विजयनगर साम्राज्य
विजयनगर साम्राज्य - 15वीं सदी में
विजयनगर साम्राज्य (लगभग 1336 ई. से 1646 ई. तक) मध्यकालीन भारत का एक शक्तिशाली
हिन्दू साम्राज्य था। विजयनगर का शाब्दिक अर्थ है- 'जीत का शहर'। प्रायः
इस नगर को मध्ययुग का प्रथम हिन्दू साम्राज्य माना जाता है। 14 वीं शताब्दी
में उत्पन्न विजयनगर साम्राज्य को मध्ययुग और आधुनिक औपनिवेशिक काल के बीच का
संक्रान्ति-काल कहा जाता है। इस साम्राज्य की स्थापना 1336 ई.
में दक्षिण भारत में तुग़लक़ सत्ता के विरुद्ध होने वाले
राजनीतिक तथा सांस्कृतिक आन्दोलन के परिणामस्वरूप यादव वंश के भावना संगम के पुत्र हरिहर एवं बुक्का द्वारा तुंगभद्रा नदी के उत्तरी तट पर स्थित
अनेगुंडी दुर्ग के सम्मुख की गयी। अपने इस साहसिक कार्य में उन्हें ब्राह्मण विद्वान माधव विद्यारण्य तथा वेदों के प्रसिद्ध भाष्यकार 'सायण' से प्रेरणा
मिली। विजयनगर साम्राज्य का नाम तुंगभद्रा नदी के दक्षिण किनारे पर स्थित उसकी
राजधानी के नाम पर पड़ा। उसकी राजधानी विपुल शक्ति एवं सम्पदा की प्रतीक थी।
विजयनगर के विषय में फ़ारसी यात्री 'अब्दुल रज्जाक'
ने लिखा है कि, "विजयनगर दुनिया के सबसे
भव्य शहरों में से एक लगा, जो उसने देखे या सुने थे।" इस राज्य की 1565 ई० के तालीकोटा युद्ध में भारी पराजय
हुई और राजधानी विजयनगर को जला दिया गया। उसके पश्चात क्षीण
रूप में यह और 80 वर्ष चला। राजधानी विजयनगर के अवशेष आधुनिक कर्नाटक राज्य में हम्पी शहर के निकट पाये गये हैं और यह एक विश्व विरासत स्थल है। पुरातात्त्विक खोज से इस
साम्राज्य की शक्ति तथा धन-सम्पदा का पता चलता है।
अनुक्रम
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परिचय
दक्षिण भारत के नरेश इस्लाम के प्रवाह के सम्मुख झुक न
सके। मुसलमान उस भूभाग में अधिक काल तक अपनी विजयपताका फहराने में असमर्थ रहे।
इस्लाम के प्रभुत्व को मिटाकर विजयनगर के सम्राटों ने पुन: हिंदू धर्म को जाग्रत
किया। यही कारण है कि दक्षिणपथ के इतिहास में विजयनगर राज्य को विशेष स्थान दिया
गया है।
दक्षिण भारत की कृष्णा नदी की सहायक तुंगभद्रा को इस बात का गर्व है कि विजयनगर
उसकी गोद में पला। उसी के किनारे प्रधान नगरी हंपी स्थित रही। विजयनगर के
पूर्वगामी होयसल नरेशों का प्रधान स्थान यहीं था। दक्षिण का पठार दुर्गम है इसलिए
उत्तर के महान् सम्राट् भी दक्षिण में विजय करने का संकल्प अधिकतर पूरा न कर सके।
द्वारसमुद्र के शासक वीर वल्लाल तृतीय ने दिल्ली सुल्तान
द्वारा नियुक्त कंपिलि के शासक मलिक मुहम्म्द के विरुद्ध लड़ाई छेड़ दी। ऐसी
परिस्थिति में दिल्ली के सुल्तान ने मलिक मुहम्मद की सहायता के लिए दो (हिंदू)
कर्मचारियों को नियुक्त किया जिनके नाम हरिहर तथा बुक्क थे। इन्हीं दोनों भाइयों
ने स्वतंत्र विजयनगर राज्य की स्थापना की। सन् १३३६ ई. में हरिहर ने वैदिक रीति से
राज्याभिषेक संपन्न किया और तुंगभद्रा नदी के किनारे विजयनगर नामक नगर का निर्माण
किया।
विजयनगर राज्य में चार विभिन्न वंशों ने शासन किया।
प्रत्येक वंश में प्रतापी एवं शक्तिशाली नरेशों की कमी न थी। युद्धप्रिय होने के
अतिरिक्त, सभी हिंदू संस्कृति के रक्षक थे। स्वयं
कवि तथा विद्वानों के आश्रयदाता थे। हरिहर तथा बुक्क संगम नामक व्यक्ति के पुत्र
थे अतएव उन्होंने संगम सम्राट् के नाम से शासन किया। विजयनगर राज्य के संस्थापक
हरिहर प्रथम ने थोड़े समय के पश्चात् अपने वरिष्ठ तथा योग्य बंधु को राज्य का
उत्तराधिकारी घोषित किया। संगम वंश के तीसरे प्रतापी नरेश हरिहर द्वितीय ने
विजयनगर राज्य को दक्षिण का एक विस्तृत, शक्तिशाली तथा
सुदृढ़ साम्राज्य बना दिया। हरिहर द्वितीय के समय में सायण तथा माधव ने वेद तथा धर्मशास्त्र पर निबंधरचना की। उनके वंशजों में द्वितीय देवराय का नाम
उल्लेखनीय है जिसने अपने राज्याभिषेक के पश्चात् संगम राज्य को उन्नति का चरम सीमा
पर पहुँचा दिया। मुसलमानी रियासतों से युद्ध करते हुए, देबराय
प्रजापालन में संलग्न रहा। राज्य की सुरक्षा के निमित्त तुर्की घुड़सवार नियुक्त
कर सेना की वृद्धि की। उसके समय में अनेक नवीन मंदिर तथा भवन बने।
दूसरा राजवंश सालुव नाम से प्रसिद्ध था। इस वंश के
संस्थापक सालुब नरसिंह ने 1485 से 1490 ई. तक शासन किया। उसने शक्ति क्षीण हो जाने
पर अपने मंत्री नरस नायक को विजयनगर का संरक्षक बनाया। वही तुलुव वंश का प्रथम
शासक माना गया है। उसने 1490 से 1503 ई. तक शासन किया और दक्षिण में कावेरी के
सुदूर भाग पर भी विजयदुंदुभी बजाई। तुलुब वंशज कृष्णदेव राय का नाम गर्व से लिया
जाता है। उसने 1509 से 1539 ई. तक शासन किया। वह महान् प्रतापी, शक्तिशाली, शांतिस्थापक,
सर्वप्रिय, सहिष्णु और व्यवहारकुशल शासक था।
उसने नायक लोगों को दबाया, उड़ीसा पर आक्रमण किया और दक्षिण
के भूभाग पर अपना अधिकार स्थापित किया। सोलहवीं सदी में यूरोप से पुर्तगाली भी
पश्चिमी किनारे पर आकर डेरा डाल चुके थे। उन्होंनेकृष्णदेव
राय से व्यापारिक संधि की जिससे विजयनगर
राज्य की श्रीवृद्धि हुई। तुलुव वंश का अंतिम राजा सदाशिव परंपरा को कायम न रख
सका। सिंहासन पर रहते हुए भी उसका सारा कार्य रामराय द्वारा संपादित होता था।
सदाशिव के बाद रामराय ही विजयनगर राज्य का स्वामी हुआ और इसे चौथे वंश अरवीदु का
प्रथम सम्राट् मानते हैं। रामराय का जीवन कठिनाइयों से भरा पड़ा था। शताब्दियों से
दक्षिण भारत के हिंदू नरेश इस्लाम का विरोध करते रहे, अतएव
बहमनी सुल्तानों से शत्रुता बढ़ती ही गई। मुसलमानी सेना के पास अच्छी तोपें तथा
हथियार थे, इसलिए विजयनगर राज्य के सैनिक इस्लामी बढ़ाव के
सामने झुक गए। विजयनगर शासकों द्वारा नियुक्त मुसलमान सेनापतियों ने राजा को घेरवा
दिया अतएव सन् 1565 ई. में तलिकोट
के युद्ध में रामराय मारा गया। मुसलमानी सेना
ने विजयनगर को नष्ट कर दिया जिससे दक्षिण भारत में भारतीय संस्कृति की क्षति हो
गई। अरवीदु के निर्बल शासकों में भी वेकंटपतिदेव का नाम धिशेषतया उल्लेखनीय है।
उसने नायकों को दबाने का प्रयास किया था। बहमनी तथा मुगल सम्राट् में पारस्परिक
युद्ध होने के कारण वह मुसलमानी आक्रमण से मुक्त हो गया था। इसके शासनकाल की मुख्य
घटनाओं में पुर्तगालियों से हुई व्यापारिक संधि थी। शासक की सहिष्णुता के कारण विदेशियों
का स्वागत किया गया और ईसाई पादरी कुछ सीमा तक धर्म का प्रचार भी करने लगे। वेंकट
के उत्तराधिकारी निर्बल थे। शासक के रूप में वे विफल रहे और नायकों का प्रभुत्व
बढ़ जाने से विजयनगर राज्य का अस्तित्व मिट गया।
हिंदू
संस्कृति के इतिहास में विजयनगर राज्य का
महत्वपूर्ण स्थान रहा। विजयनगर की सेना में मुसलमान सैनिक तथा सेनापति कार्य करते
रहे, परंतु इससे विजयनगर के मूल उद्देश्य में र्को परिवर्तन
नहीं हुआ। विजयनगर राज्य में सायण द्वारा वैदिक साहित्य की टीका तथा विशाल मंदिरों का निर्माण दो ऐसे
ऐतिहासिक स्मारक हैं जो आज भी उसका नाम अमर बनाए हैं।
हम्पी के विरुपक्ष मन्दिर के अलंकृत स्तम्भ
विजयनगर के शासक स्वयं शासनप्रबंध का संचालन करते थे।
केंद्रीय मंत्रिमंडल की समस्त मंत्रणा को राजा स्वीकार नहीं करता था और सुप्रबंध
के लिए योग्य राजकुमार से सहयोग लेता था। प्राचीन भारतीय प्रणाली पर शासन की नीति
निर्भर थी। सुदूर दक्षिण में सामंत वर्तमान थे जो वार्षिक कर दिया करते थे और
राजकुमार की निगरानी में सारा कार्य करते थे। प्रजा के संरक्षण के लिए पुलिस विभाग
सतर्कता से कार्य करता रहा जिसका सुंदर वर्णन विदेशी लेखकों ने किया है।
विजयनगर के शासकगण राज्य के सात अंगों में कोष को ही
प्रधान समझते थे। उन्होंने भूमि की पैमाइश कराई और बंजर तथा सिंचाइवाली भूमि पर पृथक्-पृथक् कर बैठाए। चुंगी, राजकीय भेंट, आर्थिक
दंड तथा आयात पर निर्धारित कर उनके अन्य आय के साधन थे। विजयनगर एक युद्ध राज्य था
अतएव आय का दो भाग सेना में व्यय किया जाता, तीसरा अंश संचित
कोष के रूप में सुरक्षित रहता और चौथा भाग दान एवं महल संबंधी कार्यों में व्यय
किया जाता था।
भारतीय साहित्य के इतिहास में विजयनगर राज्य का
उल्लेख अमर है। तुंगभद्रा की घाटी में ब्राह्मण, जैन तथा शैव धर्म प्रचारकों ने कन्नड भाषा को अपनाया जिसमें रामायण, महाभारत तथा भागवत की रचना की गई। इसी युग में कुमार
व्यास का आविर्भाव हुआ। इसके अतिरिक्त तेलुगू भाषा के कवियों को बुक्क ने भूमि दान
में दी। कृष्णदेव राय का दरबार कुशल कविगण द्वारा सुशोभित किया गया था। संस्कृत साहित्य की तो वर्णनातीत श्रीवृद्धि हुई। विद्यारण्यबहुमुख प्रतिभा के पंडित थे। विजयनगर राज्य के प्रसिद्ध
मंत्री माधव ने मीमांसा एवं धर्मशास्त्र संबंधी क्रमश: जैमिनीय
न्यायमाला तथा पराशरमाधव नामक ग्रंथों की रचना की थी उसी के
भ्राता सायण ने वैदिक मार्गप्रवर्तक हरिहर द्वितीय के शासन काल में हिंदू संस्कृति
के आदि ग्रंथ वेद पर भाष्य लिखा जिसकी सहायता से आज हम वेदों का अर्थ समझते हैं।
विजयनगर के राजाओं के सय में संस्कृत साहित्य में अमूल्य पुस्तकें लिखी गईं।
बौद्ध, जैन तथा ब्राह्मण
मतों का प्रसार दक्षिण भारत में हो चुका था। विजयनगर के राजाओं ने शैव मत को
अपनाया, यद्यपि उनकी सहिष्णुता के कारण वैष्णव आदि अन्य धर्म
भी पल्लवित होते रहे। विजयनगर की कला धार्मिक प्रवृत्तियों के कारण जटिल हो गई।
मंदिरों के विशाल गोपुरम् तथा सुंदर, खचित स्तंभयुक्त मंडप
इस युग की विशेषता हैं। विजयनगर शैली की वास्तुकला के नमूने उसके मंदिरों में आज
भी शासकों की कीर्ति का गान कर रहे हैं।
इस साम्राज्य के विरासत के तौर पर हमें संपूर्ण दक्षिण
भारत में स्मारक मिलते हैं जिनमें सबसे प्रसिद्ध
हम्पी के हैं। दक्षिण भारत में प्रचलित मंदिर निर्माण की अनेक शैलियाँ इस
साम्राज्य ने संकलित कीं और विजयनगरीय स्थापत्य कला प्रदान की। दक्षिण भारत के
विभिन्न सम्प्रदाय तथा भाषाओं के घुलने-मिलने के कारण इस नई प्रकार की मंदिर
निर्माण की वास्तुकला को प्रेरणा मिली। स्थानीय कणाश्म पत्थर का प्रयोग करके पहले दक्कन तथा उसके पश्चात्द्रविड़ स्थापत्य शैली में मंदिरों का निर्माण हुआ।
धर्मनिर्पेक्ष शाही स्मारकों में उत्तरी दक्कन सल्तनत की स्थापत्य कला की झलक
देखने को मिलती है।
उत्पत्ति
इस साम्राज्य की स्थापना यादव वंश के भावना संगम के पुत्र हरिहर राय तथा
बुक्का राय ने किया था | उन्होंने अपने गुरु के नाम पर अपनी राजधानी का नाम विजयनगर रखा । राजा कृष्ण देव राय ने अपनी आत्मकथा "अमुक्त्मल्यादा" में अपनी जाति यादव बताई है | अल्लासनी पेद्दना द्वारा रचित "मनुचारित्र" में भी उन्हें यादव बताया गया है | श्री कृष्णदेव राय के दरबारी कवि मुक्कू तिम्माना ने अपने पुस्तक "पारिजात पहरनम" में भी उन्हें यादव लिखा है |
कुछ जनश्रुतियों के अनुसार मुहम्मद बिन तुगलक ने दक्षिण में साम्राज्य विस्तार के उद्येश्य से
कम्पिली पर आक्रमण कर दिया और कम्पिली के दो राज्य मंत्रियों हरिहर तथा बुक्का को
बंदी बनाकर दिल्ली ले आया । इन दोनों भाइयों द्वारा इस्लाम धर्म स्वीकार करने के बाद इन्हें दक्षिण
विजय के लिए भेजा गया। माना जाता है कि अपने इस उद्येश्य में असफलता के कारण वे
दक्षिण में ही रह गए और विद्यारण्य नामक सन्त के प्रभाव में आकर हिन्दू धर्म को पुनः अपना लिया । इस तरह मुहम्मद
बिन तुगलक के शासनकाल में ही भारत के दक्षिण पश्चिम तट पर विजयनगर साम्राज्य की
स्थापना की गई ।
साम्राज्य विस्तार
विजयनगर की स्थापना के साथ ही हरिहर तथा बुक्का के सामने
कई कठिनाईयां थीं । वारंगल का शासक कापाया नायक तथा उसका मित्र प्रोलय वेम और वीर
बल्लाल तृतीय उसके विरोधी थे । देवगिरि का सूबेदार कुतलुग खाँ भी विजयनगर के
स्वतंत्र अस्तित्व को नष्ट करना चाहता था । हरिहर ने सर्वप्रथम बादामी, उदयगिरि तथा गुटी के दुर्गों को सुदृढ़
किया । उसने कृषि की उन्नति पर भी ध्यान दिया जिससे साम्राज्य में समृद्धि आयी ।
होयसल साम्राट वीर बल्लाल मदुरै के विजय अभियान में लगा हुआ था । इस
अवसर का लाभ उठाकर हरिहर ने होयसल साम्राज्य के पूर्वी बाग पर अधिकार कर लिया। बाद
में वीर बल्लाल तृतीय मदुरा के सुल्तान द्वारा 1342 में मार डाला गया । बल्लाल के
पुत्र तथा उत्तराधिकारी अयोग्य थे । इस मौके को भुनाते हुए हरिहर ने होयसल
साम्राज्य पर अधिकार कर लिया । आगे चलकर हरिहर ने कदम्ब के शासक तथा मदुरा के
सुल्तान को पराजित करके अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली ।
हरिहर के बाद बुक्का सम्राट बना हंलाँकि उसने ऐसी कोई
उपाधि धारण नहीं की । उसने तमिलनाडु का राज्य विजयनगर साम्राज्य में मिला
लिया । कृष्णा नदी को विजयनगर तथा बहमनी की सीमा मान ली गई । बुक्का के बाद
उसका पुत्र हरिहर द्वितीय सत्तासीन हुआ । हरिहर द्वितीय एक महान योद्धा था । उसने
अपने भाई के सहयोग से कनारा, मैसूर, त्रिचनापल्ली, काञ्ची, चिंगलपुट आदि प्रदेशों पर अधिकार कर लिया ।
शासकों की सूची
संगम वंश
सलुव वंश
तुलुव वंश
अरविदु वंश
हरिहर राय 1
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दक्षिण भारत के अंतिम हिंदू साम्राज्य विजयनगर राज्य के संस्थापकों
में हरिहर अग्रणी थे।
मध्ययुग के भारतीय इतिहास में हरिहर का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जा चुका है।
प्रारंभिक जीवन में वारंगल के राजा प्रतापरुद्र
द्वितीय के कर्मचारी के रूप में हरिहर ने कुछ
समय व्यतीत किया। मुसलमानी आक्रमण के कारण कांपिलि चले गए, जहाँ 1327 ई. में बंदी बना लिए गए। दिल्ली जाकर इस्लाम
धर्मावलंबी हो जाने पर वे सुल्तान के प्रियपात्र बन गए। कुछ समय पश्चात् सुल्तान
ने इन्हें (छोटे भ्राता बुक्क के साथ) दक्षिण में बगावत दबाने का कार्यभार सौंपा।
हरिहर ने सब लोगों के साथ सद्व्यवहार किया परंतु हिंदू संस्कृति के विनाश को देखकर उनका कोमल हृदय को
द्रवित हो गया। शीघ्र ही हिंदू धर्म को पुन: अंगीकार कर हरिकर ने 1336 ई. में
वैदिक रीति से अभिषेक संपन्न कर विजयनगर नामक राज्य की संस्थापना की।
अपने पिता संगम के पाँच पुत्रों में हरिहर का नाम
सर्वोपरि माना जाता है। वह हरिहर प्रथम के नाम से सिंहासन पर बैठे। संगमवंश के
अभिलेखों में वर्णन मिलता है कि हरिहर ने सम्राट् की पदवी धारण की तथा प्रभावहीन
राजा से कार्यभार स्वयं ले लिया। अन्य लेखों में 'महामंडलेश्वर हरिहर होयसल देश में शासन करता है' ऐसा
उल्लेख है। बहमनी सुल्तानों से युद्ध की परिस्थिति में हिंदू संस्कृति की रक्षा ही
विजनगर राज्य की स्थापना का मूल उद्देश्य था।
हरिहर प्रथम की सत्ता को दक्षिण भारत के हिंदू राजाओं ने
स्वीकार कर लिया। केंद्रीय शासन को सुदृढ़ करने की ओर इनका ध्यान था। नूनेज का कथन
है कि 'मंत्रिमंडल' की
सहायता से शासनकार्य संचालित हो रहा था। हरिहर प्रथम शैव थे, यद्यपि राज्य में अन्य मत भी पल्लवित होते रहे। हरिहर के जीवनचरित् से
ज्ञात होता है कि विद्यारण्य स्वामी का उनपर विशेष प्रभाव था। 1357 ई. में हरिहर
ने अपने छोटे भ्राता बुक्क को राज्य का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। पश्चिमी तथा
पूर्वी समुद्र के मध्य भूभाग पर राज्य विस्तृत करने में हरिहर प्रथम को अच्छी
सफलता मिली।
कृष्णदेवराय
कृष्णदेवराय की कांस्य प्रतिमा
संगीतमय स्तम्भों से युक्त हम्पी स्थित विट्ठल मन्दिर ; इसके होयसला शैली के
बहुभुजाकार आधार पर ध्यान दीजिए।
परिचय
जिन दिनों वे सिंहासन पर बैठे उस समय दक्षिण भारत की राजनीतिक
स्थिति डाँवाडोल थी। पुर्तगाली पश्चिमी तट पर आ चुके थे। कांची के आसपास का प्रदेश उत्तमत्तूर के
राजा के हाथ में था। उड़ीसा के गजपति
नरेश ने उदयगिरि से नेल्लोर तक के प्रांत को अधिकृत कर लिया था। बहमनी राज्य अवसर मिलते ही विजयनगर पर
आक्रमण करने की ताक में था।
कृष्णदेवराय ने इस स्थिति का अच्छी तरह सामना किया।
दक्षिण की राजनीति के प्रत्येक पक्ष को समझनेवाले और राज्यप्रबंध में अत्यंत कुशल
श्री अप्पाजी को उन्होंने अपना प्रधान मंत्री बनाया। उत्तमत्तूर के राजा ने हारकर
शिवसमुद्रम के दुर्ग में शरण ली। किंतु कावेरी नदी उसके द्वीपदुर्ग की रक्षा न कर सकी।
कृष्णदेवराय ने नदी का बहाव बदलकर दुर्ग को जीत लिया। बहमनी सुल्तान महमूदशाह
को उन्होंने बुरी तरह परास्त किया। रायचूड़, गुलबर्गा और
बीदर आदि दुर्गों पर विजयनगर की ध्वजा फहराने लगी। किंतु प्राचीन हिंदु राजाओं के
आदर्श के अनुसार महमूदशाह को फिर से उसका राज लौटा दिया और इस प्रकार यवन राज्य
स्थापनाचार्य की उपाधि धारण की। 1513 ई. में उन्होंने उड़ीसा पर आक्रमण किया और
उदयगिरि के प्रसिद्ध दुर्ग को जीता। कोंडविडु के दुर्ग से राजकुमर वीरभद्र ने
कृष्णदेवराय का प्रतिरोध करने की चेष्टा की पर सफल न हो सका। उक्त दुर्ग के पतन के
साथ कृष्ण तक का तटीय प्रदेश विजयनगर राज्य में सम्मिलित हो गया। उन्होंने कृष्णा
के उत्तर का भी बहुत सा प्रदेश जीता। 1519 ई. में विवश होकर गजपति नरेश को कृष्णदेवराय
से अपनी कन्या का विवाह करना पड़ा। कृष्णदेवराय ने कृष्णा से उत्तर का प्रदेश
गजपति को वापस कर दिया। जीवन के अंतिम दिनों में कृष्णदेवराय को अनेक विद्रोहों का
सामना करना पड़ा। उसके पुत्र तिरु मल की विष द्वारा मृत्यु हुई।
कृष्णदेवराय ने अनेक प्रासादों, मंदिरों, मंडपों और
गोपुरों का निर्माण करवाया। रामस्वामीमंदिर के शिलाफलकों पर प्रस्तुत रामायण के
दृश्य दर्शनीय हैं। वे स्वयं कवि और कवियों के संरक्षक थे। तेलुगु भाषा में उनका
काव्य अमुक्तमाल्यद साहित्य का एक रत्न है। तेलुगु भाषा के आठ प्रसिद्ध कवि इनके
दरबार में थे जो अष्टदिग्गज के नाम से प्रसिद्ध थे। स्वयं कृष्णदेवराय भी आंध्रभोज
के नाम से विख्यात था।
रायगड किलेपर शिवपूर्वकालीन इमारतो का निर्माण (स्तंभ, बालेकीला प्रवेशद्वार) किस विजयनगर राजाने किया?
जवाब देंहटाएंश्रीमान जी आपने तुलूव वंश के अन्तिम शासक सदाशिव राय का शासन 1570 ईसवीं तक बताया है । लेकिन अरविंदु वंश के शासक अलिय राम राय का शासन 1542से 1565 ईसवीं लिखा है। ये कैसे सम्भव है। कृपया समाधान करैं।
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