चेदि आर्यों का एक अति प्राचीन वंश है। ऋग्वेद की एक दानस्तुति में इनके एक अत्यंत शक्तिशाली नरेश कशु का उल्लेख
है। ऋग्वेदकाल में ये संभवत: यमुना और विंध्य के बीच बसे हुए थे।
पुराणों में वर्णित परंपरागत इतिहास के अनुसार यादवों के नरेश विदर्भ के तीन
पुत्रों में से द्वितीय कैशिक चेदि का राजा हुआ और उसने चेदि शाखा का स्थापना की।
चेदि राज्य आधुनिक बुंदेलखंड में स्थित रहा होगा और यमुना के दक्षिण में चंबल और
केन नदियों के बीच में फैला रहा होगा। महाभारत के युद्ध में चेदि पांडवों के पक्ष
में लड़े थे। छठी शताब्दी ईसा पूर्व के 16 महाजनपदों की तालिका में चेति अथवा चेदि
का भी नाम आता है। चेदि लोगों के दो स्थानों पर बसने के प्रमाण मिलते हैं - नेपाल
में और बुंदेलखंड में। इनमें से दूसरा इतिहास में अधिक प्रसिद्ध हुआ। मुद्राराक्षस
में मलयकेतु की सेना में खश,
मगध, यवन, शक हूण के साथ चेदि लोगों का भी नाम है।
भुवनेश्वर के समीप उदयगिरि पहाड़ी पर हाथीगुंफा के अभिलेख से कलिंग में एक चेति (चेदि) राजवंश
का इतिहास ज्ञात होता है। यह वंश अपने को प्राचीन चेदि नरेश वसु (वसु-उपरिचर) की
संतति कहता है। कलिंग में इस वंश की स्थापना संभवत: महामेघवाहन ने की थी जिसके नाम
पर इस वंश के नरेश महामेघवाहन भी कहलाते थे। खारवेल, जिसके समय में हाथीगुंफा का
अभिलेख उत्कीर्ण हुआ इस वंश की तीसरी पीढ़ी में था। महामेघवाहन और खारवेल के बीच
का इतिहास अज्ञात है। महाराज वक्रदेव, जिसके समय में उदयगिरि
पहाड़ी की मंचपुरी गुफा का निचला भाग बना, इस राजवंश की संभवत: दूसरी
पीढ़ी में था और खारवेल का पिता था।
खारवेल इस वंश और कलिंग के इतिहास के ही नहीं, पूरे प्राचीन भारतीय इतिहास के प्रमुख शासकों में से है। हाथीगुंफा
के अभिलेख के विवरण में अतिशयोक्ति की संभावना के पश्चात् भी जो शेष बचता है, उससे स्पष्ट है कि खारवेल असाधारण योग्यता का सेना नायक था और उसने
कलिंग की जैसी प्रतिष्ठा बना दी वैसी बाद की कई शताब्दियों संभव नहीं हुई।
खारवेल के राज्यकाल की तिथि
अब भी विवाद का विषय हे, जिसमें एक मत ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के
पूर्वार्ध के पक्ष में है किंतु खारवेल को ईसा पूर्व पहली शताब्दी के उत्तरार्ध
में रखनेवाले विद्वानों की संख्या बढ़ रहीं है।
15 वर्ष की आयु तक खारवेल
ने राजोचित विद्याएँ सीखीं। 16वें वर्ष में वह युवराज बनाद्य 24वें वर्ष में उसका
राज्याभिषेक हुआ। सिंहासन पर बैठते ही उसने दिग्विजय प्रारंभ की। शासन के दूसरे
वर्ष में उसने सातकर्णि (सातवाहन नरेश सातकर्णि प्रथम) का बिना विचार किए एक विशाल
सेना पश्चिम की ओर भेजी जो कण्णवेंणा नदी (कृष्णा) पर स्थित असिक नगर (ऋषिक नगर)
तक गई थी। चौथे वर्ष में उसने विद्याधर नाम के एक राजा की राजधानी पर अधिकार कर
लिया और राष्ट्रिक तथा भोजों को पराभूत किया, जो संभवत: विदर्भ में राज्य
करते थे। आठवें वर्ष में उसने बराबर पहाड़ी पर स्थित गोरथगिरि के दुर्ग का ध्वंस
किया और राजगृह को घेर लिया। इस समाचार से एक यवनराज के हृदय में इतना भय उत्पन्न
हुआ कि वह मथुरा भाग गया। 10वें वर्ष में उसने भारतवर्ष (गंगा की घाटी) पर फिर से
आक्रमण किया। 11वें वर्ष में उसकी सेना ने पिथुंड को नष्ट किया और विजय करती हुई
वह पांड्य राज्य तक पहुँच गई। 12वें वर्ष उसने उत्तरापथ पर फिर आक्रमण किया और मगध
के राजा बहसतिमित (बृहस्त्स्वातिमित्र) को संभवत: गंगा के तट पर पराजित किया। उसकी
इन विजयों के कारण उसकी रानी के अभिलेख में उसके लिए प्रयुक्त चक्रवर्तिन् शब्द
उपयुक्त ही है।
खारवेल जैन था। उसने और
उसकी रानी ने जैन भिक्षुओं के निर्वाह के लिए व्यवस्था की और उनके आवास के लिए
गुफाओं का निर्माण कराया। किंतु वह धर्म के विषय में संकुचित दृष्टिकोण का नहीं
था। उसने अन्य सभी देवताओं के मंदिरों का पुनर्निर्माण कराया। वह सभी संप्रदायों
का समान आदर करता था।
खारवेल का प्रजा के हित का
सदैव ध्यान रहता था और उसके लिए वह व्यय की चिंता नहीं करता था। उसने नगर और
गाँवों की प्रजा का प्रिय बनने के लिए उन्हें करमुक्त भी किया था। पहले नंदराज
द्वारा बनवाई गई एक नहर की लंबाई उसने बढ़वाई थी। उसे स्वयं संगीत में अभिरुचि थी
और जनता के मनोरंजन के लिये वह नृत्य और सगीत के समारोहों का भी आयोजन करता था।
खारवेल को भवननिर्माण में भी रुचि थी। उसने एक भव्य 'महाविजय-प्रासाद'
नामक राजभवन भी बनवाया था।
खारवेल के पश्चात् चेदि
राजवंश के संबंध में हमें कोई सुनिश्चित बात नहीं ज्ञात होती। संभवत: उसके
उत्तराधिकारी उसके राज्य को स्थिर रखने में भी अयोग्य थे जिससे शीघ्र ही साम्राज्य
का अंत हो गया।
कलचुरि
राजवंश
कलचुरी
वंश (845
ई. से 1070 ई. लगभग)
चेदी प्राचीन
भारत के 16 महाजनपदों में
से एक था। इसका शासन क्षेत्र मध्य तथा पश्चिमी भारत था। आधुनिक बुंदलखंड तथा उसके
समीपवर्ती भूभाग तथा मेरठ इसके आधीन थे। शक्तिमती या संथिवती इसकी राजधानी थी।[1]
जेजाकभुक्ति के चंदेलों के राज्य के दक्षिण में कलचुरि
राजवंश का राज्य था जिसे चेदी
राजवंश भी कहते हैं। कलचुरि अपने
को कार्तवीर्य अर्जुन का वंशज बतलाते थे और इस प्रकार वे पौराणिक अनुवृत्तों की
हैहय जाति की शाखा थे। इनकी राजधानी त्रिपुरी जबलपुर के
पास स्थित थी और इनका उल्लेख डाहल-मंडल के नरेशों के रूप में आता है। बुंदेलखंड के
दक्षिण का यह प्रदेश 'चेदि देश' के नाम से
प्रसिद्ध था इसीलिए इनके राजवंश को कभी-कभी चेदि वंश भी कहा गया है।
कलचुरी वंश बुंदेलखंड का
एक महत्वपूर्ण शासक रहा है। उनके शासनकाल के दौरान बुंदेलखंड में कई युद्ध हुए और
निरंतर अनिश्चय का वातावरण रहा। कलचुरी वंश लगभग तीन सौ वर्ष तक दक्षिणी बुंदेलखंड
का शासक रहा। बारहवीं शताब्दी में चंदेल शासकों
की बढ़ती शक्ति के कारण कलचुरियों का पराभव हुआ। कलचुरी शैवोपासक थे इसलिए उनके
बनवाए मदिरों में शिव मंदिर अधिक हैं। उनमें त्रिदेवों की पूजा भी होती थी। स्थापत्य
और मूर्तिकला को कलचुरियों ने काफी प्रोत्साहन दिया। ऐसी भी धारणा है कि समाज में
विभिन्न वर्गों में उपजातियों का निर्माण इसी काल में हुआ था।
भारत वर्ष के प्राचीन इतिहास में कलचुरी नरेशों का स्थान
कई दृष्टियों में विशिष्ट है | संवत 550 से 1740 तक लगभग 1200 वर्षों की अवधि में
कलचुरी नरेशों ने भारत के उत्तर तथा दक्षिण स्थित किसी न किसी प्रदेश में अपना
राज्य चलाया है | भारत वर्ष के इतिहास में ऐसा कोई भी राजवंश नहीं हुआ जिसने इतने
लम्बी अवधि तक अपना राज्य चलाया हो | इस वंश ने उत्तर भारत और दक्षिण भारत दोनों
पर अलग-अलग समय पर राज किया है |
प्राचीन मान्यताओं एवं पुराणों के अनुसार 250 ई० का
आस-पास बहुत से कलचुरी उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बस गए | कलचुरी –
कल्ली और चुरी शब्द के मेल से बना है | कल्ली का अर्थ होता है – लम्बी मूंछे एवं
चुरी का अर्थ होता है – तेज नाख़ून/ चाकू | विधर्मी ब्राह्मण परशुराम द्वारा हैहय
यादवों की राजधानी महिष्मती को इक्कीस बार नष्ट करने पर, कार्तवीर्य अर्जुन के
वंशजों ने आस-पास के वनों में शरण ले लिया | जंगलों में रहने के कारण उनके मूंछ,
दाढ़ी और नाख़ून काफी लम्बे हो गए थे | इसलिए उनके वंशज कलचुरी कहलाये | छठी शताब्दी
के आस-पास उन्होंने एक विशाल साम्राज्य की स्थापन किये, जिसके अंतर्गत आधुनिक
गुजरात, उत्तरी महाराष्ट्र एवं मालवा के क्षेत्र आते थे | इसकी एक दूसरी शाखा ने
गोरखपुर के नजदीक अपनी राज्य का स्थापना किये | इसकी तीसरी शाखा ने बुंदेलखंड में
एक महान एवं शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना किये, जिसे चेदि राज्य भी कहा जाता था
| जिसकी राजधानी त्रिपुरी (तेवर) था, जो
जबलपुर के पास स्थित है |
प्रारंभिक
कलचुरी राजवंश
कलचुरी शासक कृष्णराज (शासन काल – 550 से 575 ई०) द्वारा
चलाये गए चाँदी के सिक्के, जिन्हें रूपक कहा जाता था |
कलचुरी राजवंश के बारे में उपलब्ध प्रथम एतिहासिक
दस्तावेजों के आधार पर यह पता चलता है कि प्रारंभिक कलचुरी साम्राज्य की स्थापना
छठी – सातवीं सदी के मध्य में की गई थी, जिसकी राजधानी महिष्मती थी | इस विशाल साम्राज्य के अंतर्गत मालवा,
उत्तरी महाराष्ट्र, दक्षिणी गुजरात एवं दक्षिणी राजस्थान के क्षेत्र आते थे | आरंभिक
कलचुरी शासकों ने अनेक गुफा मंदिरों का निर्माण करवाया था, जिसमे मुंबई हार्बर में
एलीफैंट द्वीप पर स्थित गुफा मंदिर प्रमुख है | एलिफेंटा गुफा मंदिर के अलावा
इन्होंने एलौरा एवं रामेश्वर गुफा मंदिर (गुफा 21) का निर्माण करवाया था |
एलिफेंटा एवं एल्लोरा का गुफा मंदिर विश्व एतिहासिक धरोहर स्थल में शामिल है |
इस राजवंश के तीन राजाओं के बारे में ही जानकारी उपलब्ध
है – कृष्णराजा (550 – 575 ई०), उसका पुत्र शंकरगण (575-600 ई०) और उसका पौत्र बुद्धराजा (600-625
ई०)| कृष्णराजा के बारे में जानकारी उसके द्वारा प्रचलित सिक्के और उसके पुत्र एवं
पौत्र द्वारा उल्लेखित ताम्र पत्र से मिलती है | शंकरगण और बुद्धराजा के बारे में
भी जानकारी उनके द्वारा खुदवाये गए ताम्र पत्र से ही मिलती है | कालांतर में
कलचुरी राजवंश के वंशजों ने उत्तर एवं दक्षिण भारत में अपना साम्राज्य स्थापित
किये |
उत्तर भारत में कलचुरी
राजवंश –
कलचुरी शासक महाराज कर्णदेव (1042-
1072 ई०) द्वारा निर्मित अमरकंटक का प्राचीन मंदिर
इस वंश का प्रथम ज्ञात शासक कोक्ल्ल प्रथम था जो 845 ई.
के लगभग सिंहासन पर बैठा। उसने वैवाहिक संबंधों के द्वारा अपनी शक्ति दृढ़ की।
उसका विवाह नट्टा नाम की एक चंदेल राजकुमारी से हुआ था और उसने अपनी पुत्री का
विवाह राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय के साथ किया था। इस युग की अव्यवस्थित राजनीतिक
स्थित में उसने अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए कई युद्ध किए। उसने प्रतिहार नरेश भोज
प्रथम और उसके सांमत कलचुरि शंकरगण, गुहिल हर्षराज और चाहपान गूवक द्वितीय को
पराजत किया। कोक्कल्ल के लिए कहा गया है कि उसने इन शासकों के कोष का हरण किया और
उन्हें संभवत: फिर आक्रमण न करने के आश्वासन के रूप में भय से मुक्ति दी। इन्हीं
युद्धों के संबंध में उसने राजस्थान में तुरुष्कां को पराजित किया जो संभवत: सिंध
के अरब प्रांतपाल के सैनिक थे। उसने वंग पर भी इसी प्रकार का आक्रमण किया था। अपने
शासनकाल के उत्तरार्द्ध में उसने राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय को पराजित करके
उत्तरी कोंकण पर आक्रमण किया था किंतु अंत में उसने राष्ट्रकूटों के साथ संधि कर
ली थी। इन युद्धों से कलचुरि राज्य की सीमाओं में कोई वृद्धि नहीं हुई। विलहारी लेख में कोकल्ल के विषय में कहा
गया है कि 'समस्त पृथ्वी को विजित
कर उसने दक्षिण में कृष्णराज एवं उत्तर में भोज को अपने दो कीर्तिस्तम्भ के रूप
में स्थापित किया।
कोक्कल्ल के 18 पुत्र थे | ज्येष्ठ
पुत्र शंकरगण उसके बाद सिंहासन पर बैठा। कोक्कल्ल
ने अपने 17 अन्य पुत्रों को पृथक पृथक
मंडलों का शासक नियुक्त किया; इन 17 पुत्रों में से एक ने दक्षिण कोशल
में कलचुरि राजवंश की एक नई शाखा की स्थापना की जिसकी राजधानी पहले तुम्माण और बाद
में तृतीय नरेश रत्नराज द्वारा स्थापित रत्नपुर थी। इस शाखा में नौ शासक हुए
जिन्होंने 12वीं शताब्दी के अंत तक राज्य किया।
छत्तीसगढ़ (रतनपुर और
रायपुर) में कलचुरी शासक – 900 ई० से 1741 ई० तक छत्तीसगढ़ पर कलचुरी वंश का शासन
रहा | कोक्कल्ल का ज्येष्ठ पुत्र शंकरगण उसके बाद त्रिपुरी की सिंहासन पर बैठा। शंकरगण
ने लगभग 900 ई० में कोशल के सोमवंशी नरेश से कोसल का प्रदेश छीन लिया1
उसने अपने 17 भाइयों को पृथक पृथक मंडलों का शासक नियुक्त
किया | छोटे भाइयों में से एक के वंश में कलिंगराज हुआ | कलिंगराज ने दक्षिण कोसल
जीता | पूर्वजों द्वारा स्थापित तुम्माण को अपनी राजधानी बनाया, रत्नदेव ने बाद
में रतनपुर को अपना राजधानी बनाया | दक्षिण कोसल का क्षेत्र ही वर्तमान में
छत्तीसगढ़ राज्य के नाम से जाना जाता है |
छत्तीसगढ़ में कलचुरी शासक –
शंकरगण - लगभग 900 ई०
लक्ष्मनराज – 950 ई०
कलिंगराज – 1000 ई०
कमलराज और रत्नदेव – 1020 ई०
पृथिवीदेव – 1061 ई०
जजालयादेव – 1095 ई०
रत्नदेव II – 1127 ई०
शंकरगण ने कोशल के सोमवंशी नरेश से पालि छीन लिया1 पूर्वी
चालुक्य विजयादित्य तृतीय के आक्रमण के विरुद्ध वह राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय की
सहायता के लिए गया किंतु उसके पक्ष की पूर्ण पराजय हुई। उसने अपनी पुत्री लक्ष्मी
का विवाह कृष्ण द्वितीय के पुत्र जगत्तुंग के साथ किया था जिनका पुत्र इंद्र तृतीय
था। इंद्र तृतीय का विवाह शंकरगण के छोटे भाई अर्जुन की पौत्री से हुआ था।
शंकरगण के बाद पहले उसका ज्येष्ठ पुत्र बालहर्ष और फिर
कनिष्ठ पुत्र युवरा प्रथम केयूरवर्ष सिंहासन पर बैठा। युवराज (दसवीं शताब्दी का
द्वितीय चरण) ने गौड़ और कलिंग पर आक्रमण किया था। किंतु अपने राज्यकाल के अंत समय
में उसे स्वयं आक्रमणों का समना करना पड़ा और चंदेल नरेश यशोवर्मन् के हाथों पराजित होना
पड़ा। राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय युवराज का दोहित्र था और स्वयं उसकी पत्नी भी
कलचुरि वंश की थी। उसने अपने पिता के राज्यकाल में ही एक बार कालंजर पर आक्रमण
किया था। सिंहासन पर बैठने के बाद उसने मैहर तक के प्रदेश पर अधिकार कर लिया था
किंतु शीघ्र ही युवराज को राष्ट्रकूटों को भगाने में सफलता मिली। युवराज के पुत्र
लक्ष्मणराज (10वीं शताब्दी का तृतीय चरण) ने पूर्व में बंगाल, ओड्र और
कोसल पर आक्रमण किया। पश्चिम में वह लाट के सामंत शासक और गुर्जर नरेश (संभवत:
चालुक्य वंश का मूल राज प्रथम) को पराजित करके सोमनाथ तक पहुँचा था। उसकी कश्मीर
और पांड्य की विजय का उल्लेख संदिग्ध मालूम होता है। उसने अपनी पुत्री बोन्थादेवी
का विवाह चालुक्य नरेश विक्रमादित्य चतुर्थ से किया था जिनका पुत्र तैल द्वितीय
था।
लक्ष्मणराज के दोनों पुत्रों शंकरगण और युवराज द्वितीय
में सैनिक उत्साह का अभाव था। युवराज द्वितीय के समय तैज द्वितीय ने भी चेदि देश
पर आक्रमण किए। मुंज परमार ने तो कुछ समय के लिए त्रिपुरी पर ही अधिकार कर लिया
था। युवराज की कायरता के कारण राज्य के प्रमुख मंत्रियों ने उसके पुत्र कोक्कल्ल
द्वितीय को सिंहासन पर बैठाया। कोक्कल्ल के समय में कलचुरि लोगों को अपनी लुप्त
प्रतिष्ठा फिर से प्राप्त हुई। उसने गुर्जर देश के शासक को पराजित किया। उसे कुंतल
के नरेश (चालुक्य सत्याश्रय) पर भी विजय प्राप्त हुई। उसने गौड़ पर भी आक्रमण किया
था।
कोक्कल्ल के पुत्र विक्रमादित्य उपाधिधारी गांगेयदेव के
समय में चेदि लोगों ने उत्तरी भारत पर अपनी सार्वभौम सत्ता स्थापित करने की ओर चरण
बढ़ाए। उसका राज्यकाल 1019 ई. के कुछ वर्ष पूर्व से 1041 ई. तक था। भोज परमार और
राजेंद्र चोल के साथ जो उसने चालुक्य राज्य पर आक्रमण किया उसमें वह असफल रहा।
उसने कोसल पर आक्रमण किया और उत्कल को जीतता हुआ वह समुद्र तट तक पहुँच गया।
संभवत: इसी विजय के उपलक्ष में उसने त्रिकलिंगाधिपति का विरुद धारण किया। भोज
परमार और विजयपाल चंदेल के
कारण उसकी साम्राज्य-प्रसार की नीति अवरुद्ध हो गई। उत्तर-पूर्व की ओर उसने बनारस
पर अधिकार कर लिया और अंग तक सफल आक्रमण किया किंतु मगध अथवा तीरभुक्ति (तिरहुत)
हो वह अपने राज्य में नहीं मिला पाया। 1034 ई. में पंजाब के सूबेदार अहमद
नियाल्तिगीन ने बनारस पर आक्रमण कर उसे लूटा। गांगेयदेव ने भी कीर (काँगड़ा) पर, जो
मुसलमानों के अधिकार में था, आक्रमण किया था।
गांगेयदेव का पुत्र लक्ष्मीकर्ण अथवा कर्ण कलचुरि वंश का
सबसे शक्तिशाली शासक था और उसकी गणना प्राचीन भारतीय इतिहास के महान् विजेताओं
में होती है। उसने प्रयाग पर अपना अधिकार कर लिया और विजय करता हुआ वह कीर देश तक
पहुँचा था। उसने पाल राज्य पर दो बार आक्रमण किया किंतु अंत में उसने उनसे संधि की
और विग्रह पाल तृतीय के साथ अपनी पुत्री यौवनश्री का विवाह किया। राढा के ऊपर भी
कुछ समय तक उसका अधिकार रहा। उसने वंग को भी जीता किंतु अंत में उसने वंग के शासक
जातवर्मन् के साथ संधि स्थापित की और उसके साथ अपनी पुत्री वीरश्री का विवाह कर
दिया। उसने ओड्र और कलिंग पर भी विजय प्राप्त की। उसने कांची पर भी आक्रमण किया था
और पल्लव, कुंग, मुरल और पांड्य लोगों को
पराजित किया था। कुंतल का नरेश जो उसके हाथों पराजित हुआ, स्पष्ट
ही सोमेश्वर प्रथम चालुक्य था। 1051 ई. के बाद उसने कीर्तिवर्मन् चंदेल को पराजित
किया किंतु बुंदेलखंड पर उसका अधिकार अधिक समय तक नहीं बना रह सका। उसने मालव के
उत्तर-पश्चिम में स्थिति हूणमंडल पर भी आक्रमण किया था। भीम प्रथम चालुक्य के साथ
साथ उसने भोज परमार के राज्य की विजय की किंतु चालुक्यों के हस्तक्षेप के कारण उसे
विजित प्रदेश का अधिकार छोड़ना पड़ा। बाद में भीम ने कलह उत्पन्न होने पर डाहल पर
आक्रमण कर कर्ण को पराजित किया था।
1072 ई. में वृद्धावस्था से अशक्त लक्ष्मीकर्ण ने सिंहासन
अपने पुत्र यश:कर्ण को दे दिया। यश:कर्ण ने चंपारण्य (चंपारन, उत्तरी
बिहार) और आंध्र देश पर आक्रमण किया था किंतु उसके शासनकाल के अंतिम समय जयसिंह
चालुक्य, लक्ष्मदेव परमार और सल्लक्षण वर्मन् चंदेल के
आक्रमणों के कारण चेदि राज्य की शक्तिक्षीण हो गई। चंद्रदेव गांहड़वाल ने प्रयाग
और बनारस पर अपना अधिकार कर लिया। मदनवर्मन् चंदेल ने उसके पुत्र जयसिंह ने
कुमारपाल चालुक्य, बिज्जल कलचुरि और खुसरव मलिक के आक्रमणों
का सफल सामना किया। जयसिंह के पुत्र विजयसिंह का डाहल पर 1211 ई. तक अधिकार बना
रहा। किंतु 1212 ई. में त्रैलोक्यवर्मन् चंदेल ने ये प्रदेश जीत जिए। इसके बाद इस
वंश का इतिहास में केई चिह्न नहीं मिलता।
दक्षिण भारत में कलचुरी शासन –
कलचुरियों ने दक्षिण भारत से कल्याणी के चालुक्यों को
उखाड़ फेंका और एक विशाल साम्राज्य की स्थापन किये | उन्होंने मंगलवेदा को अपनी
राजधानी बनाई | उन्होंने कलंजरापुरवाराधिस्वर की उपाधि धारण की थी, जो यह संकेत
करता है की उनकी उत्पति मध्य भारत से हुई थी | वे आरम्भ में कल्याणी के चालुक्यों
के सामंत थे | 1174 ई० में उत्कीर्ण एक शिलालेख से यह ज्ञात होता है की कलचुरी वंश
का संस्थापक हैहय वंशी सोम था | सोम महाभारत के प्रमुख पात्र अश्वथामा का शिष्य था
| पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सोम ने
अधर्मी ब्राह्मण परशुराम के कोप से बचने के लिए अपना वेश बदलकर लम्बी दाढ़ी एवं
मूछें बढ़ा ली थी, इसलिए उनके वंशज कलचुरी कहलाये | कल्ली का शाब्दिक अर्थ होता है –
लम्बी मूछें एवं चुरी का अर्थ होता है – तेज चाकू | इस वंश का कर्णाटक में प्रथम
प्रसिद्ध शासक उचिता हुआ तथा सबसे प्रतापी शासक बिज्जाला हुआ | बिज्जाला के हत्या
के बाद उसके उत्तराधिकारी सोविदेव को छोड़कर अन्य शासक राज्य की सीमा की रक्षा में
कमजोर साबित हुए और इस साम्राज्य का धीरे-धीरे पतन हो गया | आंध्र साहित्य में
वर्णित ‘पल्नाडू की लड़ाई’ के मुख्य पात्र कलचुरी ही थे | कलचुरी शासकों ने जैन
धर्म को प्रश्रय दिया |
कलचुरी शासक बिज्जाला द्वारा 1160 ई० में कन्नड़ में उत्कीर्ण हीरो शिलालेख, जो कर्णाटक
के शिमोगा जिले के बल्लिगावी के केदारेश्वर मंदिर में स्थित है |
Old Kannada inscription
of Rayamuri Sovideva dated 1172 A.D. at the Jain temple in Lakkundi, Gadag
district, Karnataka state
दक्षिण भारत में प्रमुख कलचुरी शासक
- उचिता
- असागा
- कन्नम
- किरियासगा
- बिज्जाला
I
- कन्नमा
- जोगमा
- बिज्जाला
II (1130-1167) -1162 में स्वतंत्रता की घोषणा की |
- सोविदेव
(1168-1176)
- मल्लुगी
(भाई संकर्मा द्वारा गद्दी से हटाया गया)
- संकर्मा
(1176- 1180)
- अश्वमल्ल
(1180-1183)
- सिन्घन
(1183-1184)
चेदि (कलचुरि) राज्य में सांस्कृतिक स्थिति
कर्ण, यश:कर्ण और जयसिंह ने सम्राट की प्रचलित
उपाधियों के अतिरिक्त अश्वपति, गजपति, नरपति,
और राजत्रयाधिपति की उपाधियाँ धारण की। कोक्कल्ल प्रथम के द्वारा
अपने 17 पुत्रों की राज्य के मंडलों में नियुक्ति चेदि राज्य के शासन में राजवंश
के व्यक्तियों को महत्वपूर्ण स्थान देने के चलन का उदाहरण है। राज्य को राजवंश का
सामूहिक अधिकार माना जाता था। राज्य में महाराज के बाद युवराज अथवा महाराजपुत्र का
स्थान था। महारानियाँ भी राज्यकार्य में महत्वपूर्ण स्थान रखती थीं। मंत्रिमुख्यों
के अतिरिक्त अभिलेखों में महामंत्रिन्, महामात्य, महासांधिविग्रहिक, महाधर्माधिकरण, महापुरोहित, महाक्षपटलिक, महाप्रतीहार,
महासामंत और महाप्रमातृ के उल्लेख मिलते हैं। मंत्रियों का राज्य
में अत्यधिक प्रभाव था। कभी-कभी वे सिंहासन के लिए राज्य परिवार में से उचित
व्यक्ति का निर्धारण करते थे। राजगुरु का भी राज्य के कार्यों में गौरवपूर्ण महत्व
था। सेना के अधिकारियों में महासेनापति के अतिरिक्त महाश्वसाधनिक का उल्लेख आया है
जो सेना में अश्वारोहियों के महत्व का परिचायक है। कुछ अन्य अधिकारियों के नाम हैं :
धर्मप्रधान, दशमूलिक, प्रमत्तवार,
दुष्टसाधक, महादानिक, महाभांडागारिक,
महाकरणिक और महाकोट्टपाल। नगर का प्रमुख पुर प्रधान कहलाता था। पद
वंशगत नहीं थे, यद्यपि व्यवहार में किसी अधिकारी के वंशजों
को राज्य में अपनी योग्यता के कारण विभिन्न पदों पर नियुक्त किया जाता था।
धर्माधिकरण के साथ एक पंचकुल (समिति) संयुक्त होता था। संभवत: ऐसी समितियाँ अन्य
विभागों के साथ भी संयुक्त है। राज्य के भागों के नामों में मंडल और पत्तला का
उल्लेख अधिक थी। चेदि राजाओं का अपने सामंतों पर प्रभावपूर्ण नियंत्रण था।
राज्य-करों की सूची में पट्टकिलादाय और दुस्साध्यादाय उल्लेखनीय हैं, ये संभव: इन्हीं नामों के अधिकारियों के वेतन के रूप में एकत्रित किए जाते
थे। इसी प्रकार घट्टपति और तरपति भी कर उगाहते थे। शौल्किक शुल्क एकत्रित करनेवाला
अधिकारी था। विषयादानिक भी कर एकत्रित करनेवाला अधिकारी था। विक्रय के लिए वस्तुएँ
मंडपिका में आती थीं जहाँ उनपर कर लगाया जाता था।
कलचुरि नरेश कर्ण ने हूण राजकुमारी आवल्लदेवी से विवाह
किया था, उसी की संतान यश:कर्ण था। बहुविवाह का प्रचलन उच्च
कुलों में विशेष रूप से था। सती का प्रचलन था किंतु स्त्रियाँ इसके लिए बाध्य नहीं
थीं। संयुक्त-परिवार-व्यवस्था के कई प्रमाण मिलते हैं। व्यवसाय और उद्योग
श्रेणियों के रूप में संगठित थे। नाप की इकाइयों में खारी, खंडी,
गोणी, घटी, भरक इत्यादि
के नाम मिलते हैं। गांगेयदेव ने बैठी हुई देवी की शैली के सिक्के चलाए। ये तीनों
धातुओं में उपलब्ध हैं। यह शैली उत्तरी भारत की एक प्रमुख शैली बन गई और कई
राजवंशों ने इसका अनुकरण किया।
धर्म के क्षेत्र में सामान्य प्रवृत्ति समन्वयवादी और
उदार थी। ब्रह्मा, विष्णु ओर रुद्र की समान पूजा होती थी। विष्णु के
अवतारों में कृष्ण के स्थान पर बलराम की अंकित किए जाते थे। विष्णु की पूजा का
अत्यधिक प्रचलन था किंतु शिव-पूजा उससे भी अधिक जनप्रिय थी। चेदि राजवंश के देवता
भी शिव थे। युवराज देव प्रथम के समय में शैवधर्म का महत्व बढ़ा। उसने मत्तमयूर
शाखा के कई शैव आचार्यों को चेदि देश में बुलाकर बसाया और शैव मंदिरों और मठों का
निर्माण किया। कुछ शैव आचार्य राजगुरु के रूप में राज्य के राजनीतिक जीवन में
महत्व रखते थे। गोलकी मठ में 64 योगिनियों और गणपति की मूर्तियाँ थीं। वह मठ
दूर-दूर के विद्वानों और धार्मिकों के आकर्षण का केंद्र था और उसकी शाखाएँ भी कई
स्थानों में स्थापित हुई थीं। ये मठ शिक्षा के केंद्र थे। इनमें जनकल्याण के लिए
सत्र तो थे ही, इनके साथ व्याख्यानशालाओं का भी उल्लेख आता
है। गणेश, कार्तिकेय, अंबिका, सूर्य और रेवंत की मूर्तियाँ उपलब्ध होती हैं। बौद्ध और जैन धर्म भी
समृद्ध दशा में थे।
चेदि नरेश दूर-दूर के ब्राह्मणों को बुलाकर उनके अग्रहार
अथवा ब्रह्मस्तंब स्थापित करते थे। इस राजवंश के नरेश स्वयं विद्वान् थे। मायुराज
ने उदात्ताराघव नाम के एक नाटक और संभवम: किसी एक काव्य की भी रचना की थी। भीमट ने
पाँच नाटक रचे जिनमें स्वप्नदशानन सर्वश्रेष्ठ था। शंकरगण के कुछ श्लोक सुभाषित
ग्रंथों में मिलते हैं। राजशेखर के पूर्वजों में अकालजलद, सुरानंद,
तरल और कविराज चेदि राजाओं से ही संबंधित थे। राजशेखर ने भी कन्नौज
जाने से पूर्व ही छ: प्रबंधों की रचना की थी और बालकवि की उपाधि प्राप्त की थी।
युवराजदेव प्रथम के शासनकाल में वह फिर त्रिपुरी लौटा जहाँ उसने विद्धशालभंजिका और
काव्यमीमांसा की रचना की। कर्ण का दरबार कवियों के लिए पसिद्ध था। विद्यापति और
गंगाधर के अतिरिक्त वल्लण, कर्पूर और नाचिराज भी उसी के
दरबार में थे। बिल्हण भी उसके दरबार में आया था। कर्ण के दरबार में प्राय:
समस्यापूरण की प्रतियोगिता होती थी। कर्ण ने प्राकृत के कवियों को भी प्रोत्साहन
दिया था।
कलचुरि नरेशों ने, विशेष रूप से युवराजदेव प्रथम, लक्ष्मणराज द्वितीय और कर्ण ने, चेदि देश में अनेक
भव्य मंदिर बनवाए। इनके उदाहरण पर कई मंत्रियों और सेनानायकों ने भी शिव के मंदिर
निर्मित किए। इनमें से अधिकांश की विशेषता उनका वृत्ताकार गर्भगृह है। इनकी
मूर्तियों की कला पर स्थानीय जन का प्रभाव स्पष्ट है। ये मूर्तिफलक विषय की अधिकता
और भीड़ से बोझिल से लगते हैं।
[संपादित
करें]संदर्भ
·
वासुदेव विष्णु मिराशी : इंसक्रिप्शंस ऑव दि कलचुरि-चेदि इरा ;
·
आर.डी.बनर्जी : दि
हैहयाज़ ऑव त्रिपुरी ऐंड देयर मान्यूमेंट्स
1.
↑ नाहर, डॉ रतिभानु
सिंह (1974). प्राचीन भारत का राजनैतिक एवं
सांस्कृतिक इतिहास. इलाहाबाद, भारत: किताबमहल. प॰ 112.
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