बुधवार, 6 अगस्त 2014

यादव साम्राजय - गुप्त राजवंश

गुप्त राजवंश

चित्र:Guptaempire.gif

गुप्त राज्य लगभग 500 ई
चित्र:Indischer Maler des 6. Jahrhunderts 001.jpg


           गुप्त राजवंश या गुप्त वंश प्राचीन भारत के प्रमुख राजवंशों में से एक था। इसे भारत का एक स्वर्ण युग माना जाता है। गुप्त राजवंश का प्रथम राजा `श्री गुप्त`हुआजिसके नाम पर गुप्त राजवंश का नामकरण हुआ ।
मौर्य शासकों के बाद विदेशी शक-कुषाण राजाओं का शासन इस देश में रहाउनमें कनिष्क महान और वीर था । कनिष्क के बाद कोई राजा इतना वीर और शक्तिशाली नहीं हुआजो विस्तृत और सुदृढ़ राज्य का गठन करता । इसके परिणाम स्वरुप देश में अनेक छोटे-बड़े राज्य बन गये थे । किसी में राजतंत्र और किसी में जनतंत्र था । राजतंत्रों में मथुरा और पद्मावती राज्य के नागवंश विशेष प्रसिद्व थे । 
जनतंत्र शासकों में यौधेयमद्रमालव और अजुर्नायन प्रमुख थे । उत्तर-पश्चिम के प्रदेशों में शक और कुषाणों के विदेशी राज्य थे । मौर्य वंश के पतन के पश्चात नष्ट हुई राजनीतिक एकता को पुनस्थापित करने का श्रेय गुप्त वंश को है।
     गुप्त साम्राज्य की नींव तीसरी शताब्दी के चौथे दशक में तथा उत्थान चौथी शताब्दी की शुरुआत में हुआ। गुप्त वंश का प्रारम्भिक राज्य आधुनिक उत्तर प्रदेश और बिहार में था।
     साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में इस अवधि का योगदान आज भी सम्मानपूर्वक स्मरण किया जाता है। कालिदास इसी युग की देन हैं। अमरकोशरामायणमहाभारतमनुस्मृति तथा अनेक पुराणों का वर्तमान रूप इसी काल की उपलब्धि है। 
    महान गणितज्ञ आर्यभट्ट तथा वराहमिहिर गुप्त काल के ही उज्ज्वल नक्षत्र हैं। दशमलव प्रणाली का आविष्कार तथा वास्तुकलामूर्तिकलाचित्रकला ओर धातु-विज्ञान के क्षेत्र की उपलब्धियों पर आज भी लोगों का आनंद और आश्चर्य होता है।

अनुक्रम

·         2 घटोत्कच्छ
·         5 रामगुप्त
·         9 पतन

गुप्त राजवंश की उत्पति

इतिहासकार डी. आर. रेग्मी के अनुसार गुप्त वंश की उत्पति नेपाल के प्राचीन अभीर-गुप्त राजवंश (गोपाल राजवंश) से हुई थी | इतिहासकार एस. चट्टोपाध्याय ने पंचोभ ताम्र-पत्र के हवाले से कहा कि गुप्त राजा क्षत्रिय थे तथा उनका उद्भव प्राचीन अभीर-गुप्त (यादव) वंश से हुई थी | गोप एवं गौ शब्द से गुप्त शब्द की उत्पति हुई है |    

साम्राज्य की स्थापना: श्रीगुप्त
     गुप्त वंश के आरंभ के बारे में पता नहीं चलता है। जिस प्राचीनतम गुप्त राजा के बारे में पता चला है वो है श्रीगुप्त। श्रीगुप्त ने गया में चीनी यात्रियों के लिए एक मंदिर बनवाया था जिसका उल्लेख चीनी यात्री इत्सिंग ने 500 वर्षों बाद सन् 671 से सन् 695 के बीच में किया। पुराणों में ये कहा गया है कि आरंभिक गुप्त राजाओं का साम्राज्य गंगा द्रोणीप्रयागसाकेत (अयोध्या) तथा मगध में फैला था। श्रीगुप्त के समय में महाराजा की उपाधि सामन्तों को प्रदान की जाती थीअतः श्रीगुप्त किसी के अधीन शासक था। प्रसिद्ध इतिहासकार के. पी. जायसवाल के अनुसार श्रीगुप्त भारशिवों के अधीन छोटे से राज्य प्रयाग का शासक था। चीनी यात्री इत्सिंग के अनुसार मगध के मृग शिखावन में एक मन्दिर का निर्माण करवाया था। तथा मन्दिर के व्यय में 24 गाँव को दान दिये थे।
घटोत्कच्छ
श्रीगुप्त के बाद उसका पुत्र घटोत्कच गद्दी पर बैठा। 280 ई. पू. से 320 ई. तक गुप्त साम्राज्य का शासक बना रहा। इसने भी महाराजा की उपाधि धारण की थी।

चंद्रगुप्त

सन् 320 ई॰ में चन्द्रगुप्त प्रथम अपने पिता घटोत्कच के बाद राजा बना। गुप्त साम्राज्य की समृद्धि का युग यहीं से आरंभ होता है। उसने 'महाराजधिराज' उपाधि ग्रहण की और लिच्छिवी राज्य की राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह कर लिच्छवियों की सहायता से शक्ति बढाई । वह एक शक्तिशाली शासक था, चंद्रगुप्त के शासन काल में गुप्त-शासन का विस्तार दक्षिण बिहार से लेकर अयोध्या तक था।* इस राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी । चंद्रगुप्त प्रथम ने अपने शासन काल में एक नया संवत चलाया ,जिसे गुप्त संवत कहा जाता है । यह संवत गुप्त सम्राटों के काल तक ही प्रचलित रहा; बाद में उस का चलन नहीं रहा ।
चन्द्रगुप्त गुप्त वंशावली में पहला स्वतन्त्र शासक था। यह विदेशी को विद्रोह द्वारा हटाकर शासक बना। चन्द्रगुप्त प्रथम के शासनकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग कहा जाता है। बाद में लिच्छवि को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। इसका शासन काल (320 ई. से 350 ई. तक) था।
    पुराणों तथा प्रयाग प्रशस्ति से चन्द्रगुप्त प्रथम के राज्य के विस्तार के विषय में जानकारी मिलती है। चन्द्रगुप्त ने लिच्छवि के सहयोग और समर्थन पाने के लिए उनकी राजकुमारी कुमार देवी के साथ विवाह किया। स्मिथ के अनुसार इस वैवाहिक सम्बन्ध के परिणामस्वरूप चन्द्रगुप्त ने लिच्छवियों का राज्य प्राप्त कर लिया तथा मगध उसके सीमावर्ती क्षेत्र में आ गया। कुमार देवी के साथ विवाह-सम्बन्ध करके चन्द्रगुप्त प्रथम ने वैशाली राज्य प्राप्त किया। चन्द्रगुप्त ने जो सिक्के चलाए उसमें चन्द्रगुप्त और कुमारदेवी के चित्र अंकित होते थे। लिच्छवियों के दूसरे राज्य नेपाल के राज्य को उसके पुत्र समुद्रगुप्त ने मिलाया।
     हेमचन्द्र राय चौधरी के अनुसार अपने महान पूर्ववर्ती शासक बिम्बिसार की भाँति चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि राजकुमारी कुमार देवी के साथ विवाह कर द्वितीय मगध साम्राज्य की स्थापना की। उसने विवाह की स्मृति में राजा-रानी प्रकार के सिक्‍कों का चलन करवाया। इस प्रकार स्पष्ट है कि लिच्छवियों के साथ सम्बन्ध स्थापित कर चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने राज्य को राजनैतिक दृष्टि से सुदृढ़ तथा आर्थिक दृष्टि से समृद्ध बना दिया। राय चौधरी के अनुसार चन्द्रगुप्त प्रथम ने कौशाम्बी तथा कौशल के महाराजाओं को जीतकर अपने राज्य में मिलाया तथा साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में स्थापित की।

समुद्रगुप्त

      चन्द्रगुप्त प्रथम के बाद 335 ई. में उसका तथा कुमारदेवी का पुत्र समुद्रगुप्त राजसिंहासन पर बैठा। समुद्रगुप्त का जन्म लिच्छवि राजकुमारी कुमार देवी के गर्भ से हुआ था। सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास में महानतम शासकों के रूप में वह नामित किया जाता है। इन्हें परक्रमांक कहा गया है। समुद्रगुप्त का शासनकाल राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष का काल माना जाता है। इस साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी। समुद्रगुप्त ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की।
       समुद्रगुप्त एक असाधारण सैनिक योग्यता वाला महान विजित सम्राट था। विन्सेट स्मिथ ने इन्हें नेपोलियन की उपधि दी। उसका सबसे महत्वपूर्ण अभियान दक्षिण की तरफ़ (दक्षिणापथ) था। इसमें उसके बारह विजयों का उल्लेख मिलता है।
      समुद्रगुप्त एक अच्छा राजा होने के अतिरिक्त एक अच्छा कवि तथा संगीतज्ञ भी था। उसका देहांत 380 ई. में हुआ जिसके बाद उसका पुत्र चन्द्गुप्त द्वितीय राजा बना। यह उच्चकोटि का विद्वान तथा विद्या का उदार संरक्षक था। उसे कविराज भी कहा गया है। वह महान संगीतज्ञ था जिसे वीणा वादन का शौक था। इसने प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान वसुबन्धु को अपना मन्त्री नियुक्‍त किया था।
     हरिषेण समुद्रगुप्त का मन्त्री एवं दरबारी कवि था। हरिषेण द्वारा रचित प्रयाग प्रशस्ति से समुद्रगुप्त के राज्यारोहण, विजय, साम्राज्य विस्तार के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है।
      काव्यालंकार सूत्र में समुद्रगुप्त का नाम चन्द्रप्रकाश मिलता है। उसने उदार, दानशील, असहायी तथा अनाथों को अपना आश्रय दिया। समुद्रगुप्त एक धर्मनिष्ठ भी था लेकिन वह हिन्दू धर्म मत का पालन करता था। वैदिक धर्म के अनुसार इन्हें धर्म व प्राचीर बन्ध यानी धर्म की प्राचीर कहा गया है।
     समुद्रगुप्त का साम्राज्य- समुद्रगुप्त ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया जो उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से पश्‍चिम में पूर्वी मालवा तक विस्तृत था। कश्मीर, पश्‍चिमी पंजाब, पश्‍चिमी राजपूताना, सिन्ध तथा गुजरात को छोड़कर समस्त उत्तर भारत इसमें सम्मिलित थे। दक्षिणापथ के शासक तथा पश्‍चिमोत्तर भारत की विदेशी शक्‍तियाँ उसकी अधीनता स्वीकार करती थीं।
      समुद्रगुप्त के काल में सदियों के राजनीतिक विकेन्द्रीकरण तथा विदेशी शक्‍तियों के आधिपत्य के बाद आर्यावर्त पुनः नैतिक, बौद्धिक तथा भौतिक उन्‍नति की चोटी पर जा पहुँचा था।

ध्रुवस्वामिनी की कथा

      समुद्रगुप्त के पश्चात उसका बड़ा पुत्र रामगुप्त गद्दी पर बैठा जो कुछ ही दिनों के लिए राज्य का अधिकारी रहा । 'हर्षचरित' 'श्रृंगार-प्रकाश', 'नाट्य-दर्पण', 'काव्य मीमांसा' आदि ग्रन्थों से रामगुप्त के विषय में ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त जैसे दिग्विजयी शासक का पुत्र होकर भी वह बड़ा भीरु, कायर और अयोग्य शासक सिद्ध हुआ । समुद्र गुप्त ने जिन विदेशी शकों को हरा दिया था, वे उसके मरते ही फिर सिर उठाने लगे थे । उन्होंने राज्य की सीमा में प्रवेश कर रामगुप्त को युद्ध की चुनौती दी । शकों के आक्रमण से भयभीत होकर राम गुप्त ने संधि का प्रस्ताव किया और शकों ने संधि की जो शर्ते रखी, उनमें एक थी कि राम गुप्त अपनी पटरानी 'ध्रुवदेवी', जिसे 'ध्रुवस्वामिनी' * भी कहा जाता था, उसे सौंप दी जाय ।
       राम गुप्त उस शर्त को भी मानने के लिए तैयार हो गया; किंतु उसका छोटा भाई चद्रगुप्त ने उस घोर अपमानजनक बात को मानने की अपेक्षा युद्व कर मर जाना अच्छा समझा । वह स्वयं ध्रुवस्वामिनी का वेश धारण कर अकेला की शत्रुओं के शिविर में गया और शकराज को मार डाला । [2] फिर उसने शक सेना से वीरतापूर्वक युद्व कर उसे मगध साम्राज्य की सीमा से बाहर कर दिया । चंद्रगुप्त के शौर्य के कारण मगध के गौरव की रक्षा हुई और उसकी चारों ओर ख्याति हो गई । यह घटना कहाँ हुई, इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है । श्री कृष्णदत्त वाजपेयी का अनुमान है कि वह घटना मथुरा नगर अथवा उसके समीप ही किसी स्थान पर हुई थी । ऐसा कहा जाता है, चंद्रगुप्त की ख्याति से रामगुप्त उससे ईर्ष्या करने लगा और उसने चंद्रगुप्त को मारने का षड़यंत्र किया; किंतु उसमें राम गुप्त ही मारा गया । रामगुप्त की मृत्यु के पश्चात चंद्रगुप्त मगध का शासक हुआ । अपने साहस, पराक्रम तथा दान-वीरता के कारण चंद्रगुप्त प्रजा का अति प्रिय हो गया । [3]
          375-376 ई॰ में सिंहासन पर बैठ कर चंद्रगुप्त ने राम गुप्त की विधवा ध्रुवस्वामिनी को अपनी पटरानी बनाया । उसकी प्रिय रानी कुबेरानागा थी, जिससे उसे प्रभावती नामक एक पुत्री हुई थी । शासन संभालने के बाद चंद्रगुप्त ने अपना राज-प्रबंध किया और स्थायी सुरक्षा के लिए शकों को समूल नष्ट करने का निश्चय किया । शक अपनी पराजय के कारण मगध से हटकर भारत के पश्चिमी भाग जा बसे और अवसर मिलते ही आक्रमण करने को तत्पर थे । चन्द्रगुप्त ने उनसे सफलता पूर्वक मोर्चा लेने के लिए पश्चिमी सीमा के शक्तिशाली वाकाटक राज्य से घनिष्ट संबंध स्थापित किया ।

चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य


चित्र:ChandraguptaII.JPG

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की मुद्रा
      चन्द्रगुप्त द्वितीय 375 ई. में सिंहासन पर आसीन हुआ। वह समुद्रगुप्त की प्रधान महिषी दत्तदेवी से हुआ था। वह विक्रमादित्य के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुआ। उसने 375 से 415 ई. तक (40 वर्ष) शासन किया।
     चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शकों पर अपनी विजय हासिल की जिसके बाद गुप्त साम्राज्य एक शक्तिशाली राज्य बन गया। चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में क्षेत्रीय तथा सांस्कृतिक विस्तार हुआ।
      हालांकि चन्द्रगुप्त द्वितीय का अन्य नाम देव, देवगुप्त, देवराज, देवश्री आदि हैं। उसने विक्रयांक, विक्रमादित्य, परम भागवत आदि उपाधियाँ धारण की। उसने नागवंश, वाकाटक और कदम्ब राजवंश के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने नाग राजकुमारी कुबेर नागा के साथ विवाह किया जिससे एक कन्या प्रभावती गुप्त पैदा हुई। वाकाटकों का सहयोग पाने के लिए चन्द्रगुप्त ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह वाकाटक नरेश रूद्रसेन द्वितीय के साथ कर दिया। उसने एसा संभवतः इसलिए किया कि शकों पर आक्रमण करने से पहले दक्कन में उसको समर्थन हासिल हो जाए। उसने प्रभावती गुप्त के सहयोग से गुजरात और काठियावाड़ की विजय प्राप्त की। वाकाटकों और गुप्तों की सम्मिलित शक्‍ति से शकों का उन्मूलन किया।
      कदम्ब राजवंश का शासन कुंतल (कर्नाटक) में था। चन्द्रगुप्त के पुत्र कुमारगुप्त प्रथम का विवाह कदम्ब वंश में हुआ।
      शक उस समय गुजरात तथा मालवा के प्रदेशों पर राज रक रहे थे। शकों पर विजय के बाद उसका साम्राज्य न केवल मजबूत बना बल्कि उसका पश्चिमी समुद्र पत्तनों पर अधिपत्य भी स्थापित हुआ। इस विजय के पश्चात उज्जैनगुप्त साम्राज्य की राजधानी बना।
     विद्वानों को इसमें संदेह है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय तथा विक्रमादित्य एक ही व्यक्ति थे। उसके शासनकाल में चीनी बौद्ध यात्री फाहियान ने 399 ईस्वी से 414 ईस्वी तक भारत की यात्रा की। उसने भारत का वर्णन एक सुखी और समृद्ध देश के रूप में किया। चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल को स्वर्ण युग भी कहा गया है।
चन्द्रगुप्त एक महान प्रतापी सम्राट था। उसने अपने साम्राज्य का और विस्तार किया।
1.   शक विजय- पश्‍चिम में शक क्षत्रप शक्‍तिशाली साम्राज्य था। ये गुप्त राजाओं को हमेशा परेशान करते थे। शक गुजरात के काठियावाड़ तथा पश्‍चिमी मालवा पर राज्य करते थे। 389 ई. 412 ई. के मध्य चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा शकों पर आक्रमण कर विजित किया।
2.   वाहीक विजय- महाशैली स्तम्भ लेख के अनुसार चन्द्र गुप्त द्वितीय ने सिन्धु के पाँच मुखों को पार कर वाहिकों पर विजय प्राप्त की थी। वाहिकों का समीकरण कुषाणों से किया गया है, पंजाब का वह भाग जो व्यास का निकटवर्ती भाग है।
3.   बंगाल विजय- महाशैली स्तम्भ लेख के अनुसार यह ज्ञात होता है कि चन्द्र गुप्त द्वितीय ने बंगाल के शासकों के संघ को परास्त किया था।
4.   गणराज्यों पर विजय- पश्‍चिमोत्तर भारत के अनेक गणराज्यों द्वारा समुद्रगुप्त की मृत्यु के पश्‍चात्‌अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी गई थी।
     परिणामतः चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा इन गणरज्यों को पुनः विजित कर गुप्त साम्राज्य में विलीन किया गया। अपनी विजयों के परिणामस्वरूप चन्द्रगुप्त द्वितीय ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। उसका साम्राज्य पश्‍चिम में गुजरात से लेकर पूर्व में बंगाल तक तथा उत्तर में हिमालय की तापघटी से दक्षिण में नर्मदा नदी तक विस्तृत था। चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में उसकी प्रथम राजधानी पाटलिपुत्र और द्वितीय राजधानी उज्जयिनी थी। चंद्रगुप्त के शासन-काल में उज्जयिनी, पाटलिपुत्र और अयोध्या नगरों की बहुत उन्नति हुई । इस समय में विद्या और ललित कलाओं की बहुत प्रगति हुई । तत्कालीन साहित्य एवं कला-कृतियों से इसका पता चलता है । गुप्तों के शासन -काल को भारतीय इतिहास का `स्वर्ण युग` कहा जाता है । महाकवि कालिदास जैसे प्रतिभा संपन्न कवि और लेखक इसी काल में हुए जिनकी रचनाएँ भारतीय साहित्य में आज भी अमर हैं । महाकवि कालिदास चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समकालीन माने जाते हैं । 'रघुवंश' में कालिदास ने शूरसेन जनपद के अंर्तगत मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन और यमुना का वर्णन किया है, इंदुमती के स्वयंवर में अनेक राज्यों से आये हुए राजाओं के साथ उन्होंने शूरसेन जनपद के राजा सुषेण का भी वर्णन किया है। (रघुवंश,सर्ग 6,45-51) मगध, अंसु, अवंती, अनूप, कलिंग और अयोध्या के महान राजाओं के बीच शूरसेन -नरेश का वर्णन किया है । कालिदास के विशेषण, जिनका प्रयोग राजा सुषेण के लिए किया है उससे ज्ञात होता है कि वह वीर एवं प्रतापी शासक राजा था, जिसका गुणगान स्वर्ग के देवता भी करते थे और जिसने अपने विशुद्ध व्यवहार एवं आचरण से माता-पिता के वंशों को रोशन किया था ।*
       सुषेण विधिवत यज्ञ-पूजन करने वाला, शांत प्रकृति का शासक था, जिसके तेज से शत्रु भयभीत रहते थे । महाकवि कालिदास ने मथुरा और यमुना का वर्णन करते हुए लिखा है कि राजा सुषेण के अपनी प्रेयसियों के साथ यमुना में नौका-विहार करते समय यमुना का कृष्णवर्णीय जल गंगा की श्वेत एवं पवित्र उज्जवल लहरों जैसा प्रतीत होता था | कालिदास ने उन्हें 'नीप-वंश' का कहा है । (रघुवंश, 6,46) नीप दक्षिण पंचाल के एक नृप का नाम था, जो मथुरा के यादव-राजा भीम सात्वत के समकालीन थे । उनके वंशज नीपवंशी कहलाये । कालिदास ने वृन्दावन और गोवर्धन का भी वर्णन किया है । वृन्दावन के वर्णन से ज्ञात होता है कि कालिदास के समय में यहाँ का सौंदर्य बहुत प्रसिद्ध था और यहाँ अनेक प्रकार के फूल वाले लता-वृक्ष विद्यमान थे । कालिदास ने वृन्दावन की उपमा कुबेर के चैत्ररथ नाम उद्यान से दी है ।


चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय के तीन लेख मथुरा नगर से मिले है । पहला लेख (मथुरा संग्रहालय सं. 1931) गुप्त संवत 61 (380 ई॰) का है यह मथुरा नगर में रंगेश्वर महादेव के समीप एक बगीची से प्राप्त हुआ है । शिलालेख लाल पत्थर के एक खंभे पर है । यह सम्भवतः चंद्रगुप्त के पाँचवे राज्यवर्ष में लिखा गया था । इस शिलालेख में उदिताचार्य द्वारा उपमितेश्वर और कपिलेश्वर नामक शिव-प्रतिमाओं की प्रतिष्ठापना का वर्णन है । खंभे पर ऊपर त्रिशूल तथा नीचे दण्डधारी रुद्र (लकुलीश ) की मूर्ति है ।

       चन्द्रगुप्त द्वितीय का काल कला-साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है। उसके दरबार में विद्वानों एवं कलाकारों को आश्रय प्राप्त था। उसके दरबार में नौ रत्‍न थे- कालिदास, धन्वन्तरि, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, बेताल भट्ट, घटकर्पर, वाराहमिहिर, वररुचि उल्लेखनीय थे।

 कुमारगुप्त प्रथम

कुमारगुप्त प्रथम, चन्द्रगुप्त द्वितीय की मृत्यु के बाद सन् 412 में सत्तारूढ़ हुआ। अपने दादा समुद्रगुप्त की तरह उसने भी अश्वमेघ यज्ञ के सिक्के जारी किये। कुमारगुप्त ने चालीस वर्षों तक शासन किया।

कुमारगुप्त प्रथम (412 ई. से 455 ई.)- चन्द्रगुप्त द्वितीय के पश्‍चात्‌ 412 ई. में उसका पुत्र कुमारगुप्त प्रथम सिंहासन पर बैठा। वह चन्द्रगुप्त द्वितीय की पत्‍नी ध्रुवदेवी से उत्पन्‍न सबसे बड़ा पुत्र था, जबकि गोविन्दगुप्त उसका छोटा भाई था। यह कुमारगुप्त के बसाठ (वैशाली) का राज्यपाल था।

कुमारगुप्त प्रथम का शासन शान्ति और सुव्यवस्था का काल था। साम्राज्य की उन्‍नति के पराकाष्ठा पर था। इसने अपने साम्राज्य का अधिक संगठित और सुशोभित बनाये रखा। गुप्त सेना ने पुष्यमित्रों को बुरी तरह परास्त किया था। कुमारगुप्त ने अपने विशाल साम्राज्य की पूरी तरह रक्षा की जो उत्तर में हिमालय से दक्षिण में नर्मदा तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्‍चिम में अरब सागर तक विस्तृत था।

कुमारगुप्त प्रथम के अभिलेखों या मुद्राओं से ज्ञात होता है कि उसने अनेक उपाधियाँ धारण कीं। उसने महेन्द्र कुमार, श्री महेन्द्र, श्री महेन्द्र सिंह, महेन्द्रा दिव्य आदि उपाधि धारण की थी। मिलरक्द अभिलेख से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त के साम्राज्य में चतुर्दिक सुख एवं शान्ति का वातावरण विद्यमान था। कुमारगुप्त प्रथम स्वयं वैष्णव धर्मानुयायी था, किन्तु उसने धर्म सहिष्णुता की नीति का पालन किया। गुप्त शासकों में सर्वाधिक अभिलेख कुमारगुप्त के ही प्राप्त हुए हैं। उसने अधिकाधिक संक्या में मयूर आकृति की रजत मुद्राएं प्रचलित की थीं। उसी के शासनकाल में नालन्दा विश्‍वविद्यालय की स्थापना की गई थी।
कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल की प्रमुख घटनओं का निम्न विवरण है-
1.   पुष्यमित्र से युद्ध- भीतरी अभिलेख से ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त के शासनकाल के अन्तिम क्षण में शान्ति नहीं थी। इस काल में पुष्यमित्र ने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण किया। इस युद्ध का संचालन कुमारगुप्त के पुत्र स्कन्दगुप्त ने किया था। उसने पुष्यमित्र को युद्ध में परास्त किया।
2.   दक्षिणी विजय अभियान- कुछ इतिहास के विद्वानों के मतानुसार कुमारगुप्त ने भी समुद्रगुप्त के समान दक्षिण भारत का विजय अभियान चलाया था, लेकिन सतारा जिले से प्राप्त अभिलेखों से यह स्पष्ट नहीं हो पाता है।
3.   अश्‍वमेध यज्ञ- सतारा जिले से प्राप्त 1,395 मुद्राओं व लेकर पुर से 13 मुद्राओं के सहारे से अश्‍वमेध यज्ञ करने की पुष्टि होती है।

स्कंदगुप्त

      पुष्यमित्र के आक्रमण के समय ही गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम की 455 ई. में मृत्यु हो गयी थी। उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र स्कन्दगुप्त सिंहासन पर बैठा। उसने सर्वप्रथम पुष्यमित्र को पराजित किया और उस पर विजय प्राप्त की। हँलांकि सैन्य अभियानों में वो पहले से ही शामिल रहता था। मन्दसौर शिलालेख से जजात होता है कि स्कन्दगुप्त की प्रारम्भिक कठिनाइयों का फायदा उठाते हुए वाकाटक शासक नरेन्द्र सेन ने मालवा पर अधिकार कर लिया परन्तु स्कन्दगुप्त ने वाकाटक शासक नरेन्द्र सेन को पराजित कर दिया।
स्कंदगुप्त ने 12 वर्ष तक शासन किया। स्कन्दगुप्त ने विक्रमादित्य, क्रमादित्य आदि उपाधियाँ धारण कीं। कहीय अभिलेख में स्कन्दगुप्त को शक्रोपन कहा गया है।
स्कन्दगुप्त का शासन बड़ा उदार था जिसमें प्रजा पूर्णरूपेण सुखी और समृद्ध थी। स्कन्दगुप्त एक अत्यन्त लोकोपकारी शासक था जिसे अपनी प्रजा के सुख-दुःख की निरन्तर चिन्ता बनी रहती थी। जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि स्कन्दगुप्त के शासन काल में भारी वर्षा के कारण सुदर्शन झील का बाँध टूट गया था उसने दो माह के भीतर अतुल धन का व्यय करके पत्थरों की जड़ाई द्वारा उस झील के बाँध का पुनर्निर्माण करवा दिया।
उसके शासनकाल में संघर्षों की भरमार लगी रही। उसको सबसे अधिक परेशान मध्य एशियाई हूण लोगो ने किया। हूण एक बहुत ही दुर्दांत कबीले थे तथा उनके साम्राज्य से पश्चिम में रोमन साम्राज्य को भी खतरा बना हुआ था। श्वेत हूणों के नाम से पुकारे जाने वाली उनकी एक शाखा ने हिंदुकुश पर्वतको पार करके फ़ारस तथा भारत की ओर रुख किया। उन्होंने पहले गांधार पर कब्जा कर लिया और फिर गुप्त साम्राज्य को चुनौती दी। पर स्कंदगुप्त ने उन्हे करारी शिकस्त दी और हूणों ने अगले 50 वर्षों तक अपने को भारत से दूर रखा। स्कंदगुप्त ने मौर्यकाल में बनी सुदर्शन झील का जीर्णोद्धार भी करवाया।
गोविन्दगुप्त स्कन्दगुप्त का छोटा चाचा था, जो मालवा के गवर्नर पद पर नियुक्‍त था। इसने स्कन्दगुप्त के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। स्कन्दगुप्त ने इस विद्रोह का दमन किया।
स्कन्दगुप्त राजवंश का आखिरी शक्‍तिशाली सम्राट था। ४६७ ई. उसका निधन हो गया।

पतन

स्कंदगुप्त की मृत्य सन् 467 में हुई। हंलांकि गुप्त वंश का अस्तित्व इसके 100 वर्षों बाद तक बना रहा पर यह धीरे धीरे कमजोर होता चला गया।
स्कन्दगुप्त के बाद इस साम्राज्य में निम्नलिखित प्रमुख राजा हुए:
पुरुगुप्त
यह कुमारगुप्त का पुत्र था और स्कन्दगुप्त का सौतेला भाई था। स्कन्दगुप्त का कोई अपना पुत्र नहीं था। पुरुगुप्त बुढ़ापा अवस्था में राजसिंहासन पर बैठा था फलतः वह सुचारु रूप से शासन को नहीं चला पाया और साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो गया।
कुमारगुप्त द्वितीय
पुरुगुप्त का उत्तराधिकारी कुमारगुप्त द्वितीय हुआ। सारनाथ लेख में इसका समय 445 ई. अंकित है।
बुधगुप्त
कुमारगुप्त द्वितीय के बाद बुधगुप्त शासक बना जो नालन्दा से प्राप्त मुहर के अनुसार पुरुगुप्त का पुत्र था। उसकी माँ चन्द्रदेवी था। उसने 475 ई. से 495 ई. तक शासन किया। ह्वेनसांग के अनुसार वह बौद्ध मत अनुयायी था। उसने नालन्दा बौद्ध महाविहार को काफी धन दिया था।
नरसिंहगुप्त बालादित्य
बुधगुप्त की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई नरसिंहगुप्त शासक बना। इस समय गुप्त साम्राज्य तीन भागों क्रमशः मगध, मालवा तथा बंगाल में बँट गया। मगध में नरसिंहगुप्त, मालवा में भानुगुप्त, बिहार में तथा बंगाल क्षेत्र में वैन्यगुप्त ने अपना स्वतन्त्र शसन स्थापित किया। नरसिंहगुप्त तीनों में सबसे अधिक शक्‍तिशाली राजा था। हूणों का कुरु एवं अत्याचारी आक्रमण मिहिरकुल को पराजित कर दिया था। नालन्दा मुद्रा लेख में नरसिंहगुप्त को परम भागवत कहा गया है।
कुमारगुप्त तृतीय
नरसिंहगुप्त के बाद उसका पुत्र कुमारगुप्त तृतीय मगध के सिंहासन पर बैठा। वह 24 वाँ शासक बना। कुमारगुप्त तृतीय गुप्त वंश का अन्तिम शासक था।
दामोदरगुप्त
कुमरगुप्त के निधन के बाद उसका पुत्र दामोदरगुप्त राजा बना। ईशान वर्मा का पुत्र सर्ववर्मा उसका प्रमुख प्रतिद्वन्दी मौखरि शासक था। सर्ववर्मा ने अपने पिता की पराजय का बदला लेने हेतु युद्ध किया। इस युद्ध में दामोदरगुप्त की हार हुई। यह युद्ध 582 ई. के आस-पस हुआ था।
महासेनगुप्त
दामोदरगुप्त के बाद उसका पुत्र महासेनगुप्त शासक बना था। उसने मौखरि नरेश अवन्ति वर्मा की अधीनता स्वीकार कर ली। महासेनगुप्त ने असम नरेश सुस्थित वर्मन को ब्राह्मण नदी के तट पर पराजित किया। अफसढ़ लेख के अनुसार महासेनगुप्त बहुत पराक्रमी था।
देवगुप्त
महासेनगुप्त के बाद उसका पुत्र देवगुप्त मलवा का शासक बना। उसके दो सौतेले भाई कुमारगुप्त और माधवगुप्त थे। देवगुप्त ने गौड़ शासक शशांक के सहयोग से कन्‍नौज के मौखरि राज्य पर आक्रमण किया और गृह वर्मा की हत्या कर दी। प्रभाकर वर्धन के बड़े पुत्र राज्यवर्धन ने शीघ्र ही देवगुप्त पर आक्रमण करके उसे मार डाल्श।
माधवगुप्त
हर्षवर्धन के समय में माधवगुप्त मगध के सामन्त के रूप में शासन करता था। वह हर्ष का घनिष्ठ मित्र और विश्‍वासपात्र था। हर्ष जब शशांक को दण्डित करने हेतु गया तो माधवगुप्त साथ गया था। उसने 650 ई. तक शासन किया। हर्ष की मृत्यु के उपरान्त उत्तर भारत में अराजकता फैली तो माधवगुप्त ने भी अपने को स्वतन्त्र शासक घोषित किया।
गुप्त साम्राज्य का 550 ई. में पतन हो गया। बुद्धगुप्त के उत्तराधिकारी अयोग्य निकले और हूणों के आक्रमण का सामना नहीं कर सके। हूणों ने सन् 512 में तोरमाण के नेतृत्व में फिर हमला किया और ग्वालियर तथा मालवा तक के एक बड़े क्षेत्र पर अधिपत्य कायम कर लिया। इसके बाद सन् 606 में हर्षका शासन आने के पहले तक आराजकता छाई रही। हूण ज्यादा समय तक शासन न कर सके।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

1.    समुद्र्गुप्त के कुछ सिक्कों पर 'सर्वराजोच्छेत्ता' उपाधि मिलती है । उसकी दूसरी प्रसिद्ध उपाधि 'पराक्रमांक ' से भी समुद्रगुप्त के पराक्रम का पता चलता है ।
2.    सम्भवतः यह घटना मथुरा नगर या उसके निकट ही घटी । बाणभट्ट ने हर्षचरित में इसका विवरण किया है- अरिपुरे च परकलत्रकामुकं कामिनीवेशगुप्तश्र्चन्द्र्गुप्तः शकपतिमशातयन(हर्षच.,5,1)
3.    राष्ट्र्कूट-वंश के संजन-ताम्रपत्र में भी इसका ज़िक्र मिलता है-हत्वा भ्रातरमेव राज्यमहरद्देवीं च दीनस्तथा । लक्षं कोटिमलेखयन्किल कलौ दाता स गुप्तान्वयः
4.    लेख के प्राप्ति-स्थान कटरा केशवदेव से गुप्तकालीन कलाकृतियाँ बहुत बड़ी संख्या में प्राप्त हुई हैं,जिनसे ज्ञात होता है कि इस समय में यहाँ विभिन्न सुन्दर प्रतिमाओं सहित एक वैष्णव मंन्दिर था ।
5.    "कालिन्दीतीरे मथुरा लवणासुरवधकाले शत्रुघ्नेन निर्म्मास्यत इति वक्ष्यति तत्कथमधुना मथुरासम्भव, इति चिन्त्यम् ।
6.    "उपकूलं स कालिन्द्याः पुरी पौरुषभूषणः । निर्ममे निर्ममोसSर्थेषु मथुरां मधुराकृतिः । या सौराज्यप्रकाशाभिर्वभौ पौरविभूतिभिः । स्वर्गाभिष्यन्दवमनं कृत्वेवोपनिवेशिता । । "(रघु. 15,28-29)


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