु वह गर्भवती
होने के कारण बच जाती है। बेरियर एल्विन द्वारा संपादित छत्तीसगढ़ी में लोरिक को
सर्प काटता है तथा चनैनी शिव पार्वती से प्रार्थना करती है। लोरिक पुनः जीवित हो
जाता है। शेष रूपों में यह वर्णन नहीं प्राप्त होता।
भोजपुरी के अनुसार
लोरिक की हरदी के राजा महुबल से बनती नहीं थी। महुबल ने अनेक उपाय किया, परन्तु लोरिक मरा नहीं। अंत में महुबल ने पत्र के साथ
लोरिक की नेवारपुर ‘‘हरवा-बरवा’’ दुसाध के पास भेजा। लोरिक वहां भी विजयी होता है। अंत में महुबल को अपना
आधा राजपाट लोरिक को देना पड़ता है और मैत्री स्थापित करनी पड़ती है।
मैथिली गाथा के अनुसार हरदी के राजा मलबर (मदुबर) और लोरिक आपस में मित्र
है। मलबर अपने दुश्मन हरबा-बरवा के विरूद्ध सहायता चाहता है। लोरिक प्रतिज्ञा करके
उन्हें नेवारपुर में मार डालता है।
एल्विन द्वारा प्रस्तुत छत्तीसगढ़ी रूप में यह कथा विशिष्ट है इसमें लोरिक और करिंधा का राजा हारकर लोरिक के विरूद्ध षड़यंत्र करता है और उसे पाटनगढ़ भेजना चाहता है। लोरिक नहीं जाता।
भोजपुरी रूप में कुछ काल पश्चात् मंजरी से पुनः मिलन वर्णित है। छत्तीसगढ़ी रूप में हरदी में लोरिक के पास मंजरी की दीन-दशा का समाचार आता है। लोरिक और चनैनी दोनों गउरा लौट आते है। उत्तरप्रदेश के बनारसी रूप में भी लोरिक अपनी मां एवं मंजरी की असहाय अवस्था का समाचार सुनकर चनैनी के साथ गउरा लौटता है। शेष रूपों में यह वर्णन नहीं मिलता।
एल्विन द्वारा प्रस्तुत छत्तीसगढ़ी रूप में यह कथा विशिष्ट है इसमें लोरिक और करिंधा का राजा हारकर लोरिक के विरूद्ध षड़यंत्र करता है और उसे पाटनगढ़ भेजना चाहता है। लोरिक नहीं जाता।
भोजपुरी रूप में कुछ काल पश्चात् मंजरी से पुनः मिलन वर्णित है। छत्तीसगढ़ी रूप में हरदी में लोरिक के पास मंजरी की दीन-दशा का समाचार आता है। लोरिक और चनैनी दोनों गउरा लौट आते है। उत्तरप्रदेश के बनारसी रूप में भी लोरिक अपनी मां एवं मंजरी की असहाय अवस्था का समाचार सुनकर चनैनी के साथ गउरा लौटता है। शेष रूपों में यह वर्णन नहीं मिलता।
भोजपुरी रूप सुखांत है, इसमें लोरिक अंत में
मंजरी और घनवा के साथ आनंद से जीवन व्यतीत करते है। मैथिली रूप में भी सुखांत है
परन्तु उसमें गउरा लौटना वर्णित नहीं है। एल्विन द्वारा प्रस्तुत छत्तीसगढ़ी रूप
में लोरिक अपनी पत्नी व घर की दशा से दुखित होकर सदा के लिए बाहर चला जाता है।
छत्तीसगढ़ में काव्योपाध्याय द्वारा प्रस्तुत रूप का अंत इस प्रकार से होता है-
लोरी चंदा के साथ भागकर जंगल के किले में रहने लगता है। वहां चंदा
का पति वीरबावन पहुंचता है। उससे लोरी का युद्ध होता है। वीरबावन हार जाता है और
निराश होकर अकेले गउरा में रहने लगता है।
लोकगाथा के बंगला रूप में वर्णित ‘‘लोर’’, मयनावती तथा चंद्राली वास्तव में भोजपुरी के लोरिक मंजरी और चनैनी ही है।
बावनवीर का वर्णन छत्तीसगढी़ रूप में भी प्राप्त होता है। बंगला रूप में चंद्राली
को सर्प काटता है। भोजपुरी रूप में भी गर्भवती चनैनी को सर्प काटता है। दोनों रूप
में वह पुनः जीवित हो जाती है। बंगला रूप में मयनावती के सतीत्व का वर्णन है।
भोजपुरी में भी मंजरी की सती रूप में वर्णन किया गया है। लोकगाथा का हैदराबादी रूप
छत्तीसगढ़ी के काव्योपाध्य के अधिक साम्य रखता है।
श्री सत्यव्रत सिन्हा द्वारा उल्लेखित उपर्युक्त साम्य वैषम्य के
सिवाय भी लोरिक लोकगाथा में कतिपय अन्य साम्य वैषम्य भी परिलक्षित होते है।
यथा-गाथा के भोजपुरी रूप में मंजरी द्वारा आत्महत्या करने तथा गंगामाता द्वारा वृद्धा
का वेष धारण कर मंजरी को सांत्वना देने, गंगा और भावी
(भविष्य) का वार्तालाप, भावी का इन्द्र एवं वशिष्ठ के पास
जाना आदि घटनाओं का वर्णन है जो गाथा के अन्य रूपों में प्राप्त नहीं है। इसी
प्रकार मंजरी के मामा शिवचंद एवं राजा सहदेव द्वारा मंजरी के बदले चनवा के साथ
विवाह करने पर दुगुना दहेज देने का वर्णन अन्य क्षेत्रों के ‘‘लोरिक’’ में अप्राप्त है।
‘‘लोरिक’’
लोकगाथा के बंगाली रूप में एक योगी द्वारा चंद्राली के रूप में
वर्णन सुनकर उसका चित्र देखकर लोरिक को चंद्राली के प्रति आसक्त चित्रित किया गया
है। यहां बावनवीर (चंद्राली का पति) को नपुंसक बताया गया है। मैनावती पर राजकुमार
दातन की अनुरक्ति तथा उसे प्राप्त करने के लिए दूतियों को भेजने का वर्णन है तथा
मैनावती द्वारा शुक्र और ब्राम्हण द्वारा लोरिक के पास संदेश प्रेषित करने का
वर्णन प्राप्त होता है जो कि अन्य लोकगाथाओं में नहीं है। गाथा के हैदराबादी रूप
में ही बंगाली रूप की भांति उस देश के राजा का मैना पर मुग्ध होना वर्णित है।
‘‘लोरिक’’ गाथा के उत्तरप्रदेश (बनारसी रूप) में प्रचलित चनवा द्वारा लोरिक को छेड़खानी करने पर अपमानित करना तथा बाद में दोनों का प्रेम वर्णित है। इस प्रकार लोरिक द्वारा सोलह सौ कन्याओं के पतियों को बंदी जीवन से मुक्त कराने का वर्णन है, जो अन्य क्षेत्रों के ‘‘लोरिक’’ लोकगाथा में उपलब्ध नहीं है। गाथा के छत्तीसगढ़ी रूप में चनैनी और मंजरी दोनों सौत के बीच मार-पीट एवं विजयी मंजरी द्वारा लोरिक के स्वागतार्थ पानी लाने तथा पानी के गंदला होने पर लोरिक का विरक्त होकर घर छोड़ चले जाने का वर्णन है, आज के इस प्रगतिशील दौर में भी जब प्रेमी हृदय समाज के कठोर-प्रतिबंध तोड़ते हुए दहल जाते है। तब उस घोर सामंतवादी दौर में लोरिक और चंदा ने सहज और उत्कृष्ट प्रेम पर दृढ़ रहते हुए जाति, समाज, धर्म और स्तर के बंधन काटे थे।
‘‘लोरिक’’ गाथा के उत्तरप्रदेश (बनारसी रूप) में प्रचलित चनवा द्वारा लोरिक को छेड़खानी करने पर अपमानित करना तथा बाद में दोनों का प्रेम वर्णित है। इस प्रकार लोरिक द्वारा सोलह सौ कन्याओं के पतियों को बंदी जीवन से मुक्त कराने का वर्णन है, जो अन्य क्षेत्रों के ‘‘लोरिक’’ लोकगाथा में उपलब्ध नहीं है। गाथा के छत्तीसगढ़ी रूप में चनैनी और मंजरी दोनों सौत के बीच मार-पीट एवं विजयी मंजरी द्वारा लोरिक के स्वागतार्थ पानी लाने तथा पानी के गंदला होने पर लोरिक का विरक्त होकर घर छोड़ चले जाने का वर्णन है, आज के इस प्रगतिशील दौर में भी जब प्रेमी हृदय समाज के कठोर-प्रतिबंध तोड़ते हुए दहल जाते है। तब उस घोर सामंतवादी दौर में लोरिक और चंदा ने सहज और उत्कृष्ट प्रेम पर दृढ़ रहते हुए जाति, समाज, धर्म और स्तर के बंधन काटे थे।
this is inspring story for today. when morality in society is decading day by day
जवाब देंहटाएंबहुत ही रोचक और बहुत ही अच्छा लगा पढ़ के धन्यवाद इसको उल्लेख करने करने के लिए
जवाब देंहटाएंजय यादव जय माधव
शानदार
जवाब देंहटाएंJai Ahir
जवाब देंहटाएंजय यादव जय माधव जय अहीर
जवाब देंहटाएंJai Yadav. Jai Ahir. Jai Laurik
जवाब देंहटाएंजय यादव जय माधव
जवाब देंहटाएंजजय श्री कृष्ण
बहुत अच्छा लगा पढ़ कर धन्यवाद लिखने वाले को जय यादव जय श्री कृष्ण
जवाब देंहटाएंजय यादव जय यदुव़शी
जवाब देंहटाएंJai yaduvanshi
जवाब देंहटाएंYaduwanshi ka historical gouralshali hai
जवाब देंहटाएंJai yadav jai madhav
Radhe Radhe
जवाब देंहटाएंJai Yadav jai Madhav
जवाब देंहटाएंजय यदुवंश
जवाब देंहटाएंJai hind Jai yaduvansh
जवाब देंहटाएंजय यादव जय माधव
जवाब देंहटाएंविस्तृत जानकारी उपलब्ध हो तो शेयर करे।
जवाब देंहटाएंइस पर और बहुत कुछ लिखा जाना चाहिए !! हमारे तरफ से हरसंभव मदद की जाएगी। कृपया इसको और विस्तृत रूप में वर्णित करें।
जवाब देंहटाएंइस पर और बहुत कुछ लिखा जाना चाहिए !! हमारे तरफ से हरसंभव मदद की जाएगी। कृपया इसको और विस्तृत रूप में वर्णित करें।
जवाब देंहटाएंइस पर और बहुत कुछ लिखा जाना चाहिए !! हमारे तरफ से हरसंभव मदद की जाएगी। कृपया इसको और विस्तृत रूप में वर्णित करें।
जवाब देंहटाएंडा अर्जुन दास केसरी रचित लोरिकायन पढ़ें
जवाब देंहटाएंJai yadav
जवाब देंहटाएंVishal yadav
जवाब देंहटाएंBhim yadav Buxar Bihar India
जवाब देंहटाएंजय यदुननदन
जवाब देंहटाएंJai shree Radhe Krishna..🙏🙏
जवाब देंहटाएंJay yadav jay madhav very good
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