हरियाणा प्रान्त के महान् योद्धा राव
राजा तुलाराम
राव तुला राम का
जन्म 1825 ई० में हुआ था | राव पूरण सिंह के निधन पर 13 वर्ष की उम्र में ही राव
तुला राम रेवाड़ी के राजा बने | राव तुला राम महान योद्धा, महत्वाकांक्षी राजा एवं
देशभक्त थे |
इस संसार में कितने ही मनुष्य जन्म लेते हैं और अपना सांसारिक जीवन समाप्त कर मृत्यु के ग्रास बन जाते हैं। संस्कृत के एक कवि का वचन है –
परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते
।
स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम्
॥
अर्थात् इस संसार
में वह मनुष्य ही पैदा हुआ है जिसके पैदा होने से वंश व जाति को उन्नति प्राप्त
होती है । वैसे तो इस संसार में कितने ही नर पैदा होते हैं और मरते हैं । इस वचन
के अनुसार रेवाड़ी के राव राजा तुलाराम अपनी अपनी महान कार्यों से अपने प्रान्त
एवं जाति को गौरवान्वित कर गए।
जब 10 मई 1857 को चर्बी वाले कारतूस के धार्मिक जोश की आड़ में मेरठ में भारतीय
सैनिकों ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का झंडा बुलन्द कर दिया । तब प्रसुप्त
भावनायें जाग उठीं, देश ने विलुप्त हुई स्वतन्त्रता को पुनः प्राप्त करने के लिए करवट
बदली,
राजवंशों ने तलवार
तान स्वतन्त्रता देवी का स्वागत किया, समस्त राष्ट्र ने फिरंगी को दूर करने की मन में ठान ली ।
भला इस शुभ अवसर को
उपस्थित देख स्वाधीन भावनाओं के आराधक राव राजा तुलाराम कैसे शान्त बैठते ? उन्होंने भी उचित अवसर देख
स्वतन्त्रता के लिए शंख ध्वनि का शंखनाद किया | वीर राजा तुलाराम की ललकार को सुन हरियाणा
के समस्त रणबांकुरे स्वतन्त्रता के झण्डे के नीचे एकत्रित हो, अपने यशस्वी नेताओं के नेतृत्व में चल
दिए,
शत्रु से दो हाथ
करने के लिए दिल्ली की ओर । जब राव तुलाराम अपनी सेना के साथ
दिल्ली की ओर कूच कर रहे थे, तो मार्ग में सोहना और तावड़ू के बीच अंग्रेजी सेना से मुठभेड़ हो
गई,
क्योंकि फिरंगियों
को राव तुलाराम के गतिविधियों का पता चल गया था । दोनों सेनाओं के मध्य घमासान
युद्ध हुआ । आजादी के दीवाने दिल खोल कर लड़े और मैदान जीत लिया । मिस्टर फोर्ड को
मुंह की खानी पड़ी और उसकी सारी फौज नष्ट हो गई और वह स्वयं दिल्ली भाग आया ।
उधर मेरठ में स्वाधीनता यज्ञ को आरम्भ करने
वाले राव राजा तुलाराम के चचेरे भाई राव कृष्ण गोपाल जो नांगल पठानी (रेवाड़ी) के
राव जीवाराम के द्वितीय पुत्र थे और मेरठ में कोतवाल पद पर थे, उन्होंने समस्त कैदखानों के दरवाजों
को खोल दिया तथा नवयुवकों को स्वतन्त्रता के लिए ललकारा और समस्त वीरों को
स्वाधीनता के झण्डे के नीचे एकत्र किया । अपने साथियों सहित जहां अंग्रेज विद्रोह
का दमन करने के लिए परामर्श कर रहे थे, उस स्थान पर आक्रमण किया तथा समस्त अंग्रेज अधिकारियों का सफाया कर
दिया और फिर मार-धाड़ मचाते अपने साथियों सहित दिल्ली की तरफ बढ़े ।
दिल्ली आये । भारत के अन्तिम मुगल सम्राट् बहादुरशाह के समीप पहुंचे । अकबर, जहांगीर आदि के चित्रों को देख-देख ठण्डी आहें भरकर अपने पूर्वजों के वैभव को इस प्रकार लुटता देख बहादुरशाह चित्त ही चित्त में अपने भाग्य को कोसा करता था । आज उसने सुना कि कुछ भारतीय सैनिक मेरठ में स्वाधीनता का दीपक जलाकर तेरे पास आये हैं । उनका सोया हुआ मुगल-शौर्य जाग उठा । तुरन्त वीर सेनापति कृष्णगोपाल ने आगे बढ़कर कहा - जहांपनाह ! उठो, अपनी तलवार संभालो, अपना शुभाशीर्वाद दो, जिससे हम अपनी तलवार द्वारा भारतभूमि को फिरंगियों से खाली कर दें । बादशाह ने डबडबाई सी आंखें खोलकर कहा - मेरे वीर सिपाही ! क्या करूं ? आज मेरे पास एक सोने की ईंट भी नहीं जो तुम्हें पुरस्कार में दे सकूं । वीर कृष्णगोपाल साथियों सहित गर्ज उठे - "महाराज, हमें धन की आवश्यकता नहीं है, हम इस प्रशस्त मार्ग में आपका शुभाशीर्वाद चाहते हैं । हम संसार की धन-दौलत को अपनी तलवार से जीतकर आपके चरणों पर ला डालेंगे ।" वीर की सिंहगर्जना सुनकर वृद्ध बादशाह की अश्रुपूर्ण आंखें हो गईं और कह ही तो दिया कि –
दिल्ली आये । भारत के अन्तिम मुगल सम्राट् बहादुरशाह के समीप पहुंचे । अकबर, जहांगीर आदि के चित्रों को देख-देख ठण्डी आहें भरकर अपने पूर्वजों के वैभव को इस प्रकार लुटता देख बहादुरशाह चित्त ही चित्त में अपने भाग्य को कोसा करता था । आज उसने सुना कि कुछ भारतीय सैनिक मेरठ में स्वाधीनता का दीपक जलाकर तेरे पास आये हैं । उनका सोया हुआ मुगल-शौर्य जाग उठा । तुरन्त वीर सेनापति कृष्णगोपाल ने आगे बढ़कर कहा - जहांपनाह ! उठो, अपनी तलवार संभालो, अपना शुभाशीर्वाद दो, जिससे हम अपनी तलवार द्वारा भारतभूमि को फिरंगियों से खाली कर दें । बादशाह ने डबडबाई सी आंखें खोलकर कहा - मेरे वीर सिपाही ! क्या करूं ? आज मेरे पास एक सोने की ईंट भी नहीं जो तुम्हें पुरस्कार में दे सकूं । वीर कृष्णगोपाल साथियों सहित गर्ज उठे - "महाराज, हमें धन की आवश्यकता नहीं है, हम इस प्रशस्त मार्ग में आपका शुभाशीर्वाद चाहते हैं । हम संसार की धन-दौलत को अपनी तलवार से जीतकर आपके चरणों पर ला डालेंगे ।" वीर की सिंहगर्जना सुनकर वृद्ध बादशाह की अश्रुपूर्ण आंखें हो गईं और कह ही तो दिया कि –
"गाजियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की
।
तख्ते लंदन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान
की ।"
राव कृष्णगोपाल को
तब यह समाचार मिला कि रेवाड़ी में राजा तुलाराम स्वतन्त्रता के लिए महान् प्रयत्न
कर रहे हैं, तो वे स्वयं अपने साथियों सहित रेवाड़ी पहुंच गए । उन्हीं दिनों
मि० फोर्ड से युद्ध के ठीक उपरान्त राजा तुलाराम ने अपने प्रान्त की एक सभा बुलाई
। इस सभा में महाराजा अलवर, राजा बल्लभगढ़, राजा निमराणा, नवाब झज्जर, नवाब फरुखनगर, नवाब पटौदी, नवाब फिरोजपुर झिरका शामिल हुए । राम तुलाराम ने अपने विशेष मित्र
महाराजा जोधपुर को विशेष रूप से निमन्त्रित किया किन्तु उन्होंने राव तुलाराम को
लिखकर भेज दिया कि अंग्रेज बहादुर से लोहा लेना कोई सरल कार्य नहीं है । नवाब
फरुखनगर, नवाब झज्जर एवं नवाब फिरोजपुर झिरका ने भी नकारात्मक उत्तर दे दिया
। इस पर उनको बड़ा क्रोध आया और उन्होंने सभा में ही घोषणा कर दी कि "चाहे
कोई सहायता दे या न दे, वह राष्ट्र के लिए कृत-प्रतिज्ञ हैं ।" अपने अन्य वीर साथियों
की तरफ देखकर उनका वीर हृदय गरज उठा - "हे भारतमाता ! मैं सब कुछ तन, मन, धन तुम्हारी विपत्तियों को नष्ट करने में समर्पित कर दूंगा। यह
मेरी धारणा है । भगवान् सूर्य ! मुझे प्रकाश दो । भूमि जननी ! मुझे गम्भीरता दो, वायु शान्ति दो और दो बाहुओं में अपार बल, जो सच्चे चरित्र के नाम पर मर मिटे
तथा मार भगाये कायरता को हृदय मंदिरों से ।" आओ वीरो ! अब सच्चे क्षत्रियत्व के नाते इस
महान् स्वाधीनता युद्ध (यज्ञ) को पूरा करें ।" उनकी इस गर्जना से प्रभावित
होकर उपरोक्त राजा, नवाबों के भी पर्याप्त मनचले नवयुवक योद्धा राजा तुलाराम की
स्वाधीनता सेना में सम्मिलित हो गये जिनमें नवाब झज्जर के दामाद समदखां पठान भी थे।
राजा तुलाराम ने अंग्रेजों के विरुद्ध और नई सेना भी भरती की और
स्वातन्त्र्य-संग्राम को अधिक तेज कर दिया । उन्होंने अपने चचेरे भाई गोपालदेव को
सेनापति नियुक्त किया । जब अंग्रेजों को यह ज्ञात हुआ कि राव तुलाराम हम से लोहा
लेने की पुरजोर तैयारी कर रहे हैं और आस-पास के राजाओं एवं नवाबों को हमारे
विरुद्ध उभार रहे हैं तो मि० फोर्ड के नेतृत्व में पुनः एक विशाल सेना राव तुलाराम
के दमन के लिए भेजी गई। जब राव साहब को यह पता चला कि इस बार मि० फोर्ड बड़े दलबल
के साथ चढ़ा आ रहा है तो उन्होंने रेवाड़ी में युद्ध न करने की सोच महेन्द्रगढ़ के
किले में मोर्चा लेने के लिए महेन्द्रगढ़ की ओर प्रस्थान किया । अंग्रेजों ने आते
ही गोकुलगढ़ के किले तथा राव तुलाराम के निवासघर, जो रामपुरा (रेवाड़ी) में स्थित है, को सुरंगें लगाकर नष्ट-भ्रष्ट कर दिया और तुलाराम की सेना के पीछे
महेन्द्रगढ़ की तरफ कूच किया ।
राव तुलाराम ने
पर्याप्त प्रयत्न किया कि किसी प्रकार महेन्द्रगढ़ किले के फाटक खुल जावें, किन्तु दुर्ग के अध्यक्ष ठाकुर
स्यालुसिंह कुतानी निवासी ने हजार विनती करने पर भी किले के द्वार आजादी के दीवानों
के लिए नहीं खोले । (बाद में अंग्रेजों ने दुर्ग न खोलने के उपलक्ष्य में
स्यालुसिंह को समस्त कुतानी ग्राम की भूमि प्रदान कर दी ।)
वीर सेनापति
तुलाराम दृढ़ हृदय कर, असफलताओं को न गिनते हुए नारनौल के समीप एक पहाड़ी स्थान नसीबपुर
के मैदान में साथियों सहित वक्षस्थल खोलकर रणस्थल में डट गये । अंग्रेजों के आते
ही युद्ध ठन गया । भीषण युद्ध डटकर हुआ । रणभेरियां बज उठीं । वीरों के खून में
उबाल था । गगनभेदी जयकारों से तुमुल निनाद गुंजार करने लगा । साधन न होने पर भी
सेना ने संग्राम में अत्यन्त रणकौशल दिखाया । रक्त-धारा बह निकली । नरमुंडों से
मेदिनी मंडित हो गई । शत्रु सेना में त्राहि-त्राहि की पुकार गूंज उठी । तीन दिन तक भीषण युद्ध हुआ । तीसरे दिन तो इतना भीषण संग्राम हुआ
कि हिन्दू कुल गौरव महाराणा प्रताप के घोड़े की भांति राव तुलाराम का घोड़ा भी
शत्रु सेना को चीरते हुए अंग्रेज अफसर (जो काना साहब के नाम से विख्यात थे) के
हाथी के समीप पहुंचा । पहुंचते ही सिंहनाद कर वीरवर तुलाराम ने हाथी का मस्तक अपनी
तलवार के भरपूर वार से पृथक् कर दिया । दूसरे प्रहार से काना साहब को यमपुर पहुंचाया । काना साहब के
धराशायी होते ही शत्रु सेना में भगदड़ मच गई । शत्रु सेना तीन मील तक भागी । मि०
फोर्ड भी मैदान छोड़ भागे और दादरी के समीप मोड़ी नामक ग्राम में एक जाट चौधरी के
यहां शरण ली । बाद में मि० फोर्ड ने अपने शरण देने वाले चौधरी को जहाजगढ़ (रोहतक)
के समीप बराणी ग्राम में एक लम्बी चौड़ी जागीर दी और उस गांव का नाम फोर्डपुरा रखा, वहां पर आजकल उस चौधरी के वंशज निवास
करते हैं ।परन्तु इस दौरान में पटियाला, नाभा, जीन्द एवं जयपुर की देशद्रोही नागा फौज के अंग्रेजों
की सहायता के लिए आ जाने से पुनः भीषण युद्ध छिड़ गया । वीरों ने अन्तिम समय
सन्निकट देखकर घनघोर युद्ध किया परन्तु अपार सेना के समक्ष अल्प सेना का चारा ही
क्या चलता ? इसी नसीबपुर के मैदान में राजा तुलाराम के महान् प्रतापी योद्धा, मेरठ स्वाधीनता-यज्ञ को आरम्भ करने
वाले,
अहीरवाल के एक-एक
गांव में आजादी का अलख जगाने वाले, राव तुलाराम के चचेरे भाई वीर शिरोमणि राव कृष्णगोपाल एवं
कृष्णगोपाल के छोटे भाई वीरवर राव रामलाल जी और राव किशनसिंह, सरदार मणिसिंह, मुफ्ती निजामुद्दीन, शादीराम, रामधनसिंह, समदखां पठान आदि-आदि महावीर क्षत्रिय
जनोचित कर्त्तव्य का पालन करते हुए भारत की स्वातन्त्र्य बलिवेदी पर बलिदान हो गये
। उन महान् योद्धाओं के पवित्र रक्त से रंजित होकर नसीबपुर के मैदान की वीरभूमि हरियाणा
का तीर्थस्थान बन गई । दुःख है कि आज उस युद्ध को समाप्त हुए एक शताब्दि हो गई
किन्तु हरियाणा निवासियों ने आज तक उस पवित्र भूमि पर उन वीरों का कोई स्मारक
बनाने का प्रयत्न ही नहीं, साहस भी न किया । यदि भारत के अन्य किसी प्रान्त में इतना बलिदान
किसी मैदान में होता तो उस प्रान्त के निवासी उस स्थान को इतना महत्व देते कि वह
स्थान वीरों के लिए आराध्य-भूमि बन जाता तथा प्रतिवर्ष नवयुवक इस महान्
बलिदान-भूमि से प्रेरणा प्राप्त कर अपना कर्त्तव्य पालन करने के लिए उत्साहित होते
। आज मराठों की जीवित शक्ति ने सन् 1857 के स्वातन्त्र्य युद्ध की अमर सेनानी लक्ष्मीबाई एवं तांत्या टोपे
नाना साहब के महान् बलिदान को अंग्रेजों के प्रबल दमनचक्र के विपरीत भी समाप्त
नहीं होने दिया । अंग्रेजों के शासन काल में भी उपर्युक्त वीरों का नाम भारत के
स्वातन्त्र्य-गगन में प्रकाशित होता रहा । बिहार के बूढ़े सेनापति ठा. कुंवरसिंह
के बलिदान को बिहार निवासियों ने जीवित रखा । जहां कहीं भी कोई बलिदान हुआ, किसी भी समय हुआ, वहां की जनता ने अपने प्राचीन गौरव के
प्रेरणाप्रद बलिदानों को जीवित रखा । आज मेवाड़ प्रताप का ही नहीं, अपितु उसके यशस्वी घोड़े का
"चेतक चबूतरा" बनाकर प्रतिष्ठित करता है । चूड़ावत सरदार के बलिदान को
"जुझार जी" का स्मारक बनाकर जीवित रखे हुए हैं । परन्तु अपने को भारत का
सबसे अधिक बलशाली कहने वाला हरियाणा प्रान्त अपने पूर्व के बलिदान को भुलाये बैठा
है । यह लज्जा का विषय नहीं तो और क्या है ? जर्मन के महान् विद्वान मैक्समूलर लिखते हैं - A nation that forgets
the glory of its past, loses the mainstay of its national character. अर्थात् जो राष्ट्र अपने प्राचीन गौरव
को भुला बैठता है, वह राष्ट्र अपनी राष्ट्रीयता के आधार स्तम्भ को खो बैठता है । यही
उक्ति हरयाणा के निवासियों पर पूर्णतया चरितार्थ होती है ।
नसीबपुर के मैदान
में राव तुलाराम हार गये और अपने बचे हुए सैनिकों सहित रिवाड़ी की तरफ आ गये ।
सेना की भरती आरम्भ की । परन्तु अब दिन प्रतिदिन अंग्रेजों को पंजाब से ताजा दम
सेना की कुमुक मिल रही थी ।
निकलसन ने नजफगढ़
के स्थान में नीमच वाली भारतीय सेनाओं के आपसी झगड़े से लाभ उठाकर दोनों सेनाओं को
परास्त कर दिया । सारांश यह है कि अक्तूबर 1857 के अन्त तक अंग्रेजों के पांव दिल्ली और उत्तरी भारत में जम गये ।
अतः तुलाराम अपने नये प्रयत्न को सफल न होते देख बीकनेर, जैसलमेर पहुंचे । वहां से कालपी के
लिए चल दिये । इन दिनों कालपी स्वतन्त्रता का केन्द्र बना हुआ था । यहां पर पेशवा
नाना साहब के भाई, राव साहब, तांत्या टोपे एवं रानी झांसी भी उपस्थित थी । उन्होंने राव तुलाराम
का महान् स्वागत किया तथा उनसे सम्मति लेते रहे । इस समय अंग्रेजों को बाहर से
सहायता मिल रही थी । कालपी स्थित राजाओं ने परस्पर विचार विमर्श कर राव राजा
तुलाराम को अफगानिस्तान सहायता प्राप्त करने के उद्देश्य से भेज दिया । राव
तुलाराम वेष बदलकर अहमदाबाद और बम्बई होते हुए बसरा (ईराक) पहुंचे । इस समय इनके
साथ श्री नाहरसिंह, श्री रामसुख एवं सैय्यद नजात अली थे । परन्तु खाड़ी फारस के किनारे
बुशहर के अंग्रेज शासक को इनकी उपस्थिति का पता चल गया । भारतीय सैनिकों की टुकड़ी
जो यहां थी, उसने राव तुलाराम को सूचित कर दिया और वे वहां से बचकर सिराज
(ईरान) की ओर निकल गये । सिराज के शासक ने उनका भव्य स्वागत किया और उन्हें शाही
सेना की सुरक्षा में ईरान के बादशाह के पास तेहरान भेज दिया । तेहरान स्थित
अंग्रेज राजदूत ने शाह ईरान पर उनको बन्दी करवाने का जोर दिया, शाह ने निषेध कर दिया । तेहरान में
रूसी राजदूत से राव तुलाराम की भेंट हुई और उन्होंने सहायता मांगी और राजदूत ने
आश्वासन भी दिया । परन्तु पर्याप्त प्रतीक्षा के पश्चात् राव तुलाराम ने
अफगानिस्तान में ही भाग्य परखने की सोची । उनको यह भी ज्ञात हुआ कि भारतीय
स्वातन्त्र्य संग्राम में भाग लेने वाले बहुत से सैनिक भागकर अफगानिस्तान आ गये
हैं । राजा तुलाराम डेढ़ वर्ष पीछे तेहरान से अमीर काबुल के पास आ गये, जो उन दिनों कंधार में थे । वहां रहकर
बहुत प्रयत्न किया परन्तु सहायता प्राप्त न हो सकी । राव तुलाराम को बड़ा दुःख हुआ
और छः वर्ष तक अपनी मातृभूमि से दूर रहकर उसकी पराधीनता की जंजीरों को काटने के
प्रयत्न में एक दिन काबुल में पेचिस द्वारा इस संसार से प्रयाण कर गये । उन्होंने
वसीयत की कि उनकी भस्म रेवाड़ी और गंगा जी में अवश्यमेव भेजी जावे । ब्रिटिश शासन
की ओर से 1857 के स्वातन्त्र्य संग्राम में भाग लेने वालों के लिए सार्वजनिक
क्षमादान की सूचना पाकर उनके दो साथी राव नाहरसिंह व राव रामसुख वापस भारत आये ।
लेख को समाप्त करते
हुए अन्तरात्मा रो उठती है कि आज भारतीय जनता उस वीर शिरोमणि राव तुलाराम के नाम
से परिचित तक नहीं । मैं डंके की चोट पर कहता हूं कि यदि झांसी की लक्ष्मीबाई ने
स्वातन्त्र्य-संग्राम में सर्वस्व की बलि दे दी, यदि तांत्या टोपे एवं ठाकुर कुंवरसिंह अपने को स्वतन्त्रता की
बलिवेदी पर उत्सर्ग कर गये - यदि यह सब सत्य है तो यह भी सुनिर्धारित सत्य है कि
सन् 1857
के स्वातन्त्र्य
महारथियों में राव तुलाराम का बलिदान भी सर्वोपरि है । किन्तु हमारी दलित भावनाओं
के कारण राजा तुलाराम का बलिदान इतिहास के पृष्ठों से ओझल रहा । आज भी अहीरवाल में
जोगी एवं भाटों के सितारे पर राजा तुलाराम की अमर गाथा सुनी जा सकती है । किं
बहुना,
एक दिन उस वीर
सेनापति राव तुलाराम के स्वतन्त्रता शंख फूंकने पर अहीरवाल की अन्धकारावृत
झोंपड़ियों में पड़े बुभुक्षित नरकंकालों से लेकर रामपुरा (रेवाड़ी) के गगनचुम्बी
राजप्रसादों की उत्तुंग अट्टालिकाओं में विश्राम करने वाले राजवंशियों तक ने
ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध किये जा रहे स्वातन्त्र्य आन्दोलन में अपनी तलवार
के भीषण वार दिखाकर क्रियात्मक भाग लिया था । आज भी रामपुरा एवं गोकुलगढ़ के
गगन-चुम्बी पुरातन खंडहरावशेष तथा नसीबपुर के मैदान की रक्तरंजित वीरभूमि इस बात
की साक्षी दे रहे हैं कि वे अपने कर्त्तव्य पालन में किसी से पीछे नहीं रहे ।
इस प्रान्त को
स्वातन्त्र्य-युद्ध में भाग लेने का मजा तुरन्त ब्रिटिश सरकार ने चखा दिया । राव
तुलाराम के राज्य की कोट कासिम की तहसील जयपुर को, तिजारा व बहरोड़ तहसील अलवर को, नारनौल व महेन्द्रगढ़ पटियाला को, दादरी जीन्द को, बावल तहसील नाभा को, कोसली के आस-पास का इलाका जिला रोहतक में और नाहड़ तहसील के चौबीस
गांव नवाब दुजाना को पुरस्कार रूप में प्रदान कर दिया । यह था अहीरवाल का
स्वातन्त्र्य संग्राम में भाग लेने का परिणाम, जो हमारे संगठन को अस्त-व्यस्त करने का कारण बना । और यह एक मानी
हुई सच्चाई है कि आज अहीर जाति का न तो पंजाब में कोई राजनैतिक महत्व है और न
राजस्थान में । सन् 1857 से पूर्व इस जाति का यह महान् संगठन रूप दुर्ग खड़ा था, तब था भारत की राजनीति में इस प्रान्त
का अपना महत्व ।
अन्त में भारतवर्ष
के स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास लेखकों से यह आशा करता हूं कि वे भारत के नवीन
इतिहास में इस वीर प्रान्त की आहुति को उपयुक्त स्थान देना न भूलेंगे ।
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