राष्ट्रकूट
साम्राज्य
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राष्ट्रकूट (कन्नड़: ರಾಷ್ಟ್ರಕೂಟ, संस्कृत: राष्ट्रकूट rāṣṭrakūṭa)
दक्षिण भारत, मध्य भारत और उत्तरी भारत के बड़े भूभाग
पर राज्य करने वाला शाही राजवंश था। दन्तिदुर्ग (735-756) ने चालुक्य साम्राज्य को पराजित
कर लगभग 736 ई. में राष्ट्रकूट
साम्राज्य की नींव डाली। उसने नासिक को अपनी राजधानी
बनाया। इसके उपरान्त इन शासकों ने मान्यखेत, (आधुनिक मालखंड) को अपनी राजधानी बनाया। राष्ट्रकूटों ने 736 ई. से 973 ई. तक राज्य किया। राष्ट्रकूट वंश भगवान
कृष्ण के सेनापति सात्यिकी का वंश है| इस यदुवंश में अनेक महान राजा हुए हैं .
अजंता व एलोरा की गुफाओं का निर्माण तथा मुंबई के निकट एलिफैन्टा की गुफा में
विश्व विख्यात शिव की मूर्तियों का निर्माण इन्होंने ही कराया है.
अनुक्रम
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एलोरा गुफाओं में शिव मूर्ति.
एलोरा में तीन मंजिला अखंड जैन गुफा मंदिर.
मान्यखेत के राष्ट्रकूट साम्राज्य का विस्तृत क्षेत्र.
इनका शासनकाल लगभग छठी से तेरहवीं शताब्दी के मध्य था। इस
काल में उन्होंने परस्पर घनिष्ठ परन्तु स्वतंत्र जातियों के रूप में राज्य किया, उनके ज्ञात प्राचीनतम शिलालेखों में
सातवीं शताब्दी का 'राष्ट्रकूट' ताम्रपत्र
मुक्य है, जिसमे उल्लिखित है की, 'मालवा
प्रान्त' के मानपुर में उनका साम्राज्य था (जोकि आज मध्य
प्रदेश राज्य में स्थित है), इसी काल की अन्य 'राष्ट्रकूट' जातियों में 'अचलपुर' (जो आधुनिक समय में महाराष्ट्र में स्थित एलिच्पुर
है), के शासक तथा 'कन्नौज' के शासक भी शामिल थे। इनके मूलस्थान तथा मूल के बारे में कई भ्रांतियां
प्रचलित है। एलिच्पुर में शासन करने वाले 'राष्ट्रकूट'
'बादामी चालुक्यों' के उपनिवेश के रूप में
स्थापित हुए थे लेकिन 'दान्तिदुर्ग' के
नेतृत्व में उन्होंने चालुक्य शासक 'कीर्तिवर्मन द्वितीय'
को वहाँ से उखाड़ फेंका तथा आधुनिक 'कर्णाटक'
प्रान्त के 'गुलबर्ग' को
अपना मुख्य स्थान बनाया. यह जाति बाद में 'मान्यखेत के
राष्ट्रकूटों ' के नाम से विख्यात हो गई, जो 'दक्षिण भारत' में 753 ईसवी
में सत्ता में आई, इसी समय पर बंगाल का 'पाल साम्राज्य' एवं 'गुजरात के
प्रतिहार साम्राज्य' 'भारतीय उपमहाद्वीप' के पूर्व और उत्तरपश्चिम भूभाग पर तेजी से सत्ता में आ रहे थे।
आठवीं से दसवीं शताब्दी के मध्य के काल में गंगा के उपजाऊ
मैदानी भाग पर स्थित 'कन्नौज राज्य'
पर नियंत्रण हेतु एक त्रिदलीय संघर्ष चल रहा था, उस वक्त 'कन्नौज' 'उत्तर भारत'
की मुख्य सत्ता के रूप में स्थापित था। प्रत्येक साम्राज्य उस पर
नियंत्रण करना चाह रहा था। 'मान्यखेत के राष्ट्रकूटों'
की सत्ता के उच्चतम शिखर पर उनका साम्राज्य उत्तरदिशा में 'गंगा' और 'यमुना नदी' पर स्थित दोआब से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक था। यह उनके राजनीतिक
विस्तार, वास्तुकला उपलब्धियों और साहित्यिक योगदान का काल
था। इस राजवंश के प्रारंभिक शासक हिंदू धर्म के अनुयायी थे, परन्तु
बाद में यह राजवंश जैन धर्म के प्रभाव में आ गया था।
उत्पति
860 ई० के पूर्व हमें राष्ट्रकूट राजाओं के वंश के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं था | इसके बाद दक्षिण भारत एवं गुजारात से मिले 75 शिलालेखों में से कुछ इनके वंश के बारे में प्रकाश डालते हैं ၊ इनमें से 8 शिलालेख बताते हैं कि राष्ट्रकूट राजा यादववंश के थे ၊ 860 ई० में उत्कीर्ण एक शिला लेख में बताया गया है कि २ाष्ट्रकूट शासक दंतिदुर्ग का जन्म यदुवंशी सात्यकी के वंश में हुआ था ၊ इसप्रकार राष्ट्रकूट वंश भगवान कृष्ण के सेनापति सात्यिकी का वंश है | ये यदुवंशी क्षत्रिय थे | गोविन्द तृतीय (880 ई०) द्वारा उत्कीर्ण एक शिलालेख में लिखा है कि "इस महान राजा के जन्म से राष्ट्रकूट वंश वैसे ही अजेय हो गया जैसे भगवान कृष्ण के जन्म से यादव वंश हो गया था" | यह शिलालेख इस ओर स्पष्ट रूप से इशारा करती है कि राष्ट्रकूट यादव थे | हलायुध द्वारा लिखी गई किताब 'कविरहस्य' में भी राष्ट्रकूट राजाओं को यदुवंशी सात्यकी का वंशज लिखा गया है | अमोघवर्ष प्रथम द्वारा 950 ई० में लिखित एक ताम्र-पत्र में भी उन्होंने अपने आप को यादव बताया है | 914 ई० के ताम्र-पत्र में भी राष्ट्रकूट राजा 'दन्तिदुर्ग' को यादव सात्यकी का वंशज लिखा गया है | इन बातों से सिद्ध होता है कि राष्ट्रकूट राजा यादव थे | ये कन्नड भाषा बोलते थे, लेकिन उन्हें उत्तर-डाककनी भाषा की जानकारी भी थी । अपने शत्रु चालुक्य वंश को पराजित करने वाले राष्ट्रकूट वंश के शासन काल मेन ही दक्कन साम्राज्य भारत की दूसरी बड़ी राजनीतिक इकाई बन गया, जो मालवा से कांची तक फैला हुआ था । इस काल में राष्ट्रकूटों के महत्व का इस तथ्य से पता चलता है कि एक मुस्लिम यात्री ने यहाँ के राजा को दुनिया के चार महान शासकों में से एक बताया (अन्य शासक खलीफा तथा बाइजंतीया और चीन के सम्राट थे )।[13][14]
कला और संस्कृति
कई राष्ट्रकूट राजा अध्ययन और कला के प्रति समर्पित थे ।
दूसरे राजा, कृष्ण प्रथम (लगभग 756 से 773) ने एलोरा
मे चट्टान को काटकर कैलाश मंदिर बनवाया,इस राजवंश का
प्रसिद्ध शासक अमोघवर्ष प्रथम ने,जिनहोने लगभग 814 से 878 तक
शासन किया, सबसे पुरानी ज्ञात कन्नड कविता कविराजमार्ग के
कुछ खंडों की रचना की थी । उनके शासन काल के दरमियान जैन गणितज्ञों, और विद्वानों ने 'कन्नड़' व 'संस्कृत' भाषा हेतु महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनी
वास्तुकला 'द्रविणन शैली' में आज भी
मील का पत्थर मानी जाती है, जिसका एक प्रसिद्ध उदाहरण 'एल्लोरा' का 'कैलाशनाथ मन्दिर'
है। अन्य महत्वपूर्ण योगदानों में 'महाराष्ट्र'
में स्थित 'एलीफेंटा गुफाओं' की मूर्तिकला तथा 'कर्णाटक' के
'पताद्क्कल' में स्थित 'काशी विश्वनाथ' और 'जैन मन्दिर'
आदि आते हैं, यही नही यह सभी 'यूनेस्को' की वर्ल्ड हेरिटेज साईट में भी शामिल हैं।[15]
आर्थिक परिदृश्य
इस वंश के कई राजा युद्ध कला में पारंगत थे । ध्रुव प्रथम
ने गंगवादी (मैसूर) के गंगवंश के राजाओं को पराजित किया, कांची (कांचीपुरम) के पल्लवों से लोहा
लिया और बंगाल के राजा तथा काननोज पर दावा करने वाले प्रतिहार शासक को पराजित किया
। कृष्ण द्वितीय ने, जो 878 में सिंहासन पर बैठे , फिर से गुजरात पर कब्जा कर लिया,जो अमोघवर्ष प्रथम
के हाथों से छिन गया था । लेकिन वे वेंगी पर फिर से अधिकार करने में असफल रहे ।
उनके पौत्र इंद्र तृतीय ने, जो 1914 में सत्तारूढ़ हुये।
कन्नौज पर कब्जा करके राष्ट्रकूट शक्ति को अपने चरम पर पहुंचा दिया । कृष्ण तृतीय
ने उत्तर के अपने अभियानों (लगभग 940) से इसका और विस्तार किया तथा कांची और तमिल
अधिकार वाले मैदानी क्षेत्र (948-966/967) पर कब्जा कर लिया ।[16][17]
राजवंश का पतन
तैलप २ (प्रतीच्य चालुक्य) (973-1200) ने इस साम्राज्य को पराजित कर इस वंश को
अन्त कर दिया। खोट्टिम अमोघवर्ष चतुर्थ (968-972) अपनी राजधानी की रक्षा में विफल
रहे और उनके पाटन ने इस वंश पर से लोगों का विश्वास उठा दिया ।
राष्ट्रकूट वंशीय शासक
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शासकों के नाम
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शासन काल
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(736-756
ई.)
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(756-772
ई.)
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(773-780
ई.)
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(780-793
ई.)
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(793-814
ई.)
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(814-878
ई.)
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(978-914
ई.)
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(914-927
ई.)
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अमोघवर्ष
द्वितीय
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(928-929
ई.)
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(930-936
ई.)
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अमोघवर्ष
तृतीय
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(936
ई.)
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(936-969
ई.)
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खोद्रिग
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(967-972
ई.)
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कर्क्क
द्वितीय
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(972-973
ई.)
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साहित्यिक उपलब्धियाँ
राष्ट्रकूट काल साहित्यिक उन्नति के लिए भी प्रसिद्ध रहा है। अग्रहार उच्च संस्कृत शिक्षा का केन्द्र था। यहाँ पर ब्राह्मण द्वारा संस्कृत विद्या की शिक्षा
दी जाती थी। अग्रहार के अतिरिक्त मन्दिर भी उच्च शिक्षा का केन्द्र था। मान्यखेट, पैठन, नासिक, करहद आदि शिक्षा के
उच्च केन्द्र थे। संस्कृत के अनेक विद्वान तथा लेखक-'कुमारिल
भट्ट', 'वाचस्पति', 'लल्ल', 'कात्यायन', 'राजशेखर', 'अंगिरस'
इसी युग के हैं। इसके अतिरिक्त अन्य विद्वानों में 'हलायुध', 'अश्लक', 'विद्यानंद',
'जिनसेन', 'प्रभाचन्द्र', 'हरिषेण', 'गुणभद्र' और 'सोमदेव' प्रमुख थे। हलायुध, जिसने
‘कवि रहस्य’ नामक ग्रन्थ लिखा, कृष्ण तृतीय का दरबारी कवि था। कृष्ण तृतीय के ही शासन काल में 'अवलंक'
और 'विद्यानन्द' ने जैन
ग्रन्थ 'आप्त मीमांसा' पर 'अष्टशती' एवं 'अष्टसहस्त्री'
टीकाएँ लिखीं। इसी काल में 'मणिक्यनन्दिन'
ने ‘परीक्षामुख शास्त्र’ की रचना की, जो न्याय शास्त्र का प्रमुख ग्रन्थ माना
गया है। राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष स्वयं एक उच्चकोटि का विद्वान था, उसने कन्नड़ भाषा में ‘कविराज मार्ग’ नामक
ग्रन्थ की रचना की। इसके गुरु एवं आचार्य जिनसेन ने 'आदि
पुराण', 'हरिवंश' तथा 'पाश्र्वभ्युदय' की रचना की। इसी समय के महान गणितज्ञ
'वीराचार्य' ने 'गणिसारसंग्रह'
की रचना की तथा शाकटायन ने 'अमोघवृत्ति'
की रचना की। राष्ट्रकूट शासक इन्द्र तृतीय के शासन काल में महाकवि 'त्रिविक्रम' ने ‘नलचम्पू’ काव्य की रचना
की। 9वीं शताब्दी में सोमदेव ने यशस्तिक चम्पू नामक उच्च
कोटि के ग्रन्थ की रचना की। उसकी एक अन्य रचना ‘नीति
वाक्यमृत’ है, जो तत्कालीन राजनीतिक
सिद्धान्तों का मानक ग्रन्थ माना जाता है। 10वीं शताब्दी के
महानकवि 'पम्प' ने कन्नड़ भाषा में ‘आदि पुराण’ तथा ‘विक्रमार्जुन
विजय’ की रचना की। आदि पुराण में प्रथम जैन तीर्थकरों का
उल्लेख किया गया है।
कन्नड़ कवि 'पोत्र' (950) ने रामायण की कहानी पर आधारित ‘रामकथा’ तथा
‘शान्तिपुराण’ नामक ग्रन्थ की रचना की।
'रन्न' (993 ई.) ने 'गदायुद्ध' तथा 'अजीत तीर्थकर
पुराण' की रचना की। गंगवाड़ी राज्य के प्रसिद्ध सेनापति 'चामुण्डराज' ने ‘चामुण्डराज पुराण’ नामक
ग्रन्थ लिखा; जिसे गद्य साहित्य का उत्कृष्ट ग्रंथ माना जाता
है।
कला
राष्ट्रकूटों के समय का सबसे विख्यात मंदिर एलोरा का कैलाश मंदिर है। इसका निर्माण कृष्ण प्रथम के शासनकाल में किया गया था। भड़ौदा अभिलेख में इस मन्दिर की भव्यता का
वर्णन मिलता है। दशावतार मन्दिर दो मंजिला ब्राह्मण मन्दिर का एक मात्र उदाहरण है।
इनके जैन मन्दिर पाँच मंजिलें हैं, जिनमें इन्द्रमहासभा,
छोटा कैलाश तथा जगन्नाथ सभा प्रमुख हैं।
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