सोमवार, 11 अगस्त 2014

Yadavas in Chhatisgarh - छत्तीसगढ़ में यादव

छत्तीसगढ़
छत्तीसगढ़

चित्र:Chhattisgarh in India (disputed hatched).svg
रायपुर
सबसे बड़ा शहर
रायपुर
जनसंख्या
2,55,40,196
 - घनत्व
1,35,191 किमी² 
 - जिले
27
राजभाषा(एँ)
प्रतिष्ठा
1 नवंबर 2000


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आइएसओ संक्षेप
छत्तीसगढ़ भारत का 26वां  एक राज्य है। छत्तीसगढ़ राज्य का गठन 1 नवंबर 2000 को हुआ था। भारत में दो क्षेत्र ऐसे हैं जिनका नाम विशेष कारणों से बदल गया - एक तो 'मगध' जो बौद्ध विहारों की अधिकता के कारण "बिहार" बन गया और दूसरा 'दक्षिण कौशल' जो छत्तीस गढ़ों को अपने में समाहित रखने के कारण "छत्तीसगढ़" बन गया। किन्तु ये दोनों ही क्षेत्र अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारत को गौरवान्वित करते रहे हैं। "छत्तीसगढ़" तो वैदिक और पौराणिक काल से ही विभिन्न संस्कृतियों के विकास का केन्द्र रहा है। यहाँ के प्राचीन मन्दिर तथा उनके भग्नावशेष इंगित करते हैं कि यहाँ पर वैष्णवशैव,शाक्तबौद्ध के साथ ही अनेकों आर्य तथा अनार्य संस्कृतियों का विभिन्न कालों में प्रभाव रहा है।
छत्तीसगढ़ का भूगोल
चित्र:Chhatisgarh state and districts.png
भारत मे छत्तीसगढ़ की स्थिति और इसके जिले।
यह प्रदेश ऊँची नीची पर्वत श्रेणियों से घिरा हुआ घने जंगलों वाला राज्य है। यहाँ सालसागौन, साजा और बीजा और बाँस के वृक्षों की अधिकता है। छत्तीसगढ़ क्षेत्र के बीच में महानदी और उसकी सहायक नदियाँ एक विशाल और उपजाऊ मैदान का निर्माण करती हैं, जो लगभग 80 कि.मी. चौड़ा और 322 कि.मी. लम्बा है। समुद्र सतह से यह मैदान करीब 300 मीटर ऊँचा है। इस मैदान के पश्चिम में महानदी तथा शिवनाथ का दोआब है। इस मैदानी क्षेत्र के भीतर हैं रायपुरदुर्ग और बिलासपुर जिले के दक्षिणी भाग। धान की भरपूर पैदावार के कारण इसे धान का कटोरा भी कहा जाता है।
छत्तीसगढ़ के दुर्ग, बिलासपुर, रायपुर, कोरबा, राजनंदगांव एवं बस्तर जिले में यादव आबादी की सघनता अधिक है | छत्तीसगढ़ यादव महासभा उनके सामाजिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक उत्थान के लिए निरन्तर प्रयास कर रहा है | वर्तमान में डी. आर. यादव छत्तीसगढ़ यादव महासभा के अध्यक्ष है | वर्तमान छत्तीसगढ़ में यादवों की तीन प्रमुख शाखाएं ठेठवार (कन्नौजिया), झेरिया एवं कोसरिया ही बहुलता से निवास करती हैं। छत्तीसगढ़ की आबादी में इन सभी का संयुक्त रूप से हिस्सा करीब 11 प्रतिशत अनुमानित है। संगठन की शक्ति को मानते हुए वर्ष 1990 में सर्व छत्तीसगढ़ यादव समाज का गठन किया गया है जो सभी यादवों के आर्थिक, शैक्षिक, सामाजिक एवं राजनैतिक विकास में सहायक सिद्ध होगा | महाकवि कालिदास का जन्म भी छत्तीसगढ़ में हुआ माना जाता है।
समूचे भारत में यादव जाति की करीब 300 उपजातियां बताई गई है । जिनमें 17 उपजातियां छत्तीसगढ़ में निवास करती है। ये हैं झेरिया, कोसरिया, फूलझरिया, ठेठवार, देसहा, गवली, भोरथिया, मगधा, गौली, ग्वाल, महकुल, गयार, मेनाव, दुधकौरा, बरगाह, अठोरिया और ढलहोर | ये सभी मूलत: यादव हैं । गोपालन एवं दुग्धोत्पादन से जीविकोपार्जन इनकी मुख्य जाति वृत्ति है। गोपालन यादव जाति की ही पहचान है।
इस समाज के सूत्रों का मानना है कि छत्तीसगढ़ में जनसंख्या के आधार पर यादव तीसरे स्थान पर हैं परंतु फिर भी पिछड़े हैं क्योंकि ये असंगठित हैं। राजनैतिक चेतना, शिक्षा, व्यवसायों में रुचि का अभाव है। नशावृत्ति की परम्परा है। यादवों की तीनों शाखाओं में तुलनात्मक रुप से ठेठवारों की आर्थिक, शैक्षिक एवं राजनैतिक स्थिति मजबूत है। ये श्रीकृष्ण की पूजा करते हैं। जन्माष्टमी पर्व धूमधाम से मनाते हैं। शक्ति की पूजा करने के कारण इन्हें 'शक्तहा’ कहा जाता है। गोवर्धन पूजा और मातर भी ये धूमधाम से मनाते हैं। बालोद, खल्लारी एवं भाटापारा में इनके सामाजिक भवन हैं जबकि राजिम, दुर्ग एवं खल्लारी में मंदिर है । छत्तीसगढ़ राज्य ठेठवार यादव समाज नामक केन्द्रीय संगठन (पं.क्र. 18033) की 36 राज्य इकाईयां हैं। इनमें गोत्रों की संख्या 150 है। ये प्राय: यादव, यदु, ठेठवार, उपनामों से उपयोग करते हैं। इनका खान-पान मिश्रित है। इनमें दहेज की समस्या नहीं है। सामूहिक विवाह हेतु प्रयास जारी है। मृतक संस्कार के अंतर्गत दशगात्र होता है। अंतर्जातीय विवाह को ये प्रश्रय नहीं देते हैं। 
डॉ मन्नूलाल यदु छत्तीसगढ़ गठन के पूर्व यहाँ के पिछड़े वर्ग के अग्रिम पंक्ति के नेता थे | 1995 में ये छत्तीसगढ़ विकास प्रतिखारण के अध्यक्ष थे | हेमचन्द्र यादव 2008 से 2013 तक रमण सिंह के भाजपा सरकार में मंत्री एवं दुर्ग (शहरी) विधानसभा से भाजपा के विधायक थे | 2013 में दुर्ग से वे विधानसभा चुनाव हार गए |
ठेठवार- कोसे का साफा, चटक रंग का कुर्ता, ऊपर चढ़ी धोती, चमराही जूते, बलिष्ठ हाथों में काला मोटा, लट्ठ, कलाइयों में चांदी के चूड़े, सुगठित देहयष्टि, रोबीली मूंछें अपने इस पारंपरिक स्वरूप में ठेठवार दूर से ही पहचाना जा सकता है। उत्तरप्रदेश के कन्नौज से आए कन्नौजिया यादवों को छत्तीसगढ़ में ठेठवार कहा जाता है जो अपनी युद्धप्रियता  और स्वाभिमान के लिए जनमानस में प्रतिष्ठित हैं। गोपालन एवं दुग्धोत्पादन के वंशानुगत व्यवसाय में रत ठेठवारों को अन्यों की गोचरण सेवा, पानी भरना, चौका-बर्तन करना, बकरी या मुर्गी पालन, होटल रखना सहित दूध के विक्रय की भी जातीय स्वीकृति नहीं है। ठेठवार स्वयं को अन्य यादवों से श्रेष्ठ एवं कुलीन मानते हैं। ये रायपुर  एवं रतनपुर में केन्द्रित पर सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में फैले हैं। अपने व्यवसाय पर इनकी पकड़ संतोषप्रद है परंतु भविष्य में और उन्नति के लिए ये शासन से मांग करते हैं कि मछुआरों एवं बंसोड़ों की भांति सबसिडी, पशुओं के लिए चारा एवं चारागाह तथा शासकीय दुग्ध महासंघों की नौकरी में आरक्षण आदि की व्यवस्था की जाए।
झेरिया- इस शाखा के यादव लोग मुख्यत: रायपुर, दुर्ग एवं बिलासपुर जिलों में रहते हैं। झेरिया यादव समाज कल्याण समिति नामक संगठन की छत्तीसगढ़ जिला तहसील एवं ब्लाक स्तर पर इकाईयां हैं। इनका मुख्यालय रायपुर है। जिला स्तर पर महिला संगठन है पर पृथक युवा संगठन नहीं है। इनका पैतृक व्यवसाय गोपालन, दूध बेचना एवं घरेलू कार्य करना है। दूसरों के द्वारा यह व्यवसाय अपनाने के कारण इस व्यवसाय में झेरिया यादवों की पकड़ कमजोर हो गई है। इनके भी ईष्टदेव श्री कृष्ण हैं जिनकी जन्माष्टमी ये धूमधाम से मनाते हैं। इसके अतिरिक्त ये दीपावली पर्व पर सांहड़ा देव की भी पूजा करते हैं। इस वर्ग की आर्थिक एवं शैक्षणिक स्थिति शहरी क्षेत्रों में तो अच्छी है पर ग्रामीण क्षेत्रों में कमजोर है। राजनैतिक स्थिति शून्य है। इनके  सामाजिक भवन  कहीं नहीं है। इनक गोत्रों की संख्या 12 है चौधरी, दूधनाग, भैंस, रावत, कटवाल, ग्वाल आदि ये यादव उपनाम का उपयोग करते हैं। शुद्ध शाकाहारी इस जाति में दहेज नहीं है तथा सामूहिक विवाह जैसे आयोजनों का प्रयास नहीं हुआ है। ये अंतर्जातीय विवाह को मान्यता नहीं देते है। मृत संस्कार के अंतर्गत दशगात्र एवं तेरहवीं होता है।
3. कोसरिया - कौशल प्रदेश से आए कोसरिया यादव बंधुओं का मुख्य संगठन अखिल भारतीय यादव महासभा है, जिसकी जिला नगर एवं तहसील स्तरीय शाखाएं कार्यरत है। दुर्ग, राजनांदगांव जिले में संगठन 1970 में स्थापित हुआ जिसमें स्व. झुमुक लाल राउत का अविस्मरणीय योगदान रहा है। इस शाखा के यादवों का पैतृक व्यवसाय स्वयं अपना अथवा अन्य किसी के पशुओं की सेवा करना (चरवाहा) एवं दुग्ध व्यवसाय है। परन्तु अन्यों द्वारा यह व्यवसाय अपनाने तथा शासकीय दुग्ध संयंत्रों की स्थापना हो जाने से यादवों की आर्थिक स्थिति प्रभावित हुई है। ग्रामीण परिवेश में  'पौनी-पसारी’ के अंतर्गत आने वाले चार जातियों राउत-नाई-धोबी, लोहार में केवल राउत जाति ने ही अपनी उपस्थिति कायम रखी है परंतु उनका शोषण किया जाता है। उन्हें न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती है इसके निराकरण के लिए आवश्यक है कि शासन चरवाहा मजदूरी तय करे। इस शाखा के लोगों की आर्थिक एवं शैक्षणिक स्थिति कमजोर है। राजनैतिक स्थिति संतोषप्रद कही जा सकती है।
4. राउत- छत्तीसगढ़ में विविध जातियां निवास करती हैं। इन जातियों में राउत जाति अपनी विशेषताओं के कारण अलग महत्व रखती है। यह जाति मुख्य रूप से छत्तीसगढ़ के दुर्ग, रायपुर और बस्तर जिले में एवं महाराष्ट्र के नागपुर एवं भंडारा जिले में निवास करती है | राउत जाति अन्य जातियों की तरह अलग-अलग क्षेत्रों में आकर छत्तीसगढ़ में बस गयी है। गोपालन और दुग्ध व्यवसाय करने वाली इस जाति को यहां के सामाजिक कार्यों में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।
राउत शब्द की व्युत्पत्ति- 'राउत’ शब्द अपने साथ एक दीर्घ ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परंपरा लिए हुए है। शब्दकोष में 'राउत’ शब्द को राजपुत्र मानते हुए राजवंश का (कोई) व्यक्ति, क्षत्रिय, वीर पुरुष अथवा बहादुर अर्थ दिया है।
डॉ. पाठक ने शब्द उत्पत्ति के आधार पर 'राउत’ शब्द को 'राव’ से व्युत्पत्ति 'रावत’ का अपभ्रंश माना है। रसेल और हीरालाल के अनुसार 'राउत’ शब्द राजपूत का विकृत रूप है। चूंकि छत्तीसगढ़ में आज भी 'अहीर’ को 'राउत’ ही कहा जाता है। अत: एक अन्य मत के अनुसार अहीर की उत्पत्ति 'अभीर’ जाति से मानी जाती है, जिसका विवरण पुरातात्विक अभिलेखों एवं हिन्दू लेखों में सुरक्षित है। कुछ विद्वानों के राउत शब्द की व्युत्पत्ति व अर्थ की ओर ध्यान दें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि गोचारण एवं दुग्ध वाहन की वृत्ति के लिए कुछ राउत जाति पहले राज्य का संचालन करती रहीं होगी और राजवंशी थे।
जाति नाम- श्री कृष्ण राउत जाति के आराध्य देव हैं। इन्हें ही राउत जाति के लोग अपना पूर्वज मानते हैं अत: इनकी कार्यप्रणाली व नामकरण श्रीकृष्ण से जुड़ा हुआ है। श्रीकृष्ण ने गौ का पालन किया तथा गोपाल कहलाए। नाग (सर्प) को नाथा था, इसलिये अहीर कहलायें और ये यदुवंशी तो थे ही इन सबसे प्रेरित होकर ही राउत जाति को लोग अपने आपको गोपाल, अहीर और यादव मानते हैं। महाभारत युद्ध के पश्चात यदुवंशी सैनिक अस्त्र-शस्त्र त्याग कर गो पालन और दुग्ध व्यवसाय को अपनाकर देश भर में फैल गये|
गोवर्धन पूजा (दीवाली) के बाद 15 दिनों तक अंचल में राउत नाचा की धूम मचाने वाले कोसरिया यादव बंधु सांहड़ा देव की पेजा करते हैं। श्रीकृष्ण सभी यादवों के आराध्य हैं।  'राउत नाचा’ के संबंध में मान्यता है कि कर्मयोगी श्री कृष्ण ने  'इन्द्रपूजा’ प्रणयन किया था। उक्त पूजा के अवसर पर श्री कृष्ण एवं उनके गोप शाखाओं ने हर्षोल्लास के आवेश में नृत्य किया था। उसी का अनुपालन करते हुए संपूर्ण भारत में गोवर्धन पूजा एवं यादवी नृत्य की परम्परा विद्यमान है। 
बिलासपुर में विगत 19 वर्षों से अनवरत देव उठनी एकादशी के दिन राउत नाचा महोत्सव का आयोजन होता आ रहा है जो अपनी भव्यता एवं अनुपम छठा के कारण राष्ट्रीय ख्याति अर्जित कर चुका है।
कोसरिया यादवों के सामाजिक भवन में मंदिर हर जिले में एवं ब्लाक में है। इनमें गोत्रों की संख्या 100-125 है। ये यादव, यदु, यदुवंशी, राउत, गोपाल, अहीर आदि उपनामों का प्रयोग करते है। 
शाकाहारी इस वर्ग में दहेज प्रथा नहीं है तथा अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन नहीं दिया जाता है। मूल-भटक जाने की स्थिति में विजातीय बहु को घर में होने वाले सामाजिक कार्यों में सम्मिलित नहीं करते हैं। इसे लौड़ी दाखिल कहते हैं सभी वर्गों में वैवाहिक संबंध स्थापित करने की छूट है मृत संस्कार ऐच्छिक रूप से 3 से 10 दिनों में होता है।
छत्तीसगढ़ का इतिहास
छत्तीसगढ़ प्राचीनकाल के दक्षिण कोशल का एक हिस्सा है और इसका इतिहास पौराणिक काल तक पीछे की ओर चला जाता है। पौराणिक काल का 'कोशल' प्रदेश, कालान्तर में 'उत्तर कोशल' और 'दक्षिण कोशल' नाम से दो भागों में विभक्त हो गया था यही 'दक्षिण कोशल' वर्तमान छत्तीसगढ़ कहलाता है।
महाभारत काल में छत्तीसगढ़ में कृष्ण और अर्जुन आये थे युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के घोड़े की रक्षा करते हुए। पुराणों अनुसार महाभारत काल में हैहयवंश के राजा मयूरध्वज उस वक्त रायपुर में शासन करते थे, वे बहुत ही पराक्रमी और दानी राजा थे। ताम्रध्वज थे उनके पुत्र। ताम्रध्वज ने ही युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के घोड़े को पकड़ लिया था। इसी कारण अर्जुन और ताम्रध्वज के बीच में युद्ध हुआ। ताम्रध्वज को अर्जुन जब बहुत कोशिश के बाद भी हरा नही सके, तब अर्जुन ने कृष्ण से पूछा कि ऐसा क्यों हो रहा है। उत्तर में कृष्ण मुस्कुराये और फिर कहा कि मयूरध्वज कृष्ण के भक्त हैं और वे परम दानी होने के कारण पुण्यशाली भी हैं। इसीलिये मयूरध्वज भी अपराजित है । अर्जुन ने कहा कि वे देखना चाहते हैं कि मयूरध्वज कितना बड़ा भक्त है। कृष्ण और अर्जुन पहुँच गये मयूरध्वज के पास उनकी भक्ति और दानवीरता को परखने के लिये। कृष्ण ने राजा से उसका आधा शरीर मांगा। अर्जुन आश्चर्यचकित हो उठे जब उन्होंने देखा कि मयूरध्वज अपना आधा शरीर देने को तैयार हो गये। राजा ने आरा मंगवाया और आँखें मूंद कर बैठ गये। जैस ही लोग उन्हें आरे से काटने लगे, कृष्ण ने उन्हें रोक दिया और अपने परम भक्त को गले लगा लिया। पुराणों में भी यही कथा पाई जाती है।
छत्तीसगढ़ (रतनपुर और रायपुर) में कलचुरी शासक – 900 ई० से 1741 ई० तक छत्तीसगढ़ पर कलचुरी वंश का शासन रहा | कलचुरी –कल्ली और चुरी शब्द के मेल से बना है| कल्ली का अर्थ होता है – लम्बी मूंछे एवं चुरी का अर्थ होता है – तेज चाकू | विधर्मी ब्राह्मण परशुराम द्वारा हैहय यादवों की राजधानी महिष्मती को इक्कीस बार नष्ट करने पर, हैहय यादव कार्तवीर्य अर्जुन के वंशजों ने आस-पास के वनों में शरण ले लिया | छठी सदी के लगभग जिस हैहयवंशी राजा ने पुनः अवन्ती प्रदेश में अपने खोये हुए राज्य को स्थापित किया था, उनके मूंछ, दाढ़ी और नाख़ून जंगल में लम्बे समय तक रहने के कारण काफी लम्बे हो गए थे | इसलिए उनके वंशज कलचुरी कहलाये | इस वंश का प्रथम ज्ञात शासक कोक्ल्ल प्रथम था जो 845 ई. के लगभग सिंहासन पर बैठा । कोकल्लदेव के वंशज कलचुरी कहलाये | कलचुरी हैहयों की एक शाखा है | हैहयवंश ने रतनपुर एवं रायपुर में दसवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी तक शासन किया |
कोक्कल्ल के 18 पुत्र थे | ज्येष्ठ पुत्र शंकरगण उसके बाद त्रिपुरी की सिंहासन पर बैठा। उसने अपने 17 भाइयों को पृथक पृथक मंडलों का शासक नियुक्त किया | छोटे भाइयों में से एक के वंश में कलिंगराज हुआ | कलिंगराज ने दक्षिण कोसल जीता | उसने दक्षिण कोशल में कलचुरि राजवंश की एक नई शाखा की स्थापना की जिसकी राजधानी पहले तुम्माण और बाद में तृतीय नरेश रत्नदेव द्वारा स्थापित रत्नपुर थी। इस शाखा में नौ शासक हुए जिन्होंने 12वीं शताब्दी के अंत तक राज्य किया।
 कोक्कल के प्रथम पुत्र शंकरगण ने लगभग 900 ई० में कोशल के सोमवंशी नरेश से कोसल का प्रदेश छीन लिया1
कलचुरी शासक –
शंकरगण - लगभग 900 ई०
लक्ष्मनराज – 950 ई०
कलिंगराज – 1000 ई०
कमलराज और रत्नदेव – 1020 ई०
पृथिवीदेव – 1061 ई०
जाजल्लदेव – 1095 ई०
रत्नदेव II – 1127 ई०
कोकल्ल महाप्रतापी राजा थे, पर उनके वंशजों में जाजल्लदेव (प्रथम), रत्नदेव (द्वितीय) और पृथ्वीदेव (द्वितीय) के बारे में कहा जाता है कि वे न सिर्फ महापराक्रमी राजा थे, बल्कि छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक उन्नति के लिए भी चेष्टा की थी | जाजल्लदेव (प्रथम) ने अपना प्रभुत्व आज के विदर्भ, बंगाल, उड़ीसा आन्ध्रप्रदेश तक स्थापित कर लिया था। युद्धभूमि में यद्यपि उनका बहुत समय व्यतीत हुआ, परन्तु निर्माण कार्य भी करवाये थे । तालाब खुदवाया, मन्दिरों का निर्माण करवाया। उसके शासनकाल में सोने के सिक्के चलते थे - उसके नाम के सिक्के। ऐसा माना जाता है कि जाजल्लदेव विद्या और कला के प्रेमी थे, वे आध्यात्मिक थे। जाजल्लदेव के गुरु थे गोरखनाथ। गोरखनाथ के शिष्य परम्परा में भर्तृहरि और गोपीचन्द थे – जिसकी कथा आज भी छत्तीसगढ़ में गाई जाति है |
रतनदेव के बारे में ये कहा जाता है कि वे एक नवीन राजधानी की स्थापना की जिसका नाम रतनपुर रखा गया और जो बाद में के नाम से जाना गया। रतनदेव भी बहुत ही हिंसात्मक युद्धों में समय नष्ट की, पर विद्या और कला के प्रेमी थे। इसलिए उनके दरबार में विद्वानों की कद्र थी | रत्नदेव ने अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया और तलब खुदवाया | पृथ्वीदेव द्वितीय भी बड़े योद्धा थे और कला प्रेमी थे। उसके समय में सोने और ताँबे के सिक्के जारी किये गए थे|
कलचुरियों विद्वानों को प्रोत्साहन देकर उनका उत्साह बढ़ाया करते थे। राजशेखर जैसे विख्यात कवि उस समय थे। राजशेखर जी कि काव्य मीमांसा और कर्पूरमंजरी नाटक बहुत प्रसिद्ध हैं। कलचुरियों के समय में विद्वान कवियों को राजाश्रय प्राप्त था।
कलचुरि शासक शैव धर्म को मानते थे। उनका कुल शिव-उपासक होने के कारण उनका ताम्रपत्र हमेशा "ओम नम: शिवाय" से आरम्भ होता है। ऐसा कहा जाता है कलचुरियों ने दूसरों के धर्म में कभी बाधा नहीं डाली, कभी हस्तक्षेप नहीं किया। बौद्ध धर्म का प्रसार उनके शासनकाल में हुआ था।
कलचुरियों ने अनेक मंदिरों धर्मशालाओं का निर्माण करवाया। वैष्णव धर्म का प्रचार, रामानन्द ने भारतवर्ष में किया जिसका प्रसार छत्तीसगढ़ में हुआ। बैरागी दल का गठन रामानन्द ने किया जिसका नारा था –
"जात-पात पूछे नहीं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई" -
हैदय-वंश के अन्तिम काल के शासक में योग्यता और इच्छा-शक्ति न होने का कारण हैदय-शासन की दशा धीरे-धीरे बिगड़ती चली गयी और अन्त में सन् 1741 ई. में भोंसला सेनापति भास्कर पंत ने छत्तीसगढ़ पर आक्रमण कर हैदय शासक की शक्ति प्रतिष्ठा को नष्ट कर दिया।

मड़ई राऊत गीत दिपावली के समय गोवर्धन पूजा के दिन, कार्तिक शुक्ल देवोत्थान एकादशी से कार्तिक पूर्णिमा तक राऊत जाति के द्वारा गाया जाने वाला गीत है। यह वीर-रस से युक्त पौरुष प्रधान गीत है जिसमें लाठियो द्वारा युद्ध करते हुए गीत गाया जाता है। इसमें तुरंत दोहे बनाए जातें हैं और गोलाकार वत्त में धूमते हुए लाठी से युद्ध का अभ्यास करते है। सारे प्रसंग व नाम पौराणिक से लेकर तत्कालीन सामजिक / राजनीतिक विसंगतियों पर कटाक्ष करते हुए पौरुष प्रदर्शन करते है। रावत जाति का आराध्य कछान है । गांव के गौ-चरवाहे की पहचान रावत जाति देवोत्थान एकादशी को अपने कछान देव की आराधरन कर गांव के पशुओं के दुधारु, स्वस्थ होने के लिए प्रार्थना करता है और फिर जितने गांव के दुधारु गाय होते हैं उनमें सुहाई-फ्लाश की जड़ी की माला बांधते है । इस आशीर्वाद के साथ कि -
धन गोदानी भुइयां पावीं, पावीं हमर असीस,
नाती पूत ले घर भर जावे, जीवी लाख बरीस
चार महीना गाय चरायेन, खायेन मही के झोर,
आइस कार्तिक महिना लक्ष्मी, घूटेन तो बिहोर ।
रावत मड़ई के लिए विशेष सजते हैं - सिर पर लंबे धोती का रंगीन पगड़ी बांधते हैं । पगड़ी को सजाते हैं । मुंह में हल्दी, मुरदार शंख, पाउडर और चिकमिकी लगाते हैं । शरीर में रंगीन रावत बन्डी के उपर कौड़ियों से गूंथा जाकिट पहनते हैं । जाकिट में कौड़ियों की लंबी रस्सीनुमा झूल होते हैं । रंगीन धोती को घुटने तक पहनते हैं । घुंघरु के साथ पदवस्त्रा धरण करते हैं । रावत मड़ई के पूर्व सजे-धजे चितैरे दिखते हैं । नृत्य - ढोल का गद लगता है- ढि चांग, ढि चांग- रावत इसके स्वर में हो-हो-रे...ओ...का आवाज करता है, वात्य थम जाते हैं । रावत अपना दोहा सुनाता है -
ओलकी-कोलकी गाय चरावें, गाय के सिंग भारी ।
मालिक के घर जोहारे लागें, फुटहा कनौजी म बासी ।
दोहे के साथ ढोल ढि चांग, ढि चांग बजता है । मोहरी अपनी ताल भरता है । निसान गद देता है । झांझ झोंपा-झोंपा का ताल भरता है और रावत जो उसके दाहिने हाथ में होता है - जिस पर विभिन्न प्रकार के फूल और वनोपज के श्रृंगार होते हैं । उठा कर नाचता है । रावतों के बायें हाथ में ढाल होता है । इस ढाल में दो घंटियां होती हैं जो खड़-खड़ का आवाज करते हैं और दोहा के समय रावत इसे बजा कर अपनी बानगी रखता है ।
यादवी संस्कृति की अनूठी कृति है : सोहई
मनुष्य अपने रहन-सहन, खान-पान, साज-श्रृंगार के साथ ही पशु-पक्षियों को अपना सहयोगी बनाना, उसकी बोली, आदतों को समझने की कला भी आती है। यहाँ गाय, बैल, भैंस, भैंसा, बकरी को पशुधन व लक्ष्मी की संज्ञा दी गई है। इसी के अनुरुप गोधन की देखभाल करने वाले राऊत जाति के लोग सुरक्षा के साथ श्रृंगार का भी विशेष ध्यान रखते हैं। छत्तीसगढ़ में कृषकों के साथ बड़ी संख्या में राऊत जाति के लोग निवास करते हैं, वे अपने को कृष्ण के वंशज मानने के साथ यदुवंशी होने पर गर्व करते हैं। साथ ही गोचारण करना पवित्र कार्य मानते हैं। भले ही गोधन उनका न हो पर ग्राम के किसानों के पशुधन को ही अपनी पूंजी मानते हैं। इनका देखभाल, साज-श्रृंगार व वृद्धि होने की कामना सतत् रूप से करते रहते हैं। दीपावली के अवसर पर जब कृषकों की फसलें पकने लगती हैं तब वे अपनी संपन्नता से खुश होकर घर में लक्ष्मी आने व उसके स्वागत की कई तरह से जो पशुधन चराते हैं वे लोग गोधन के श्रृंगार के लिए सोहई बनाते हैं और विशेष परंपरा के साथ मालिकों के गाय, भैंस को पहनाते हैं।
परंपरा- द्वापर युग से प्रचलित परंपरा आज भी अपने मौलिक स्वरूप में लोगों द्वारा स्वीकार्य है। माना जाता है कि ग्वाल-बाल पशुओं को जंगल में चराने ले जाते थे। इस समय वे घास-फूस व वानस्पतिक सामग्रियों से गोधन के लिए श्रृंगार सामग्रियां बनाए होंगे। इसकी सुंदरता बढ़ाने के लिए मोर पंखों को भी लगाया गया होगा क्योंकि श्रीकृष्ण को मोर पंख बहुत पसंद था। मथुरा-वृंदावन क्षेत्र में मोर बहुतायत से पाए जाते हैं। इस तरह सोहई बनाने व पहनाने की शुरुआत हुई। सोहई का शाब्दिक अर्थ 'सुंदर दिखने वालाÓ है। छत्तीसगढ़ में इसे सोहई ही कहा जाता है।
निर्माण- सोहई बनाने के लिए पलाश की जड़ों को खोदकर सुखाई जाती है। फिर लकड़ी के कुटेले से कूटकर ढेरे से आंटकर या अंगुलियों के सहारे बल देकर लपेटा जाता है। इसे चिट्ठा में एकत्र कर जरूरत के अनुसार उपयोग किया जाता है। यह सफेद रंग का काम करता है। दूसरा रंग काला की रस्सी बनाने के लिए पटुआ या लटकना के रेशों को एक सप्ताह तक पानी में सड़ा कर छिला जाता है फिर हीराकसी व पैरी के छिलके को भीगो कर उबाला जाता है। सूखने पर ढेरे से ऐंठकर सोहई बनाने में उपयोग करते हैं। सुंदरता बढ़ाने के लिए मयूर पंख, रेशमी धागे, रंग-बिरंगे कपड़े व रंगों का उपयोग करते हैं। इसे राऊत जाति के लोग स्वयं पशु चराते समय कर लेते हैं या गाँव में जो कुशल लोग रहते हैं वे भी सोहई बना देते हैं। इसे गोधन के डील-डौल के हिसाब से पहनाई जाती है। सोहई हमारे प्रदेश का विशिष्ट लोक-शिल्प है। इसमें प्रयुक्त की गई सामग्रियाँ मोर पंख, पलाश, पटसन, रेशमी धागे यहां पवित्रता व मंगल के सूचक हैं। यह पूरी तरह से हस्त-निर्मित होता है।
प्रकार-सोहई मुख्य रूप से दो प्रकार की बनाई जाती है। पहली मोर पंख व रस्सियों के उपयोग से दो से लेकर सोलह लडिय़ों की बनाई जाती है। सजावट के लिए बीच-बीच में रंगीन कपड़े, ऊन के झालर लगाए जाते हैं। इसे भागड़ सोहई कहते हैं। दूसरे में बांख, पलाश की जड़ और पटसन के उपयोग से बनाई जाती है। यह सफेद रंग की होती है। सुंदरता के लिए काले रस्सियों का उपयोग किया जाता है। इसे पचेड़ी सोहई कहते हैं। इसके अलावा पलाश की जड़ों व पटसन को काले रंग से रंगकर करेलिया नाम से सोहई बनाते हैं। इसे भैंस व छोटे आकार की सोहई बकरियों को पहनाते हैं।
अवसर- राऊत लोग दशहरा मनाने के पूर्व पलाश की जड़ों की खोज व सामग्री तलाशते हैं। दीपावली के दूसरे दिन देवारी व गोवर्धन पूजा के दिन से गोधन को सोहई पहनाना प्रारंभ करते हैं। इसके बाद देवारी के दिन ही कुछ ग्वाले मालिक के घर गाजे-बाजे के साथ जाकर गाय-भैंस को सोहई बांधते व सुखधना थाप कर मालिक की सुख-समृद्धि की कामना करते हैं। परंपरानुसार देवारी, देवउठनी व पुन्नी पूर्णिमा के दिन सोहई बांधते हैं। राऊत लोग अपने आस्था के प्रतीक खोड़हर पर भी सोहई चढ़ाकर श्रद्धा व्यक्त करते हैं।
आशीष परंपरा- सोहई केवल गोधनों के लिए श्रृंगार सामग्री ही नहीं है अपितु यह राऊत समुदाय की संवेदनशीलता व दूसरों के सुखों की चाह का प्रतीक है। इसी बहाने वे अपने पशुधन मालिकों के सुख-समृद्धि की मंगल कामनाएं करते हैं। संध्या होते-होते वे क्रमश: अपने मालिकों के घर व गौशाला जाकर गोधन को सोहई पहनाकर आशीष देते हैं।

अनधन भंडार भरे, तुम जियो लाख बरिसा।

जइसन जइसन के लिये दिये, वइसन देबा आसीसा।

इस तरह सोहई यादवी शिल्प की अनूठी कृति होने के साथ ही लोक मानस को आशीर्वाद देने का पवित्र माध्यम है।

शिल्प समृद्धि- सोहई प्रतिवर्ष राऊत समुदाय द्वारा परंपरा से बनाई जाती है। बढ़ते भौतिकवाद, गोधन की कमी, ग्रामीण क्षेत्रों में चारागन सीमाओं की कमी, मालिकों के कम उत्साह के बावजूद गोचारकों द्वारा परंपरा व शिल्प समृद्धि के दृष्टि से सोहई बनाई जाती है। ग्राम डोंगीतराई के रिखी राम यादव ने बताया कि उनके पिता के जमाने में आसपास के राऊत अपनी-अपनी सोहई को उन्हें लाकर दिखाते थे जिसकी सोहई बुनावट सबसे सघन व एक समान होता था उसे काफी प्रशंसा मिलती थी। साथ ही अन्य लोगों को भी उसी तरह से बनाने के लिए कहा जाता था। दोनों भाइयों में भी एक तरह से प्रतियोगिता होती थी कि कौन अच्छी सोहई बनाता है। बेटों को अपनी जातिगत शिल्प-कला को समृद्ध करने के लिए ऐसी प्रतिस्पर्धा करना बड़ा सुखद लगता था। आज भी यादवों द्वारा सोहई को शिल्प के रूप में सतत रूप से समृद्ध किया जा रहा है, जो छत्तीसगढ़ के मांगलिक प्रतीकों की तरह प्रयुक्त होने लगा है। प्रदेश की कला-शिल्पों में अभिरुचि रखने वाले लोग अपने घरों में सजावट की वस्तु की तरह सहेज कर रखने लगे हैं। सोहई की कच्ची सामग्रियाँ काफी महंगी होती जा रही है पर इसमें रुचि रखने वाले इस समुदाय के लोग अभावों के बावजूद प्राथमिकता से गोधन के श्रृंगार व मालिक की सुख समृद्धि की पवित्र कामना को ध्यान रखते हुए सोहई का निर्माण करते हैं, जो इनकी शिल्प समृद्धि के प्रति प्रतिबद्धता को स्पष्ट करता है। इस शिल्प को समृद्ध करने की दृष्टि से जनसमुदाय में प्रादेशिक शिल्प के रूप में प्रचारित करने की आवश्यकता है।

छत्तीसगढ़ के प्रमुख यादव –
1.  आर. एल. एस. यादव – पूर्व डी.जी. पी., छत्तीसगढ़
2.  फूलबासन बाई यादव – पद्मश्री अवार्ड विजेता
3.  श्री हेमचन्द्र यादव – दुर्ग शहर से पूर्व भाजपा विधायक एवं रमण सिंह सरकार में पूर्व मंत्री

4.  श्रीमती सुनीति यादव – पर्यावरण संरक्षक एवं छत्तीसगढ़ में वन अधिकारी के.एस. यादव की पत्नी 
   मधुसुदन यादव - पूर्व सांसद, भाजपा


17 टिप्‍पणियां:

  1. आर. एल. एस. यादव (पूर्व डी.जी. पी.) छत्तीसगढ़ के यादव नहीं हैंl

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  2. आज समय आ गया है यादवो को अपनी राजनीतिक एकता स्थापित करने का।

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  3. उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं होने के कारण संगठन के महत्व को. ये नहीं समझते और सबसे पिछड़े हुए हैं।समाज में युवाओं की सहभागिता नहीं के बराबर हैं।समाज बेटी रोटी के निर्णय तक सीमित है।

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  4. कृपया कोसरिया,झेरिया और ठेठवार के जितने भी गोत्र है बताईये और इनकी कुल देवी कौन है कृपया यह भी बताइये

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  5. 1)कृपया कोसरिया,झेरिया और ठेठवार के जितने भी गोत्र है बता सकते हैं क्या?
    2)और इनकी कुल देवी कौन है क्या यह बता? सकते हैं क्या, या email कर सकते हैं क्या? प्लीज़! Email - renny988@gmail.com

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    1. Mera gotrra. Kalihaari Hain
      Aapko mere gotra ka me to batana humare taraf koi nahin hai sir

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    2. क्षमा। ग्रंथो मे लिखा है कि अपने गोत्र और कुलदेवी अपने निकट संबंधी से ही प्रकट करना चाहिए। अन्यथा महा हानि होती है। कुल और गोत्र की रक्षा के लिए ही देवियो और योगिनी की स्थापना की गई है अतएव इसे गुप्त रखना चाहिए। अपने समाज के संबंधियो को ही प्रकट करे ,किसी अनजान व्यक्तियो के समक्ष नही।
      अगर बात पढे लिखे व्यक्तित्व के संदर्भ मे है तो , गोत्र और कुलदेवी पूछने कोई आशय नही बनता।

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  6. केदार यादव ला कइसे भूला गे भैय्या हमर दुर्ग शहर के जउन अपन बेरा के प्रसिद्ध लोक गायक आए..

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  7. छत्तीसगढ़ में जितने भी यादव झेरिया, कोसरिया,देशह, कनोजिया ये यादव है वे कहा से आ के छत्तीसगढ़ में निवास किये थे

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  8. Smaaj ko aage badhaane k liye hame jaati waad se upar uthna hoga. Thik hai agar ham apne vanshajo k naam par seena fulakr ghumte hai lekin ab samay aisa hai ki in jati suchak se pehle insaan banne ki kosis ki jaaye aur antarjaatiyvivaah ko bi manyta di jaaye.

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  9. वर्तमान में श्री राजेन्द्र यादव प्रांतीय अध्यक्ष छत्तीसगढ़ राज्य यादव विकास परिषद कचना रायपुर कार्यरत हैं।

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  10. यादव गाथा पढ़ कर अच्छा लगाऐसे ही जानकारी आने वाले युवा पीढ़ी को मिलते रहना चाहिए । धन्यवाद ।

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  11. छत्तीसगढ में यादवों के इतिहास को जानकर अपने आपको बहुत गौरणवित महसूस कर रहा हूं। "जय यादव जय माधव"

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