यदुवंश कथा वर्णन :-
सृष्टि वर्णन
सहस्त्रों सिरवाले विराट पुरुष नारायण (विष्णु भगवान) के नाभि सरोवर से कमल के कर्णिका में बैठे हुए ब्रह्मा जी की उत्पति हुई. इसके पश्चात् जब विष्णु भगवान की शक्ति से संपन्न ब्रह्माजी ने सृष्टि के लिए संकल्प लिए, तब उनके दस पुत्र उत्पन्न हुए. उनके मन से मरीचि ऋषि, नेत्र से अत्रि, मुख से अंगिरा, कान से पुलस्त्य, नाभि से पुलह, हाथ से क्रतु, त्वचा से भृगु, प्राण से वशिष्ठ, अंगूठा से दक्ष तथा गोद से नारद मुनि उत्पन्न हुए.
सहस्त्रों सिरवाले विराट पुरुष नारायण (विष्णु भगवान) के नाभि सरोवर से कमल के कर्णिका में बैठे हुए ब्रह्मा जी की उत्पति हुई. इसके पश्चात् जब विष्णु भगवान की शक्ति से संपन्न ब्रह्माजी ने सृष्टि के लिए संकल्प लिए, तब उनके दस पुत्र उत्पन्न हुए. उनके मन से मरीचि ऋषि, नेत्र से अत्रि, मुख से अंगिरा, कान से पुलस्त्य, नाभि से पुलह, हाथ से क्रतु, त्वचा से भृगु, प्राण से वशिष्ठ, अंगूठा से दक्ष तथा गोद से नारद मुनि उत्पन्न हुए.
महर्षि अत्रि एक वैदिक सूक्तदृष्टा ऋषि थे। पुराणों के अनुसार इनका जन्म ब्रह्मा जी के नेत्र या मस्तक से हुआ था। सप्तर्षियों में महर्षि अत्रि की भी गणना होती है। वैवस्वत मन्वन्तर में अत्रि एक प्रजापति थे। इनकी पत्नी कर्दम प्रजापति और देवहूति की पुत्री थीं और उनका नाम अनुसुया था. महर्षि अत्रि अपने नाम के अनुसार त्रिगुणातीत परम भक्त थे, वैसे ही अनुसूया भी भक्ति मती थी. वे चित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे. इस दम्पति को जब ब्रह्मा जी ने कहा कि सृष्टिवर्द्धन करो तो इन्होने सृष्टिवर्द्धन करने से पहले तपस्या करने का निश्चय किया और घोर तपस्या की. श्रद्धापूर्वक दीर्घकाल तक निरंतर साधना और प्रेम से आकृष्ट होकर ब्रह्मा विष्णु महेश तीनों ही देवता प्रत्यक्ष उपस्थित हुए और वरदान मांगने को कहा. ब्रह्मा की आज्ञा सृष्टिवर्द्धन की थी और वे सामने खड़े थे. तब इन्होने कोई और वरदान न मांगकर उन्ही तीनों को पुत्र रूप में माँगा. त्रिदेवों ने इनकी प्रार्थना स्वीकार करते हुए 'एवमस्तु" कहा और समय पर इनके पुत्र के रूप में अवतार ग्रहण किया. विष्णु के रूप में "दत्रात्रेय", ब्रह्मा के अंश से "चंद्रमा", और भगवान् शंकर के अंश से "दुर्वाषा" का जन्म हुआ.
ब्रह्माजी के पुत्र अत्रि के नेत्रों से अमृतमय चन्द्रमा का जन्म हुआ, जिसके वंशज चंद्रवंशी क्षत्रिय कहलाये.
चन्द्र वंश
- चन्द्रमा – तारा
- बुद्ध – ईला
- पुरुरवा – उर्वशी
उर्वशी के गर्भ से पुरुरवा के छह पुत्र हुए – आयु, श्रुतायु, सत्यायु, रय, विजय और जय. विजय का पुत्र था भीम, भीम का कांचन, कांचन का होत्र और होत्र का पुत्र था जन्हु, ये जन्हु वही थे, जो गंगा जी को अपनी अंजलि में लेकर पी गए थे. जन्हु का पुत्र था पुरु, पुरु का बलाक, बलाक का अजक और अजक का कुश था.
कुश के चार पुत्र थे – कुशाम्बु, तनय, वसु और कुशनाभ. इनमें से कुशाम्बु के पुत्र गाधि हुए. गाधि के पुत्र थे परम तेजस्वी विश्वामित्र जी.
गाधि की एक कन्या थी जिनका नाम सत्यवती था. सत्यवती का विवाह ऋचीक ऋषि से हुआ. सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि ऋषि का जन्म हुआ. जमदग्नि ऋषि के कनिष्ठ पुत्र थे परशुराम. परशुराम के जन्म से पहले ही जमदग्नि ऋषि ने सत्यवती को बता दिया था की तुम्हारा कनिष्ठ पुत्र परशुराम अब्राह्मण, हत्यारा एवं जनसंहारक होगा| क्षत्रीहंता परशुराम ने ही बहाना बनाकर अकारण इक्कीस बार महिष्मती पर आक्रमण किया तथा हैहय वंश का संहार किया था.
- आयु – प्रभा
राजेंद्र पुरुरवा के पुत्र आयु ने ही मथुरा नगर का स्थापना किया था. आयु का विवाह सरभानु (राहु) की पुत्री प्रभा से हुआ. प्रभा के गर्भ से आयु के पांच पुत्र हुए- नहुष, क्षत्रवृद्ध, रजि, रम्भ और अनेना.
क्षत्रवृद्ध के पुत्र थे – सुहोत्र. सुहोत्र के तीन पुत्र हुए – काश्य, कुश और गृत्समद. गृत्समद के पुत्र हुए शुनक. इसी शुनक के पुत्र ऋगवेदियों में श्रेष्ठ मुनिवर शौनक जी हुए. काश्य के पुत्र काशी, काशी का राष्ट्र, राष्ट्र का दीर्घतमा और दीर्घतमा के धन्वन्तरी हुए. यही आयुर्वेद के प्रवर्तक थे.
- नहुष – ब्रजकुमारी
नहुष अत्यंत प्रतापी तथा चक्रवर्ती सम्राट थे. दशम देवासुर युद्ध में देवराज इंद्र ने त्रिशिरा नामक ब्राहमण का वध कर दिया था. ब्रह्म हत्या के पाप के भय से इंद्र किसी अज्ञात स्थान पर छिप गया था. इंद्र के अनुपस्थिति में स्वर्गलोक के देवताओं ने महाधिराज नहुष को अपना राजा चुना था. चक्रवर्ती सम्राट नहुष को ब्रजकुमारी के गर्भ से यति, ययाति, संयाति, आयति, वियति और कृति नामक छह पुत्र हुए. यति सन्यासी हो गए. अतः उनके स्थान पर नहुष के दूसरे पुत्र ययाति राजगद्दी पर बैठे.
- ययाति – देवयानी एवं शर्मिष्ठा
ययाति के देवयानी के गर्भ से – यदु और तुर्वसु तथा शर्मिष्ठा से द्रुह्यु, अनु एवं पुरु नामक पुत्र हुए. ययाति के पांच पुत्रों को ऋग्वेद में पांचजन्य कहा गया है | पुराणों में उल्लेख है कि ययाति अपने बड़े लड़के यदु से रुष्ट हो गया था और उसे शाप दिया था कि यदु या उसके लड़कों को राजपद प्राप्त करने का सौभाग्य न प्राप्त होगा (हरिवंश पुराण, 1,30,29) । ययाति सबसे छोटे बेटे पुरू को बहुत अधिक चाहता था और उसी को उसने राज्य देने का विचार प्रकट किया । परन्तु राजा के सभासदों ने ज्येष्ठ पुत्र के रहते हुए इस कार्य का विरोध किया (महाभारत, 1,85,32) ।
यदु ने पुरू पक्ष का समर्थन किया और स्वयं राज्य लेने से इंकार कर दिया । इस पर पुरू को राजा घोषित किया गया और वह प्रतिष्ठान की मुख्य शाखा का शासक हुआ । उसके वंशज पौरव कहलाये । अन्य चारों भाइयों को जो प्रदेश दिये गये उनका विवरण इस प्रकार है- यदु को चर्मरावती अथवा चर्मण्वती ( चंबल ), बेत्रवती ( बेतवा ) और शुक्तिमती ( केन ) का तटवर्ती प्रदेश मिला । तुर्वसु को प्रतिष्ठान के दक्षिण-पूर्व का भू-भाग मिला और द्रुह्य को उत्तर-पश्चिम का । गंगा-यमुना दो-आब का उत्तरी भाग तथा उसके पूर्व का कुछ प्रदेश जिसकी सीमा अयोध्या राज्य से मिलती थी अनु के हिस्से में आया । यदु से यादव, तुर्वसु से यवन, दु्ह्मु से भोज तथा अनु से म्लेच्छ जातियों का आर्विभाव होने का उल्लेख महाभारत में है ।* यदु अपने सब भाइयों में पराक्रमी था । यदु के वंशज `यादव` नाम से प्रसिद्ध हुए । यादवों ने कुछ समय पश्चात अपने केन्द्र दशार्ण, अवन्ती, विदर्भ, माहिष्मती [4] मथुरा और द्वारिका में स्थापित किये | भीम सास्वत के समय में यादव- शक्ति के मुख्य केन्द्र बन गये । शाल्व देश ( वर्तमान आबू तथा उसके पड़ोस का प्रदेश ) भी यादवों के राज्य में रहा, जिसकी राजधानी पर्णाश नदी ( आधुनिक बनारस ) के किनारे पर 'मार्तिकावत' में बनायी गई । दूसरे राजाओं से यादवों की तनातनी रही । क्षत्रवृद्ध ( पुरूरवा का पौत्र , आयु का पुत्र ) ने काशी में एक राज्य की स्थापना की ।
यदु वंश
- यदु -
चंद्रवंशी महाराजा यदु के वंशज यादव कहलाते है| यदुकुल भारतीय इतिहास के सब से लंबे लिखित इतिहास वाले कुलो मे एक है | पौराणिक ग्रन्थ महाभारत के महानायक भगवान श्री कृष्ण इस कुल के सब से अधिक प्रसिद्ध सदस्य है | वेद और पुराणों मे यादव जाति को पवित्र कहा गया है । श्रीमदभागवत महापुराण मे कहा गया है कि यादव के नाम लेने से ही सभी पाप मिट जाते है ।
श्री सुकदेव मुनि के कथनानुसार यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करनेवाला है. जो मनुष्य इसका श्रवण करेगा वह समस्त पापों से मुक्त हो जायेगा. क्योंकि इसी पवित्र वंश में भगवान श्री कृष्ण जी ने जन्म लिए थे.
कहा जाता है की जब महाराज ययाति ने अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु को कहा – बेटा! तुम अपना यौवन मुझे दे दो तथा अपने नाना का दिया हुआ यह बुढ़ापा तुम स्वीकार कर लो. तब यदु ने अपने पिता का यह आदेश मानने से इंकार कर दिया था. किद्वंती है कि इससे कुपित होकर ययाति ने कहा तुम अपने साथ चंद्रकुल का नाम नहीं जोड़ सकते. इसलिए यदु ने अपने वंशजों को यह आदेश दिया कि वे अपने कुल के साथ उसके नाम का उपयोग करें, यहीं से यदुवंश का उदय हुआ.
यदु के चार पुत्र थे – (I) सहस्त्रजित, (II) क्रोष्टा, (III) नल और (IV) रिपु.
हैहय वंश
यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्त्रजित के पुत्र का नाम शतजित था. शतजित के तीन पुत्र थे – महाहय, वेणुहय तथा हैहय. इसी हैहय के नाम पर हैहय वंश का उदय हुआ. हैहय का पुत्र धर्म, धर्म का नेत्र, नेत्र का कुंती, कुन्ति का सहजित, सहजित का पुत्र महिष्मान हुआ, जिसने महिष्मतिपुरी को बसाया | महिष्मान का पुत्र भद्रश्रेन्य हुआ. भद्रश्रेन्य के दुर्दम और दुर्दम का पुत्र धनक हुआ | धनक के चार पुत्र हुए – कृतवीर्य, कृताग्नी, कृतवर्मा और कृतौना. कृतवीर्य का पुत्र अर्जुन था। अजुर्न ख्यातिप्रात एकछत्र सम्राट था। वह सातों द्वीप का एकछत्र सम्राट था। उसे कार्तवीर्य अर्जुन और सहस्त्रबाहु अर्जुन भी कहते थे।
कार्तवीर्य अर्जुन
उनकी राजधानी दक्षिणापथ में नर्मदा नदी के किनारे महिष्मती थी. वह परम वीर तथा एक श्रेष्ठ क्षत्रिय था. उसने वर्षों तक घोर तपस्या करके भगवान नारायण के अंशावतार दत्तात्रेयजी को प्रसन्न कर लिया और इस तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान दत्तात्रेय ने उसे वर मांगने को कहा तो उसने चार वर मांगे थे – पहला- “ युद्धरत होने पर मेरी सहस्त्र भुजाएं हो जाये”, दूसरा – “यदि कभी मैं अधर्म कार्य में प्रवृत्त हो जाऊ तो वहां साधू पुरुष आकर रोक दे”, तीसरा- मैं युद्ध के द्वारा पृथ्वी को जीतकर धर्म का पालन करते हुए प्रजा को प्रसन्न रखूं”, चौथा वर इसप्रकार था – “मैं बहुत से संग्राम करके सहस्त्रों शत्रुओं को मौत का घाट उतारकर संग्राम के मध्य अपने से अधिक शक्तिशाली द्वारा वध को प्राप्त होऊं”. साथ ही इन्द्रियों का अबाध बल, अतुल सम्पति, तेजस्विता, वीरता, कीर्ति और शारीरिक बल भी उसने उनकी कृपा से प्राप्त कर लिए थे. वह योगेश्वर हो गया था. उसमें ऐसा ऐश्वर्य था कि वह सूक्ष्म से सूक्ष्म और स्थूल से स्थूल रूप धारण कर लेता.
इन चार वरदानो के फल्स्वरूप् युद्ध की कल्पना मात्र से अर्जुन के एक सहस्त्र भुजाएं प्रकट हो जाती थी। उनके बलपर उसने सहस्त्रो शत्रुओ को मौत के घाट उतार कर द्वीप, समुद्र और नगरो सहित पृथ्वी को युद्ध के द्वारा जीत लिया था। संसार का कोई भी सम्राट पराक्रम, विजय, यज्ञ, दान, तपस्या , योग, शास्त्रज्ञान आदि गुणो मे कार्तवीर्य अर्जुन की बराबरी नही कर सकता था। वह योगी था इसलिए ढाल-तलवार,धनुष-वाण और रथ लिए सातो द्वीपों में प्रजा की रक्षा हेतु सदा विचरता दिखाई देता था। वह यज्ञो और खेतों की रक्षा करता था। अपने योग-बल से मेघ बनकर अवश्यकतानुसार वर्षा कर लेता था। उसके राज्य मे कभी कोइ चीज नष्ट नही होती थी । प्रजा सब प्रकार से खुशहाल थी।
एकबार सहस्त्रबाहु अर्जुन बहुत से सुन्दर स्त्रियों के साथ नर्मदा नदी में जलविहार कर रहा था. उस समय मदोन्मत सहस्त्रबाहु ने अपनी बाँहों से नदी का प्रवाह रोक दिया | दशमुख रावण का शिविर भी वहीँ कहीं पास में था | नदी का धरा उलटी बहने से रावण का शिविर बहने लगा | रावण अपने को बहुत बड़ा वीर तो मानता ही था , इसलिये सहस्त्रार्जुन का यह पराक्रम उससे सहन नहीं हुआ | जब रावण सहस्त्रबाहु अर्जुन के पास जाकर उसे भला-बुरा कहने लगा, तब उसने स्त्रियों के सामने ही खेल –खेल में रावण को पकड़ लिया तथा महिष्मती ले जाकर कैद कर दिया | पीछे रावण के दादा पुलस्त्य जी के कहने से उसे छोड़ दिया.
कार्तवीर्य अर्जुन पचासी हजार वर्षो तक सब प्रकार के रत्नो से संपन्न चक्रवर्ती सम्राट रहा तथा अक्षय विषयो का भोग करता रहा। इस बीच न तो उसका बल क्षीण हुआ और न हि उसके धन का नाश हुआ। उसके धन के नाश की तो बात ही क्या, उसका यैसा प्रभाव था कि उसके स्मरण मात्र से ही दूसरो का खोया हुआ धन मिल जाता था। एक बार भूखे - प्यासे अग्निदेव ने राजा अर्जुन से भिक्षा मागी। तब उस वीर ने अपना सारा राज्य अग्निदेव को भिक्षा मे दे दिया। भिक्षा पाकर अग्निदेव अर्जुन की सहायता से उसके सारे राज्य के पर्वतो, वनो आदि को जला दिया। उन्होने आपव नाम से विख्यात महर्षि वसिष्ठ का सूना आश्रम भी जला दिया। महर्षि वसिष्ठ का सूना आश्रम जला दिया गाय था, इसलिये उन्होने सहस्त्राजुन को शाप दे दिया- " हैहय! तुने मेरे इस आश्रम को भी जलाये बिना न छोडा, तुझे दूसरा वीर पराजित करके मौत के घाट उतार देगा"। दत्तात्रेय ने भी उसे इस प्रकार की मृत्यु का वरदान दिया था।
एकदिन अर्जुन शिकार खेलने के लिए बड़े घोर जंगल में निकल गया था तथा वह जमदग्नि ऋषि के आश्रम पर जा पंहुचा | जमदग्नि मुनि के आश्रम में कामधेनु रहती थी | उसके प्रताप से उन्होंने सेना, मंत्री और वाहनों के साथ हैहयाधिपति का खूब सत्कार किया | दैववश लालच में आकर उन्होंने जमदग्नि मुनि का कामधेनु चुरा लिया| जब जमदग्नि मुनि के कनिष्ठ पुत्र परसुराम जी को यह घटना की जानकारी हुई तब उन्होंने महिष्मती पर आक्रमण करके कार्तवीर्यकुमार अर्जुन का वध कर दिया। इस घटना को निमित बनाकर परशुराम ने इक्कीस बार हैहयों के राजधानी महिष्मती पर आक्रमण किया|
सहस्त्रबाहु अर्जुन के हजारों पुत्रों में से केवल पांच ही जीवित रहे। शेष सब परशुराम जी की क्रोधाग्नि में भस्म हो गए। बचे हुए पुत्रों के नाम थे- जयध्वज, शुर, शूरसेन, वृषसेन, और मधु ।
जयध्वज के पुत्र का नाम था तालजंघ। तालजंघ के सौ पुत्र हुए। वे 'तालजंघ' नामक क्षत्रिय कहलाए।
जयध्वज के पुत्र का नाम था तालजंघ। तालजंघ के सौ पुत्र हुए। वे 'तालजंघ' नामक क्षत्रिय कहलाए।
महर्षि और्व की शक्ति से राजा सगर ने उनका संहार कर डाला। उन सौ पुत्रों में वीतिहोत्र सबसे बड़ा था और दूसरा भरत था | भरत का पुत्र वृष और वृष का पुत्र मधु हुआ |
मधु के सौ पुत्र थे। उनमें सबसे बड़ा था वृष्णि। इन्हीं मधु, वृष्णि और यदु के कारण यह वंश माधव, वार्ष्णेय और यादव के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
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जयध्वज
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तालजंघ
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वीतिहोत्र
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मधु |
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वृष्णि |
जयध्वज
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तालजंघ
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वीतिहोत्र
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मधु |
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वृष्णि |
हैहय कुल में वीतिहोत्र, भोज, अवन्ति, तोंडीकेर, तालजंघ, भरत आदि क्षत्रिय समुदाय उत्पन्न हुए| इनकी संख्या बहुत ज्यादा है इसलिए इनके अलग-अलग नाम नहीं बताये गए| वृष आदि पुन्य आत्मा भी इस धरा पर उत्पन्न हुए | वृष के पुत्र मधु थे | मधु के वंशज माधव कहलाए |
क्रोष्टा वंश
- क्रोष्टा - यदु के बाद उनके दूसरे पुत्र क्रोष्टा राजगद्दी पर बैठे | उनके वंशज क्रोष्टा यादव कहलाये|
- ध्वजिनीवान
- स्वाति
- रुशेकू (उशिनक)
- चित्ररथ
- शशिबिन्दु – शशिबिन्दु चौदह महा रत्नों का स्वामी तथा एक चक्रवर्ती राजा थे | वह परम योगी, महान भोगैश्वर्यसम्पन्न और अत्यंत पराक्रमी थे | वह श्री राम के दादाजी तथा राजा दशरथ के पिता राजा मान्धाता के समकालीन थे | शशबिन्दु की बेटी बिन्दुमती का विवाह राजा मान्धाता के संग हुआ था | परम यशस्वी राजा शशबिन्दु के दस हज़ार पत्नियाँ थी | उनमें से एक एक के लाख लाख संतान हुई थी | उनमे पृथुश्रवा आदि छः पुत्र प्रधान थे |
- पृथुश्रवा
- धर्मं (पृथुतम)
- उशना – उसने सौ अश्वमेघ यज्ञ किये थे |
- रुचक
- ज्यामघ
- विदर्भ – इन्हीं के नाम पर इनके वंशज विदर्भवंशी कहलाये | इन्होने ने दक्षिण भारत में विदर्भ राज्य की स्थापना की| शैब्या के गर्भ से इन्हें तीन पुत्र हुए – कैशिक, क्रथ और रोमपाद | महाभारत काल में विदर्भ देश में भीष्मक नामक एक बड़े यशस्वी राजा थे | उनके रुक्म, रुक्मरथ, रुक्मवाहु, रुक्मेश और रुक्ममाली नामक पाँच पुत्र थे और रुक्मिणी नामक एक पुत्री भी थी | महाराज भीष्मक के घर नारद आदि महात्माजनों का आना - जाना रहता था | महात्माजन प्रायः भगवान श्रीकृष्ण के रूप-रंग, पराक्रम, गुण, सौन्दर्य, लक्ष्मी वैभव आदि की प्रशंसा किया करते थे | राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी का विवाह श्री कृष्ण से हुआ था |
रोमपाद विदर्भ वंश में बहुत ही श्रेष्ठ हुए | उनकी वंशावली इस प्रकार है -
रोमपाद
↓
बभ्रु
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कृति
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उशिक
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चेदि – (चेदी वंश)
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दमघोष
चेदिराज दमघोष का विवाह श्री कृष्ण की बुआ श्रुतश्रवा के साथ हुआ था |
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शिशुपाल
- क्रथ
- कुंती (कृति)
- धृष्टि
- निवृति
- दर्शाह – इनके वंशज दर्शाह यादव कहलाये|
- ब्योम
- भीम
- जीमूत
- विकृति
- भीमरथ
- नवरथ
- दशरथ
- शकुनी
- करम्भी
- देवरात
- देवक्षत्र
- मधु
- कुरुवश
- अनु
- पुरुहोत्र
- आयु
- सात्वत –
सात्वत के सात पुत्र हुए – भजी, भजमान, देवावृध, दिव्य, वृष्णि, अन्धक और महाभोज| भजमान की दो पत्नियाँ थी | एक से तीन पुत्र तीन पुत्र हुए – निम्नलोची, किंकिनी और धृष्टि | दूसरी पत्नी से भी तीन पुत्र हुए – शताजित, सहस्त्राजित और अयुताजित | देवावृध के पुत्र का नाम बभ्रु था |
सात्वत के पुत्रों में महाभोज भी बड़ा धर्मात्मा था | उसी के वंश में भोजवंशी यादव हुए | सात्वत के पुत्र अन्धक के वंश में परम प्रतापी राजा उग्रसेन का जन्म हुआ , जिनके पुत्र मथुरा नरेश कंस थे |
अन्धक वंश की वंशावली इसप्रकार है –
अन्धक – कुकुर – वह्नि (द्रशाणु) – विलोमा – कपोतरोमा – अनु – अन्धक – दुन्दुभि – अरिद्धोत – पुनर्वसु – आहुक | आहुक के दो पुत्र हुए – उग्रसेन और देवक |
उग्रसेन यदु, भोज तथा अन्धक वंश के अधिनायक तथा सुरसेन देश के राजा थे | उनके पुत्र का नाम कंस था, जिनका वध श्री कृष्ण के हाथों हुआ | महाराज उग्रसेन के भ्राता देवक की पुत्री का नाम देवकी था, जिनका विवाह राजा शूरसेन के पुत्र वसुदेव जी के साथ हुआ था | देवकी माता के गर्भ से साक्षात भगवान श्री कृष्ण का जन्म हुआ था |
सात्वत के ही पुत्र वृष्णि के वंश में भगवन श्री कृष्ण का जन्म हुआ था | इसलिये श्री कृष्ण को वार्ष्णेय भी कहा गया है |
- वृष्णि
वृष्णि के तीन पुत्र हुए – सुमित्र, युधाजित और देवमीढ़ |
युधाजित के पुत्र का नाम अनमित्र था | अनमित्र के भी तीन पुत्र थे – निम्न, शिनि और वृष्णि | निम्न के पुत्र का नाम सत्राजित और प्रसेन था |
शिनि के पुत्र थे – सत्यक और सत्यक के पुत्र युयुधान हुए, जिन्हें सात्यिकी भी कहा जाता था | सात्यिकी के पुत्र जय , जय के कुणी और कुणी के पुत्र युगंधर हुए |
अनमित्र के तीसरे पुत्र वृष्णि के दो पुत्र हुए – स्वफलक और चित्ररथ| स्वफल्क को गान्दिनी के द्वारा अक्रूर नामक पुत्र हुआ | अक्रूर महान धर्मात्मा पुरुष था | अक्रूर के दो पुत्र थे – देववाण और उपदेव |
चित्ररथ के पुत्र का नाम विदुरथ, विदुरथ के पुत्र का नाम शुर, शुर का भजमान, भजमान का शिनि, शिनि का स्वयम्भोज, तथा स्वयम्भोज के पुत्र का नाम हृदिक था | हृदिक के तीन पुत्र थे – देवबाहू, शतधन्वा और कृतवर्मा |
- देवमीढ़ – इनकी दो रानियाँ थी – मदिषा और वैष्यवर्णा | मदिषा के गर्भ से शूरसेन और वैश्यवर्णा के गर्भ से पार्जन्य का जन्म हुआ |
- शूरसेन –शूरसेन की पत्नी का नाम मारिषा था | उन्होंने उनके गर्भ से दस निष्पाप पुत्र उत्पन्न किये - वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सृंजय, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक, और वृक | ये सब के सब बड़े पुण्यात्मा थे | राजा शूरसेन के पांच पुत्रियाँ भी थी – पृथा (कुंती), श्रुतदेवा, श्रुतकृति, श्रुतश्रवा और राजाधिदेवी |
राजा शूरसेन ने अपनी पुत्री पृथा को अपने बुआ के निःसंतान पुत्र राजा कुंतीभोज को गोद दे दिया था | वसुदेव के भाई देवभाग के पुत्र का नाम उद्धव था, जो अत्यंत ज्ञानी एवं धर्मज्ञ पुरुष थे |
शूरसेन के भाई पार्जन्य के नौ पुत्र थे – उपानंद, अभिनंद, नन्द, सुनंद, कर्मानंद, धर्मानंद, धरानंद, धुव्रनंद और वल्लभ | इस प्रकार नन्द बाबा ‘पार्जन्य’ के तीसरे पुत्र थे तथा वसुदेव जी के चचेरे भाई थे| नंदबाबा की बाद की पीढियाँ ही नंदवंशी कहलाये | ‘भागवत पुराण’ के अनुसार ‘नंदबाबा’ के पास नौ लाख गायें थी | उनकी बड़ी ख्याति थी और वे गोकुल एवं नन्द गाँव के संरक्षक थे |
- वसुदेव – देवकी
माता देवकी के गर्भ में भगवान श्री कृष्ण
वसुदेव का विवाह मथुरा नरेश कंस की बहन देवकी के संग हुआ, जिससे यदुकुल शिरोमणि श्री कृष्ण का जन्म हुआ | वसुदेव जी के दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ से बलराम जी का जन्म हुआ | वसुदेवजी को ‘आनक दुन्दुभि’ भी कहा गया है | बलरामजी का विवाह आनर्त देश के राजा रैवत की कन्या रेवती से हुआ |
वसुदेव, देवकी एवं मथुरा नरेश कंस (आकाशवाणी के बाद का दृश्य)
- श्री कृष्ण
वासुदेव श्री कृष्ण के आठ मुख्य पटरानियाँ और 16100 अन्य रानियाँ थी | उनकी आठ पटरानियों के नाम इसप्रकार है – रुक्मणि, सत्यभामा, जाम्बवती, सत्या, कालिंदी, लक्ष्मणा, मित्रविन्दा और भद्रा | भगवान श्री कृष्ण ने जब भौमासुर (नरकासुर) के बंदीगृह में बंदी 16100 राजकुमारियों को मुक्त कराया, तब उन सबका उद्धार करने के लिए उन सबका पाणिग्रहण किया|
रुक्मणि हरण
श्रीकृष्ण के पुत्रों के नाम
श्रीकृष्ण की सोलह हजार एक सौ आठ पत्नियाँ पत्नियाँ थीं। प्रत्येक पत्नी से उन्होंने दस दस पुत्र प्राप्त किये थे। इस प्रकार उनके समस्त पुत्रों की गिनती एक लाख इकसठ हजार अस्सी थी। उनके सभी पुत्रों का नाम बताना तो संभव नहीं है लेकिन उनकी आठ मुख्य रानियों के पुत्रों के नाम नीचे दिए हैं।
श्री कृष्ण जी अपने पटरानियों के साथ
- रुक्मिणी: प्रधुम्न, चारुदेष्ण, सुदेष्ण, चारुदेह, सुचारू, चरुगुप्त, भद्रचारू, चारुचंद्र, विचारू और चारू।
- सत्यभामा: भानु, सुभानु, स्वरभानु, प्रभानु, भानुमान, चंद्रभानु, वृहद्भानु, अतिभानु, श्रीभानु और प्रतिभानु।
- जाम्बवंती: साम्ब, सुमित्र, पुरुजित, शतजित, सहस्त्रजित, विजय, चित्रकेतु, वसुमान, द्रविड़ और क्रतु।
- सत्या: वीर, चन्द्र, अश्वसेन, चित्रगु, वेगवान, वृष, आम, शंकु, वसु और कुन्ति।
- कालिंदी: श्रुत, कवि, वृष, वीर, सुबाहु, भद्र, शांति, दर्श, पूर्णमास और सोमक।
- लक्ष्मणा: प्रघोष, गात्रवान, सिंह, बल, प्रबल, ऊर्ध्वग, महाशक्ति, सह, ओज और अपराजित।
- मित्रविन्दा: वृक, हर्ष, अनिल, गृध्र, वर्धन, अन्नाद, महांस, पावन, वह्नि और क्षुधि।
- भद्रा: संग्रामजित, वृहत्सेन, शूर, प्रहरण, अरिजित, जय, सुभद्र, वाम, आयु और सत्यक।
प्रधुम्न जी के पुत्र का नाम अनिरुद्ध था, जिनका विवाह बाणासुर की पुत्री उषा के साथ हुआ था | अनिरुद्ध के पुत्र का नाम ब्रज और खीर था |
यदुवंश संहार
- ब्रज
प्रभास क्षेत्र में जब दुर्वासा ऋषि एवं महारानी गांधारी के शाप के कारण आपसी कलह में यदुवंश का संहार हो गया, तब श्रीकृष्ण जी के प्रपोत्र एवं अनिरुद्ध जी के पुत्र ब्रज मथुरा के एवं खीर द्वारिका के राजा बने |
यदुवंश की जानकारी के लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद
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