सोमवार, 11 अगस्त 2014

Yadavas in Uttrakhand - उत्तराखंड में यादव

उत्तराखंड, कुमायूं व गढ़वाल में यादव

किरात हूणां घ्रा पुलिंदृ-पुलकसा आभीर कंका यवना : खासकाकदय:।
ये अन्ये च पापा यद्धपाश्रया भया: शुध्यन्ति तस्मै प्रभुविष्णवै नम:।।
स्कंद पुराण 2 अध्याय 4

अर्थात किरात, हूण, पुलिंद, आभीर, यवन खस व अन्य जातियों के पाप यादवों के आश्रय में रहने से शुद्ध हो जाते हैं उनके ऐसे प्रभाव को नमस्कार है।
हिमालय पर्वत मालाओं की गोद में मुगल-शासकों के अत्याचारों से पीडि़त मथुरा, मारवाड़ व राजस्थान आदि से पलायन कर उत्तराखंड की पावन भूमि पर जीविकोपार्जन हेतु आ बसे पर्वतीय अहीरों जो स्वयं को ऐर व महर घोषित करते हैं की आबादी सर्वाधिक है। कुमायूं क्षेत्र की कई प्राचीन लोककथाओं में वर्णित रमौल लोग जो स्वयं को भगवान श्रीकृष्ण तथा अन्य प्रसिद्ध यादव राजवंशों से संबद्ध बताते थे कभी रमौल गढ़ में रहा करते थे, यादव संस्कृति के केन्द्र मथुरा व ब्रज मंडल के गीतों व लोक संस्कृति की स्पष्ट छाप कुमायं खड़ी होली व अन्य गीतों में मिलती है। कुमांचल वासी आज भी भाद्रपद मास के अंत में गायों का त्यौहार व आश्विन संक्रांति को भैंसों की त्यौहार मना कर अपने पशु प्रेम को स्पष्ट उजागर करते हैं। अल्मोड़ा में ग्वाला (गोल्ल) देवता का मंदिर व ऐरी व घटाल भी पूजा उनके गोधन के प्रति अगाध स्नेह का अकाट्य प्रमाण है। एक समय पर्वतीय क्षेत्र में चंद नरेशों की राजधानी रह चुके चम्पावत क्षेत्र की गुमदेश  पट्टी व मंछ तामली क्षेत्र के कफल्टा, निगोड़ी रुइयां, दुबै, जमोला, ग्वाल्टी, खोलाकोट, बुढ़ाकोट, निची सिमली (घाट) आदि अन्यानेक गांवों में ऐर (अहीर) जाति के लोग रहते हैं। जिनकी जीविका कृषि व गोपालन पर पूर्णतया आधारित है। कृष्णवंशी अपने को ऐर तथा नंदवंशी नंद महर के नाम पर स्वयं को महर घोषित करते हैं। ऐरी व बुढ़ा ऐर इन से कुछ निम्न कोटि के होते हैं। राधाकृष्ण के मंदिरों को प्राय: ठाकुरा द्वारा कहे जाने के कारण इनमें से कुछ लोग स्वयं को यादव-ठाकुर भी बताते हैं।
यदुवंश, ग्वालवंश, आहुक, वृष्णि, सात्वत, माधव, अंधक, गोपाल व नंदवंश आदि में विभाजित नन्दयति जगत इतिनंद: के अनुसार जगत को समृद्धि प्रदान करने वाले महाराजा नंद अपनी नीतिज्ञता, विद्वता व शूरवीरता के लिए काफी विख्यात थे। उन्होंने कृष्ण को एक महान सेनानायक, युद्धवीर, रथ, संचालक, मल्लयोद्धा व कूटनीतिज्ञ बनाया व उनके वंशज अपने को नंद महर कहने लगे।
स्कंद पुराण की एक कथा के अनुसार नंदपूर्व जन्म में आठ वसुओं में वर्णित द्रोण थे जिन्हें ब्रह्मा ने गो वंश की रक्षार्थ पृथ्वी पर भेजा था। पत्नी धारा सहित ब्रह्मा से भगवान का साक्षात स्नेह पाने का वरदान लिए वे नंद व यशोदा के रुप में गोकुल में अवतरित हुए व यदुकुल शिरोमणि भगवान श्रीकृष्ण के लालन-पालन का सौभाग्य प्राप्त कर कंस की द्वेष पूर्ण राजनीति का अंत किया। एक करोड़ गायों के स्वामी होने के कारण गोकुल में सभी गोप व यादवों द्वारा नंद राजा के नाम से प्रसिद्ध थे। इन्हीं नंद महर के वंशज पर्वतीय ऐर (अहीर) स्वयं को क्षत्रिय मानते हुए उच्च कुल का घोषित करते हैं कुछ अपने को मथुरा तो कुछ भैरठाठ, बांसवांडा (राजस्थान) से आया बताते हैं। इनमें से कुछ लोग सेना में तथा शेष गांव में ही कृषि व गोपालन कर अपनी आजीविका चलाते हैं। लोहाघाट के टेक धौनी व तड़ागी आदि नंदवंशियों में शादी संबंध होते हैं, मह का अभिप्राय भैंस होने से भैंस पालने वाले महर कहलाये जाते हैं। गोबर बीनने वाले व उपले बनाने के कार्य में लगी महरी भी प्राय: इसी अर्थबोध को स्पष्ट करती हैं।
      कुमायूं में प्रचलित जनप्रतिनिधियों के अनुसार ऐर युद्ध का देवता था, ऐरी (ऐर) अर्थ भी कुमायूं में रात्रि कालिक ग्वालों के रूप में पूजा जाता है। व देव रुप में इसकी मान्यता है। अल्मोड़ा जनपद में ऐर देव के नाम से पवित्र वनश्रृंखला स्थित है। जिसकी पूजा की जाती है।
भाबर में धूप सेंकने के ध्येय से अपना शिविर लगाने वाले इन पर्वतीय ऐरों ने टनकपुर भाबर की उत्तर दिशा में अपने स्थायी आवास बना लिये हैं व उत्योल्ली गोठ व बरमदेव में काफी संख्या में ये लोग रहते है। एक समय ऐर गोठ की विपुल आबादी, हरी भरी वन संपदा व खुशहाली से परिपूर्ण थी। कृषि व पशुपालन के अतिरिक्त व्यापार पर भी उनका एकाधिकार था। अथाह चल-अचल संपत्ति के कारण आधे  टनकपुर पर यादवों के अधिकार की बात कभी कही जाती थी किन्तु शारदा नदी के कटान, चारागाहों की कमी व व्यापार में मंदी से उनकी दशा दयनीय हो गयी है।
उत्योल्ली गोठ में श्री गुमान सिंह कई वर्षों तक ग्राम सभापति रह चुके हैं। उनके पास कृषि योग्य भूमि बाग व भैंस आदि हैं। इसी गांव के श्री माधो सिंह महर अच्छे व्यवसायी हैं। श्री पूरन सिंह वकील के पेशे में लगे हैं। ग्राम ध्वाल  खेड़ा में भी दान सिंह, जगत सिंह, हायात सिंह खीम सिंह व नारायण सिंह महर आदि के परिवार प्रगति पर हैं।
इस पर्वतीय ऐरों की शैक्षणिक स्थिति दयनीय है। बाल-विवाह, मद्यपान, अंध विश्वास आदि सामाजिक कुरीतियों उन्हें ग्रसित किये हैं। देश व प्रदेश के एक कोने से उपेक्षित से पड़े इन नंद वंशी यादवों की यादव महासभा व नेताओं द्वारा कोई सुधि न लिए जाने के कारण ये उपेक्षित हैं। नाम के साथ यादव व अहीर उल्लिखित न होने के कारण शासन द्वारा पिछड़े वर्गों के लिए घोषित सुविधाओं का लाभ उन्हें अभी तक नहीं मिल पा रहा है ।

गढ़वाल में यादव - बदरी-केदार आदि धामों की पवित्र स्थली व वीर सैनिकों का गढ़ कहे जाने वाले गढ़वाल में भी यादव जाति बिखरी हुई सी है। पंजाब, हिमाचल प्रदेश व देहरादून के उत्तरी भाग में प्राचीन काल में सिहपुर व कत्र्तपुर नामक यादव राज्य थे। जौनसार भाबर स्थित लाखामण्डल क्षेत्र में मिले राजकुमारी ईस्वरा के प्राचीन अभिलेख सैहपुर के यादव राजाओं की विस्तृत वंशावली दी गई है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी सातवीं शती में अपने भारत भ्रमण में इन राजवंशों को बर्मन उपाधि दी है।
टिहरी नरेश द्वारा जारी आज्ञापत्र में काम्पिल्य व मथुरा आदि क्षेत्रों से पलायन कर सर्वप्रथम कफौला बिष्ट, कफोला रावत, कमीण, कण्डी, गोसाई आदि यदुवंशी क्षत्रियों ने कण्डाली गांव को आबाद किया, बाद में इनकी आबादी पौड़ी गढ़वाल के कफोलस्यू व बारहस्यू परगने व पट्टियों के अगरोड़ा, भौनी, केल्लारी, धारकोट, जयपुर, मरोडा, बूगा, बागर, टुनैला, रगरीगाड़, तिमली (चौकोट) धोड व मोसों आदि गांवों में फैलती गयी, टिहरी में बिस्ट पट्टी पर उनका एकाधिकार सा है। बडेलस्यूं, सितोस्यूं, वस्यू में क इन गांव यदुवंशियों क हैयाल इनकैथानी इन जाते हैं। क्षत्रियों के हैं क्षत्रियपाल इनके गुरु व नैथानी इनके पुरोहिता माने जाते हैं। असवाल, पटवाल, भण्डारी, बडथ्वाल व कुंवर आदि जातियां भी इनसे जुड़ी हैं। ज्वाल्पा देवी के दरबार में शीश नवाने वाले ये गढ़वाली यादव नृसिंह व भैरा आदि देवताओं की पूजा करते हैं।
कफोलस्यू पट्टी में स्थित अगरोड़ा के कफोला अपना एक विशिष्ट स्थान व पहिचान रखते हैं। बॉगर भी कफोलाओं का एक प्रसिद्ध गांव है। जहां ये काफी संख्या में निवास करते है। व अपनी मौलिकता में अधिक विश्वास रखते है। व असवाल, पढवाल, बर्थवाल व भंडारी आदि से अन्तरजातीय वैवाहिक संबंध रखते है। ऐतिहासिक रूप से टिहरी के पवार वंश से उकी प्रमुखता गिनी गयी है। कफोला शब्द का अर्थ चरवाहा जाति से लिया जाता है तथा ज्वाल्पा देवी में वे राजस्थान से आकर बसे हुए बताये जाते हैं। कफोला के संबंध चंदोला बिष्ट से भी होते हैं और वे उन्हें अपने क्षेत्रों में आश्रय प्रदान करते हैं।
कफोला थपलियाल को अपना गुरु स्वीकार करते हैं। भोज एवं बारात में गुरु का दिया गया प्रसाद वे बड़े ही सम्मान के साथ ग्रहण करतेहैं। गढ़वाल के कफोलस्यूं पट्टी व बारहस्यंू पट्टी में कफोला काफी संख्या में बसते हैं। 
गढ़वाल  मंडल के देहरादून जनपद में स्थित लाखा मंडल क्षेत्रों से प्राप्त रजकुमारी ईश्वरा के अभिलेख में सिंहपुर राज्य व उसके 12 यादव  (बर्मन) राजाओं का उल्लेख मिलता है। समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में भी उस यादव राज्य का उल्लेख मिलता है। चीनी यात्री ह्ववेनसांग ने सातवीं सदी की पूर्वाद्ध में अपनी भारत यात्रा में सिहपुर राज्य का वर्णन किया है।
वीर-प्रसविनी गढ़-देश की गढ़वाल छावनी में मातृभूमि की रक्षार्थ शहीद होने वाले यादव वीरों की संख्या कम नहीं है। कुमायूं रेजीमेंट की अहीर कम्पनी में यादव सैनिक भरे हुए हैं। चुशूल व रेजांगला की लड़ाई में इन यादव शूरमाओं ने अपने रणकौशल से काफी ख्याति अर्जित की थी व कई सैन्य पदक प्राप्त किये थे।
कुमायूं व गढ़वाल के विविध क्षेत्रों में बाहर के जनपदों से सरकारी सेवा व व्यापार आदि में अनगिनत यादव कार्यरत हैं व इस क्षेत्र को अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। किन्तु संगठन के अभाव में दूर-दूर बिखरे इन यादव-बंधुओं को एक सूत्र में पिरोने का कोई प्रयास नहीं किया गया है।
कुमायूं व गढ़वाल में यादव
हिमालय की ऊंची पर्वत मालाओं व निचली घाटियों से भरी देव-भूमि कहीं जाने वाली उत्तराखंड की पावन धरती गोरखों (गाय के रखवाले) के देश नेपाल का कभी एक अभिन्न अंग रही है। जहां धर्म की रक्षार्थ बाहर से आयी क्षत्रिय जातियों ने शरण लेकर कृषि व गोपालन व्यवसाय को अपनाया लेखक ने हिमालय के इस क्षेत्र का व्यापक भ्रमण कर यदुवंश से संबंधित विविध जातियों की शोधपूर्ण जानकारी संकलित कर यादव ज्योति के माध्यम से संपूर्ण यादव समाज व यादवसंगठन तक प्रेषित की है। लेखक इस कार्य के लिए बधाई का पात्र है।
कन्नाई भूडऩ में बनाई एक प्रमुख अहरा-राग-कन्नाई सूपों से उमड़ता कन्नाई गीत
बरसात की ठण्डी हवाओं या फिर कामकाज से फुरसत के दिनों में गांव की चौपालों में 'कन्नाई गायन’ रुहलेखण्ड सहित पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचलों की एक सांस्कृतिक पहचान रही है। चातुर्मास में तो कन्नाई गाना व सुनाना गंवई संस्कृति की एक धरोहर है, यद्यपि समय के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में सांस्कृतिक अभिरुचियों में परिवर्तन व श्रवय दृश्य साधनों का विस्तार अवश्य हुआ तथापि आज भी गांवों ने अपनी इस सांस्कृतिक धरोहर को विलुप्त होने से बचाये रखा है।
कन्नाई उत्तरप्रदेश के रुहलेखण्ड मंडल में मुख्यत: गंगा पार के क्षेत्रों में निवासरत यदुवंशियों यानि आभीर जाति के लोगों द्वारा प्रयुक्त एक पारम्परिक लोकगीत है जिसे गाने वाले वंशियां घोषी या हर बोले कहे जाते हैं। कन्नाई भूडऩ में बनाई के अनुसार जंगल या चारागाह में गाय भैंस चुगाते बरदिया ग्वाले किसी विशाल वृक्ष की शीतल छाया में कम्बल बिछाये या फिर सूरज ढलते ही अपने पशुओं को गोशाला में बांध दाना-पानी से निपट कानों पर अंगुली रख मस्ती से राग गाने लगते हैं उनके इस लंबे गीत की तान में भावों के उतार-चढ़ाव के साथ ही एक रोचक कथा भी गूथी मिलती है ऐसी गेय गाथाओं में धरती की आत्मा व मानव-मन की शांति भी छिपी होती है।
इस तरह कन्नाई-गीत रुहेलखण्डी लोक गीतों की एक ऐसी लोक विधा है जो इस क्षेत्र क आभीरों द्वारा सूप, कोरों का पत्ता गूंज या घोंघा की मदद से गाया जाता है। एक हाथ कान पर व दूसरा हाथ हवा में लहराते हुए कन्नाई गायक कभी मूंछों पर ताव देता पकडऩे लगता है तो कभी विजय श्री का वर्णन करते अपार खुशी से झूम उठता है। घोर कष्टों का प्रसंग आते ही उसके नैनों से जलधारा बह निकलती है। गायक और श्रोता दोनों ही इस लोक गायन में अटूट शौर्य, पराक्रम, मैत्री, ममता व पशुओं के प्रति अगाध प्रेम का मधुर स्पन्दन पाते हैं यही कारण है कि लिखित रूप में न होने पर भी एक विस्तृत क्षेत्र के लोक-मानस के मस्तिष्क में यह लोक गीत उतर सा गया है।
कन्नाई-गीतों में महाकाव्य की तरह मंगलाचरण होता है इसमें सरस्वती व गणेश के साथ ब्रह्मा, विष्णु व महेश की स्तुति होती है। भगवान श्रीकृष्ण को भी सम्मान दिया जाता है इसके अतिरिक्त आंचलिक देवी-देवता और आभीर जाति के कुल देवता भी स्तुति के पात्र होते हैं इसके बाद गाथा का प्रारंभ मूलकथा के वर्णन से शुरु होता है।
इन गीतों की प्रस्तुति के लिए कम से कम दो गायक और अधिक से अधिक 5-6 गायक होते हैं इनमें से एक प्रमुख गायक गीत (गाथा) के साथ अंगुलियां चलाते नाखूनों द्वारा सूप को उल्टा कर ध्वनि निकालते हुए विशिष्ट शैली और लोकधुन से गीतों को रुप देता है। दूसरा गायक अर्थात रागी (राग देने वाला सहयोगी) मूल गायक की बात को दोहराता हुआ सूप वादन में सहायक सिद्ध होता है। सूप उपलब्ध न होने पर कहीं-कहीं कोरों का पत्ता या घोंघा मुंह पर रखकर आवाज निकालते 'कन्नाई’ गाते हैं। जख, चोखली, शाका, सुरखा, छिलडिया, वंश, मोतीहंस आदि विविध लोकगीतों में कन्नाई गीत सर्वाधिक लोकप्रिय है।
कन्नाई लोक गायन की कोई एक शैली मात्र नहीं है बल्कि रुहेलखण्ड क्षेत्र के राजनीतिक, सामाजिक व सांस्कृतिक गौरव का एक जीता जागता ऐतिहासिक दस्तावेज है। यद्यपि, घटनाओं के घटनाक्रम अतिश्योक्ति वर्णन व लंबे समय तक लिपिबद्ध न होने से इसकी ऐतिहासिक प्रमाणिकता पर प्रश्न चिन्ह अवश्य लग गये हैं किन्तु इसमें संदेह नहीं कि कन्नाई रुहलेखण्ड क्षेत्र के गौरवमय अतीत की अमूल्य थाती है।
यह गेय परम्परा अनेक गायकों की थाती है। सभी गायकों ने अपनी मति, धुन व लय के अनुसार 'कन्नाई’ को अपने ही ढंग से गाकर नये-नये आयाम प्रस्तुत किये हैं। समय, साधन व रुचि के अनुरुप 'कन्नाई’ के जिस स्वरुप को गायकों व श्रोताओं ने पसंद किया, उसे ही खूब बढ़ा-चढ़ाकर गाया गया है किन्तु शरीर में स्पन्दन बाजुओं में फड़कन, रगो में जोश तथा रक्त में उबाल भर देने वाली यह गायन-परम्परा अपने समापन के कगार पर खड़ी है। आज के बदलते परिवेश में न तो इसकी कोई मांग ही है न ही लोक गायकों का सम्मान।
खेद का विषय है कि 'कन्नाई’ जैसी लोकप्रिय लोकगाथा के मंचन प्रदर्शन व प्रस्तुतीकरण की दिशा में आज तक कोई समुचित प्रयास नहीं किया गया है। अक्षर-ज्ञान से अनभिज्ञ 'कन्नाई’ गायक या हरबोले हीइस लोककथा के प्रमुख रक्षक कहे जा सकते हैं जिन्होंने शताब्दियों तक इसे अपने कण्ठों व स्मृति में इसे अक्षुण्य बनाये रखा है कि बिना किसी संकलन, मंचन या लेखन के लोगों की जबानों से होकर यह गेय-गाथा पीढ़ी-दर-पीढ़ी यात्रा करते हुए बागर बिलई सहित सम्पूर्ण क्षेत्र के लोक मानस के मनमस्तिष्क व कण्ठों में अपना स्थान बनाये हैं।


 ( साभार इन्टरनेट पर उपलब्ध यादव से सम्बंधित साहित्य, यथा- 'यदुकुल' आदि से ग्रहण किया गया है )

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