उत्तर गुप्त राजवंश और मालवा
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प्रस्तुत
आलेख का उद्देश्य छठी सदी ईस्वी के उत्तर भारत के प्रमुख उत्तर गुप्त राजवंश का एक
संक्षिप्त, सरल एवं प्रामाणिक विवरण प्रस्तुत करना
है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इस कालखण्ड में भारत में बहुसंख्यक छोटे-बड़े राज्यों
का उदय और अस्त देखने को मिलता है। इनमें कुछ ने तो सम्पूर्ण भारत की तत्कालीन
राजनीति को न्यूनाधिक रूप से प्रभावित किया जबकि अधिकांश स्थानीय राजवंश एक सीमित
परिक्षेत्र में ही उत्थित हुए और विलीन हो गये।
गुप्तोत्तर कालीन भारतीय इतिहास अनेक नवीन प्रवृत्तियों
संक्रमण का काल था। इन नवीन प्रवृत्तियों ने छठी सदी ईस्वी से बारहवीं सदी ईस्वी
तक के राजनैतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास को समान रूप से प्रभावित किया, जिसके परिणामस्वरूप युगान्तकारी परिवर्तन
हुए। इस कालखण्ड में ‘आसमुद्र क्षितीशों’ की परम्परा समाप्त हो गयी। गुप्तों एवं वाकाटकों की साम्राज् सत्ता के
विघटन के साथ ही भारत के राजनैतिक क्षितिज पर अनेक क्षेत्रीय राज्यों का उदय हुआ
और सामन्तवादी व्यवस्था के अन्तर्गत बहुसंख्यक छोटे-छोटे स्थानीय राजवंश
अस्तित्त्व में आये। इन्होंने अवसर पाते ही अपनी स्वतंत्र सत्ता की स्थापना कर
राज्य विस्तार का कभी असफल तो कभी सफल प्रयत्न किया। इस प्रकार इस काल खण्ड
सम्पूर्ण भारत में बहुसंख्यक स्थानीय राजवंशों के उत्थान और पतन का दृश्य देखने को
मिलता है। स्वाभावतः सार्वभौम-सत्ता के स्वामी राजवंशों की तुलना में स्थानीय
राजवंश सामरिक शक्ति एवं आर्थिक स्थिति, इन दोनों दृष्टियों
से दुर्बल थे। दूसरे अपनी राज्यसीमाओं के विस्तार की आकांक्षा से वे परस्पर
संघर्षरत भी थे। इन्होंने अपनी आन्तरिक दुर्बलताओं को ढकने के लिए आडम्बरपूर्ण
जीवनशैली अपनायी।
विराट् उपाधियों द्वारा स्वयं का अलंकरण करना, अपने नीचे सामन्तों की विविध स्तरीय
श्रेणियों का सृजन, अपव्ययपूर्ण निर्माण कार्यों में अभिरूचि
और विलासितापूर्ण जीवन, सामन्तवाद के कुछ प्रमुख लक्षण थे,
जिन्होंने समवेत रूप से एक ओर तो राजशक्ति को दुर्बल बनाया वहीं
दूसरी ओर प्रजा की आर्थिक स्थिति को भी जर्जर कर दिया। उल्लेखनीय है कि सार्वभौम
सत्ता के अभाव में व्यापारिक मार्ग असुरक्षित हुए और व्यापारिक गतिविधियां बाधित
हुयीं। परिणामतः व्यापार और वाणिज्य के साथ-साथ उद्योगों का विकास भी अवरूद्ध हो
गया। इसकाल में मुद्राओं के प्रचलन एवं उपयोग का आभाव स्पष्टतः नागर और वाणिज्य
प्रधान अर्थव्यवस्था के ह्रास का सूचक है। अर्थव्यवस्था प्रधानताः कृषि पर
अवलम्बित हो गयी। फलतः इस काल खण्ड में कृषकों की स्थिति भी दुर्दशाग्रस्त हो गई।
स्पष्टतः राजनीतिक क्षेत्र में उत्पन्न अव्यवस्था ने समकालीन अर्थतंत्र को भी
प्रभावित किया।
राजनीतिक एवं आर्थिक दौर्बल्य के युग में उत्तर भारत को
विदेशी आक्रमणकारियों के हाथों भी पराजित और अपमानित होना पड़ा। उल्लेखनीय है कि
हूणों का भारत पर पहला आक्रमण गुप्त सम्राट स्कन्दगुप्त के शासन काल में हुआ था, जिसमें हूण आक्रमणकारिय़ों को बुरी तरह
पराजित होना पड़ा था। किंतु गुप्त सत्ता के अवसान काल में हूण आक्रमणकारी पुनः
सक्रिय हो उठे थे। तोरमाण और मिहिरकुल के नेतृत्त्व में हूणों ने गुजरात और मालवा
से लेकर गंगा की घाटी तक आक्रमण और विनाश का दृश्य उपस्थित किया। आगे चलकर हूणों
ने पंजाब और मध्य भारत में अपने छोटे-छोटे राज्य भी स्थापित किये। हूण आक्रमण की
ज्वाला के शमन के बाद आठवीं शताब्दी में सिन्ध, गुजरात और
मालवा क्षेत्र पर अरबों के आक्रमण प्रारम्भ हुए।
यद्यपि मलवा के गुर्जर प्रतिहारों ने अरब शक्ति के प्रवाह को रोकने का सफल रूप से
प्रयत्न किया तथापि सिन्ध का क्षेत्र अरब आक्रमणकारियों के राजनैतिक प्रभुत्त्व
में चला गया।
इसके कुछ ही समय पश्चात्
पश्चिमोत्तर दिशा से तुर्क आक्रमण का संकट उत्पन्न हुआ। तुर्क आक्रमणकारियों का
दबाव धीरे-धीरे पश्चिम में गुजरात के समुद्रतटवर्ती क्षेत्रों तक और पूर्व में
गंगा की घाटी तक बढ़ता गया। सबसे पहले तुर्कों ने पश्चिमी पंजाब (आधुनिक
पाकिस्तान) को अपने आधीन किया और उसके बाद उसके आक्रमणों की जो अनवरत् आंधी उठनी
प्रारम्भ हुयी उसे रोकने में परस्पर ईर्ष्यालु और युद्धरत क्षेत्रिय राज्यों के
अदूरदर्शी भारतीय शासक सर्वथा असफल सिद्ध हुए और धीरे-धीरे अपनी स्वतंत्रता भी खो
बैठे। चाहमान, गाहड़वाल, चौलुक्य,
चन्देल एवं परमार आदि राजवंशो के पतन से न केवल भारत के राजनैतिक
इतिहास का एक युग समाप्त हुआ वरन् सांस्कृतिक परम्पराओं के समक्ष भी एक ऐसी चुनौती
उपस्थित हुयी जिसने इतिहास की धारा को एक अकल्पनीय मोड़ दिया। यद्यपि नर्मदा के
दक्षिण का भारत इस कालखण्ड में बाहृय आक्रमणों से मुक्त रहा तथापि इस क्षेत्र में
भी स्थानीय राजवंश अपने गौरव, अभिमान और क्षेत्र विस्तार की
महत्त्वाकांक्षा के कारण परस्पर संघर्षरत और सामन्तवादी प्रवृतियों से पीड़ित रहे।
यहाँ यह उल्लेखनीय है कि केन्द्रापसारी शक्तियों के अभ्युदय के कारण जहाँ
देश की सांस्कृतिक एवं राजनैतिक एकता की भावना दुर्बल हुयी वहीं सांस्कृतिक जीवन
की विविधता एवं वैभव में वृद्धि भी हुयी। इस कालखण्ड में मूर्तिकला एवं वास्तुकला
की विविध शैलियां विकसित हुयीं, जिन्होंने अनेक उत्कृष्ट
वास्तु संरचनाओं एवं कलाकृतियों को जन्म दिया। विविध स्थानीय भाषाओं, बोलियों का विकास प्रारम्भ हुआ तथा स्थानीय शासकों के संरक्षण में अनेक
श्रेष्ठ काव्य कृतियों का सृजन हुआ। इस प्रकार हम देखते हैं कि राजनैतिक एवं
सांस्कृतिक परिदृश्य अधिकांशतः नैराश्यपूर्ण होते हुए भी सर्वथा अवदान रहित नहीं
था।
उत्तर गुप्त राजवंश
सुप्रसिद्ध गुप्त राजवंश का अवसान 550-51 ईस्वी में हुआ और इसके साथ ही उत्तर
भारतीय राजनीति में रिक्तता के साथ-साथ अस्थिरता एवं अराजकता का वातावरण भी
उत्पन्न हुआ। गुप्त सम्राटों के अधीन उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में शासन
करने वाले अनेक स्थानीय राजवंश इस रिक्तता को भरने के लिए अपनी शक्ति के संवर्धन
में लग गये। परिणामतः उनमें प्रतिस्पर्धा उत्पन्न हुयी, जिसने
पारस्परिक संघर्षों को जन्म दिया। कतिपय सामन्त राजवंश मगध और उसके पार्श्ववर्ती
क्षेत्रों पर अधिकार स्थापित कर साम्राज्यवादी शक्ति बनने का स्वप्न देखने लगे
इनमें उत्तर गुप्त, मौखरि एवं थानेश्वर के पुष्यभूति राजवंश
का नाम यहाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यद्यपि छठी शताब्दी ईस्वी के उत्तरार्द्ध
में उत्तर भारतीय राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने वाले सभी राजवंशों के सन्दर्भ
में प्रचुर सूचनाएं उपलब्ध नहीं हैं तथापि आभिलेखिक एवं
साहित्यिक स्रोतों से उत्तर गुप्त, मौखरी एवं पुष्यभूति
राजवंश के सन्दर्भ में अपेक्षाकृत अधिक सूचनाएं उपलब्ध हैं। अतएव इतिहासकारों ने
इन राजवंशों का इतिहास उपलब्ध साक्ष्यों के समवेत विवेचन के आधार पर प्रमाणिक रूप
से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। गुप्तोत्तरकालीन इतिहास का विवरण प्रस्तुत
करते हुए इस आलेख में भी क्रमशः उत्तरगुप्त राजवंश का इतिहास प्रस्तुत कर रहे हैं।
उत्तर गुप्त राजवंश के इतिहास को प्रकाशित करने वाले
अभिलेखों में आदित्यसेन का अफसढ़ अभिलेख तथा जीवित गुप्त द्वितीय का देववर्णाक
अभिलेख विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त आदित्यसेन के समय के दो अभिलेख शाहपुर
और मन्दार नामक स्थानों तथा विष्णुगुप्त के काल का एक अभिलेख मंगराव नामक स्थान से
प्राप्त हुआ है। किंतु ऐतिहासिक दृष्टि से ये विशेष सूचना प्रदायी नहीं हैं। यहाँ
यह ध्यातव्य है कि ये सभी लेख बिहार प्रान्त से प्राप्त हुए हैं। उदाहणार्थ अफसढ़
अभिलेख गया जिले में स्थित अफसढ़ नामक स्थान में मिला है, जो इस वंश के प्रथम शासक कृष्ण गुप्त से
लेकर आदिसेन तक के काल के ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख करता है। इससे हमें आदित्यसेन
तक उत्तरगुप्त राजवंशावली का ज्ञान तो होता ही है साथ ही इससे उत्तरगुप्त मौखरी
सम्बन्धों पर भी रोचक प्रकाश पड़ता है। देववर्णाक अभिलेख बिहार प्रान्त के शाहाबाद
(आरा) जिले के देववर्णाक नामक स्थान से मिला है।
इस अभिलेख को प्रकाश में लाने का श्रेय कनिंघम महोदय को
है। उन्होंने 1880 ईस्वी में इसे प्राप्त किया था। इस
अभिलेख से उत्तरगुप्त राजवंश के अंतिम तीन शासकों देव
गुप्त, विष्णु गुप्त एवं जीवित गुप्त द्वितीय के काल के इतिहास के सम्बन्ध में सूचनाएं मिलती हैं। इस प्रकार अफसढ़ एवं
देववर्णाक से प्राप्त अभिलेख एक साथ दृष्टि में रखने पर हमें इस वंश के ग्यारह
शासकों का अविच्छिन्न इतिहास ज्ञात हो जाता है। चूँकि कृष्ण गुप्त इस वंश का प्रथम
शासक तथा जीवित गुप्त द्वितीय इस वंश का अन्तिम शासक था। अतः सम्प्रति इस राजवंश
का सम्पूर्ण इतिहास न्यूनाधिक रूप से ज्ञात है, तथापि इस वंश
के इतिहास के सम्बन्ध में अभी भी अनेक ऐसी सूचनाएँ हैं जो विवादस्पद बनी हुई हैं।
जिनके सम्बन्ध में उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर कोई निर्णायक मत व्यक्त करना दुष्कर
है।
उत्पत्ति एवं आदि राज्य
उत्तर गुप्त राजवंश का संस्थापक कृष्ण गुप्त को अफसढ़
अभिलेख में ‘सदवंश’ में उत्पन्न
बताया गया है। इससे केवल इतना ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वह किसी उच्चकुल
से सम्बद्ध था। इससे अधिक उत्तर गुप्तों की उत्पत्ति के संबंध में हमें कोई सूचना
नहीं मिलती। इस वंश के अधिकांश शासकों के नाम के साथ ‘गुप्त’ शब्द जुड़ा हुआ है। अतः कतिपय विद्वानों के
द्वारा यह सम्भावना व्यक्त की गई है कि ये चक्रवर्ती गुप्त राजवंश से सम्बन्धित
रहे होंगे। किंतु यह सम्भावना निर्मूल प्रतीत होती है। क्योंकि यदि ये चक्रवर्ती
गुप्तों से सम्बद्ध होते तो इनके लेखों में निश्चय ही गर्व पूर्वक इस बात का
उल्लेख किया गया होता। तो भी उल्लेखनीय है कि इस वंश के सभी राजाओं के नाम के अन्त
में गुप्त शब्द नहीं मिलता।
ध्यातव्य है कि इस वंश के सर्वाधिक शक्तिशाली शासक का नाम आदित्यसेन मिलता है। सम्भवतः उत्तर गुप्त राजवंश, सम्राट गुप्तों के आधीन शासन करने वाला एक सामन्त राजवंश था। क्योंकि इस वंश के प्रथम शासक कृष्ण गुप्त को केवल नृप उपाधि प्रदान की गई है तथा इसके उत्तराधिकारी हर्ष गुप्त के नाम के साथ केवल आदर सूचक ‘श्री’ शब्द का प्रयोग मिलता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि चक्रवर्ती गुप्तों से पृथक करने के लिए ही इतिहासकारों ने इस वंश को परवर्ती गुप्त वंश अथवा उत्तर गुप्त वंश कह कर सम्बोधित किया है। कुछ इतिहासकारों ने इस नामकरण पर आपत्ति भी की है। सुधाकर चट्टोपाध्याय का सुझाव था कि इस वंश का नामकरण उनके संस्थापक कृष्ण गुप्त के नाम पर करना चाहिए तथा इसे ‘कृष्ण गुप्तवंश’ कहा जाना चाहिए।
ध्यातव्य है कि इस वंश के सर्वाधिक शक्तिशाली शासक का नाम आदित्यसेन मिलता है। सम्भवतः उत्तर गुप्त राजवंश, सम्राट गुप्तों के आधीन शासन करने वाला एक सामन्त राजवंश था। क्योंकि इस वंश के प्रथम शासक कृष्ण गुप्त को केवल नृप उपाधि प्रदान की गई है तथा इसके उत्तराधिकारी हर्ष गुप्त के नाम के साथ केवल आदर सूचक ‘श्री’ शब्द का प्रयोग मिलता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि चक्रवर्ती गुप्तों से पृथक करने के लिए ही इतिहासकारों ने इस वंश को परवर्ती गुप्त वंश अथवा उत्तर गुप्त वंश कह कर सम्बोधित किया है। कुछ इतिहासकारों ने इस नामकरण पर आपत्ति भी की है। सुधाकर चट्टोपाध्याय का सुझाव था कि इस वंश का नामकरण उनके संस्थापक कृष्ण गुप्त के नाम पर करना चाहिए तथा इसे ‘कृष्ण गुप्तवंश’ कहा जाना चाहिए।
गुप्त राजवंश अथवा उत्तर गुप्त राजवंश अब इतिहासकारों के बीच अधिकांशतः स्वीकृत और बहुमान्य हो चुका है। उत्तर गुप्तों का मूल क्षेत्र कौन सा था ? यह विषय आज भी विवादास्पद बना हुआ है। इस राजवंश के पश्चात्वर्ती शासकों आदित्यसेन, विष्णु गुप्त एवं जीवित गुप्त द्वितीय के अभिलेख मगध क्षेत्र से ही प्राप्त हुए हैं। जिनसे यह इंगित है कि इन तीन शासकों का शासन मगध क्षेत्र पर व्याप्त था। अतः फ्लीट आदि विद्वानों ने यह मत व्यक्त किया है कि इस राज्यवंश का मूल क्षेत्र भी मगध ही रहा होगा।
1 इसके विपरीत डी. सी. गांगुली, आर. के. मुकर्जी, सी. बी. वैद्य, हार्नले एवं रायचौधरी आदि अनेक विद्वानों का यह विचार है कि इस वंश के लोग मूलतः मलवा के निवासी थे जो हर्षोत्तर काल में मगध के शासक बने।
2 मालवा को उत्तर गुप्तों का मूल क्षेत्र मानने वाले विद्वान का मुख्य तर्क यह है कि हर्षचरित में माधव गुप्त का उल्लेख मालवराज पुत्र के रूप में हुआ है। जबकि अफसढ़ अभिलेख में माधव गुप्त को महासेन गुप्त का पुत्र कहा गया है। दोनों को ही स्रोतों में माधव गुप्त को हर्ष का मित्र कहा गया है।
हर्षचरित के अनुसार वह हर्ष का बाल सखा था जबकि अफसढ़
अभिलेख के अनुसार वह हर्ष देव के निरन्तर साहचर्य का आकांक्षी था। इन दोनों
स्रोतों को साथ-साथ देखने से हर्षचरित के मालवराज और आदित्यसेन के पितामह महासेन
गुप्त की एकरूपता प्रमाणित होती है। यहां यह भी ध्यातव्य है कि जीवित गुप्त
द्वितीय के देववर्णाक अभिलेख के अनुसार मगध पर पहले मौखरी सर्ववर्मा और
अवन्तिवर्मा का अधिकार था, जो उत्तर गुप्त वंश
के शासक दामोदर गुप्त और महासेन गुप्त के समकालीन थे। इस बात की भी प्रबल सम्भावना
है कि मगध का क्षेत्र सर्ववर्मा के पिता ईशानवर्मा के
भी आधीन रहा हो, जो उत्तर गुप्त वंशी शासक कुमार गुप्त का
समकालीन था। क्योंकि ईशानवर्मा के हड़हा अभिलेख में
ईशानवर्मा को आन्ध्रों, शूलिकों तथा गौड़ों का विजेता कहा
गया है और गौड़ की विजय मगध क्षेत्र पर अधिकार के बिना सम्भव नहीं प्रतीत होती। इन
सभी तथ्यों को दृष्टि में रखने पर पूर्वी मालवा के क्षेत्र को ही उत्तर गुप्तों का
मूल क्षेत्र मानना युक्ति संगत लगता है।
कृष्ण गुप्त
असफढ़ अभिलेख के अनुसार उत्तर गुप्त वंश का प्रथम शासक
कृष्ण गुप्त था। अभिलेख के अतैथिक होने के कारण कृष्ण गुप्त का शासनकाल सुनिश्चित
रूप से निर्धारित नहीं किया जा सकता तथापि इस दिशा में हमें ईशानवर्मा के हड़हा
अभिलेख से सहायता मिलती है, जिसकी तिथि 554
ईस्वी है। ईशानवर्मा उत्तर गुप्त वंशी नरेश कुमार गुप्त का शासनकाल
स्थूलतः 540 ईस्वी और 560 ईस्वी के बीच
निर्धारित किया जा सकता है। चूंकि कुमार गुप्त के पूर्व जीवित गुप्त प्रथम,
हर्ष गुप्त और कृष्ण गुप्त इन तीन शासकों ने राज्य किया और यदि
प्रत्येक शासक के लिए औसत बीस वर्ष का शासनकाल निर्धारित किया जाय तो कृष्ण गुप्त
का शासन काल लगभग 480 ईस्वी से 500 ईस्वी
के बीच रखा जा सकता है।
अफसढ़ अभिलेख में कृष्ण गुप्त को ‘नृप’ उपाधि से विभूषित
किया गया है।1 इस समय गुप्त साम्राट बुध गुप्त शासन कर रहा
था जिसका राजनैतिक प्रभाव मालवा क्षेत्र तक निश्चित रूप से व्याप्त था। बुध गुप्त
के शासनकाल में ही हूण नरेश तोरमाण का पश्चिमी भारत पर आक्रमण हुआ। तोरमाण के शासन
का प्रथम वर्ष का अभिलेख एरण से प्राप्त हुआ है। इससे यह विदित होता है कि 490
ईस्वी और 510 ईस्वी के बीच किसी समय तोरमाण का अधिकार मालवा क्षेत्र पर स्थापित हुआ। उसने बुध
गुप्त के एरण क्षेत्र पर शासन करने वाले सामन्त मातृविष्णु के अनुज धान्यविष्णु को
अपनी ओर से इस क्षेत्र का प्रशासक नियुक्त किया। किंतु मालवा क्षेत्र में हूणों की
यह सत्ता निर्विध्न नहीं रही। क्योंकि एरण से ही प्राप्त 510 ईस्वी के भानु गुप्त के अभिलेख से ज्ञात होता है कि भानु गुप्त ने,
जो एक महान योद्धा था एरण में एक भीषण युद्ध किया, जिसमें उसका मित्र गोपराज वीरगति को प्राप्त हुआ था और उसकी पत्नी अपने
पति के शव के साथ सती हो गई थी।
समकालीन राजनीतिक परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए
इतिहासकारों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि भानु गुप्त और गोपराज ने यह युद्ध हूण
नरेश तोरमाण के विरूद्ध ही किया होगा। स्पष्टतः मालवा क्षेत्र के राजनीतिक परिदृश्य
में तेजी के साथ परिवर्तन हो रहा था जिससे मध्य भारत के परिव्राजक, उच्चकुल तथा एरण क्षेत्र के धान्यविष्णु
जैसे सामन्त कुलों की गुप्त सम्राटों के प्रति स्वामिभक्ति शिथिल और संदिग्ध होती
जा रही थी। सम्भवतः उन्हीं परिस्थितियों का लाभ उठाते हुए कृष्ण गुप्त ने पूर्वी
मालवा में अपना छोटा सा राज्य स्थापित किया। यद्यपि अफसढ़ अभिलेख में यह कहा गया
है कि उसकी सेना में सहस्रों की संख्या में हाथी थे तथा वह असंख्य युद्धों का
विजेता था एवं विद्वानों से सदैव वह घिरा रहता था, किन्तु
इसे औपचारिक प्रशंसा मात्र ही समझना चाहिए।
हर्ष गुप्त
कृष्ण गुप्त का उत्तराधिकारी उसका पुत्र हर्ष गुप्त था।
इसका शासनकाल लगभग 500 ईस्वी से 520
ईस्वी तक था। अफसढ़ अभिलेख में कहा गया है कि इसने अनेक दुधर्ष
युद्धों में विजय प्राप्त किया था। इसका शासन काल भी हूणों के आक्रमण के कारण
उथल-पुथल का काल था। यह हूण आक्रान्ता तोरमाण और उसके पुत्र मिहिरकुल दोनों का
समकालीन था। इस समय गुप्त सम्राट नरसिंह गुप्त बालादित्य हूणों के साथ संघर्ष में
उलझा हुआ था। कुछ विद्वानों का यह मानना है कि नरसिंह गुप्त का शासन मगध क्षेत्र
में ही सीमित था, जबकि बंगाल के क्षेत्र में कदाचित वैन्य
गुप्त ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया था तथा मालवा क्षेत्र में सम्भवतः
भानु गुप्त हूणों के विरूद्ध संघर्षरत था।
अफसढ़ अभिलेख में हर्ष गुप्त के लिए स्वतंत्र शासक के लिए
प्रयुक्त होने वाली किसी उपाधि का प्रयोग नहीं है। अतः उसकी स्थित एक सामान्त की
ही प्रतीत होती है। यह कहना कठिन है कि वह तत्कालीन गुप्त सम्राट नरसिंह गुप्त
बालादित्य अथवा भानु गुप्त के अधीन शासन कर रहा था या उसने हूणों की अधिसत्ता
स्वीकार कर ली थी। यह भी सम्भावना व्यक्त की गयी है कि वह मालवा के यशोधर्मन का भी
समकालीन था। किंतु दोनों के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में कोई सूचना उपलब्ध नहीं
है। इसकी बहन हर्ष गुप्ता का विवाह मौखरी नरेश आदित्यवर्मा के साथ हुआ था। इस
प्रकार हर्ष गुप्त के शासनकाल में उत्तर गुप्त एवं मौखरी राजकुलों के पारस्परिक
सम्बन्ध मित्रतापूर्ण दिखाई देते हैं। वस्तुतः ये दोनों ही राजकुल विकासोन्मुख थे।
अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए ये परस्पर सहयोगी बनें और
मैत्री सम्बन्ध को सु़दृढ़ करने के लिए वैवाहिक सम्बन्ध का आश्रय लिया।
जीवित गुप्त प्रथम
हर्ष गुप्त का उत्तराधिकारी उसका पुत्र जीवित गुप्त प्रथम
था। इसने लगभग 520 ईस्वी से 540 ईस्वी
तक शासन किया। अफसढ़ अभिलेख से उपलब्ध सूचनओं से यह संकेत मिलता है कि यह अपने
पिता एवं पितामाह की तुलना में अधिक शक्तिशाली सिद्ध हुआ। इसे अभिलेख में ‘क्षितीशचूड़ामणि’1 उपाधि से विभूषित किया गया है।
अफसढ़ अभिलेख में इसके राजनीतिक प्रभावों की चर्चा करते हुए यह कहा गया है कि ‘वह समुद्रतटवर्ती हरित प्रदेश तथा हिमालय के पार्शववर्ती शीत प्रदेश के
शत्रुओं के लिए दाहक ज्वर के सदृश था।’1 ऐसा प्रतीत होता है
कि गुप्त-साम्राज्य पर हूणों के आक्रमण एवं मालवा शासक यशोवर्धन के दिग्विजय के
परिणाम स्वरूप उत्तर भारत में राजनीतिक अव्यवस्था की भयावह स्थिति उतपन्न हो चुकी
थी।
गुप्त सम्राटों का प्रताप-सूर्य अस्त हो रहा था और हिमालय
के सीमावर्ती क्षेत्रों सहित उत्तरी बंगाल के क्षेत्रों से गुप्त सत्ता का प्रभाव
समाप्त हो चला था। असम्भव नहीं है कि जीवित गुप्त प्रथम ने समकालीन गुप्त सम्राट, जो सम्भवतः कुमार गुप्त तृतीय था, के सामन्त के रूप में पूर्वी भारत में विद्रोहों का दमन करने के लिए यह
अभियान किया हो। ऐसा प्रतीत होता है कि इस अभियान में समकालीन मौखरी नरेश ईश्वर
वर्मा ने भी उसका सहयोग किया। क्योंकि जौनपुर शिलालेख में यह कहा गया है कि ईश्वर
वर्मा ने उत्तर की दिशा में हिमालय तक के क्षेत्रों (प्रालेयाद्रि) पर विजय
प्राप्त की थी। इन विजयों के परिणाम स्वरूप जीवित गुप्त के शासनकाल में उत्तर
गुप्तों के राजनीतिक प्रभाव में वृद्धि हुई। इसलिए अफसढ़ अभिलेख में यह कहा गया है
कि ‘उसका पराक्रम पवन पुत्र हनुमान द्वारा
समुद्र लंघन के समान अमानुषिक था।
कुमार गुप्तः
जीवित गुप्त प्रथम का उत्तराधिकारी उसका पुत्र कुमार गुप्त
हुआ। इसका शासनकाल लगभग 540 ईस्वी से से 560
ईस्वी तक माना गया है। इसके शासन के प्रायः मध्यकाल में (550-51ईस्वी) गुप्त सम्राट विष्णु गुप्त की मृत्यु हुई एवं गुप्त राजवंश का
पूर्णतः अंत हो गया। गुप्त राजवंश के पतन का लाभ उठाने की दिशा में उत्तर गुप्त और
मौखरी दोनों ही राजवंश सक्रिय हो उठे। परिणामतः इन दोनों राजकुलों का पारस्परिक
मैत्री सम्बन्ध समाप्त हो गया। अफसढ़ अभिलेख से दोनों कुलों के बीच शत्रुता एवं
संघर्ष की स्पष्ट सूचना मिलती है। इस अभिलेख के अनुसार कुमार गुप्त एवं उसके
समकालीन मौखरी नरेश ईशानवर्मा के बीच भीषण संघर्ष हुआ। कदाचित इस संघर्ष का उद्देश्य
मगध के क्षेत्र पर, जो साम्राज्य सत्ता का प्रतीक था,
अधिकार स्थापित करना था।
उत्तर गुप्त नरेश कुमार गुप्त एवं मौखरी नरेश ईशानवर्मा के
बीच संघर्ष की सूचना देने वाला एकमात्र स्रोत अफसढ़ अभिलेख है। इस अभिलेख के
अनुसार कुमार गुप्त ने ‘राजाओं में चन्द्रमा
के समान शक्तिशाली ईशानवर्मा के सेना रूपी क्षीरसागर का, जो
लक्ष्मी की सम्प्राप्ति का साधन था, मन्दराचल पर्वत की भाँति
मंथन किया। इस श्लोक में निहित अर्थ को लेकर विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है।
रायचौधरी का मत है कि इस युद्ध में कुमार गुप्त की विजय हुई तथा ईशानवर्मा पराजित
हुआ। क्योंकि मौखरियों द्वारा इस युद्ध में विजय का कोई दावा नहीं
किया गया। उल्लेखनीय है कि ईशानवर्मा के 554 ईस्वी के हड़हा
अभिलेख में इस युद्ध का कोई वर्णन नहीं है। अतः इस बात की प्रबल सम्भावना है कि यह
युद्ध 554 ईस्वी के बाद किसी समय हुआ होगा। अफसढ़ अभिलेख के
आगे के श्लोक में यह कहा गया है कि इस युद्ध के बाद कुमार गुप्त ने प्रयाग में
अग्निप्रवेश कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली थी।1 निहाररंजन
राय और राधाकुमुद मुकर्जी जैसे विद्वानों का मत है कि इस युद्ध में कुमार गुप्त
पराजित हुआ था और उसने पराजय जनित ग्लानि के कारण प्रयाग में आत्महत्या की थी।
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