महाजनपद
महाजनपद प्राचीन भारत मे राज्य या
प्रशासनिक इकाईयों को कहते थे । उत्तर वैदिक काल में कुछ जनपदों
का उल्लेख मिलता है । बौद्ध ग्रंथों में इनका कई बार उल्लेख हुआ है ।
गणना और स्थिति
ईसा पूर्व छठी सदी में वैयाकरण पाणिनी ने 22 महाजनपदों
का उल्लेख किया है । इनमें से तीन - मगध, कोसल तथा वत्स को
महत्वपूर्ण बताया गया है ।
आरंभिक बौद्ध तथा जैन ग्रंथों में इनके बारे में अधिक
जानकारी मिलती है । यद्यपि कुल सोलह महाजनपदों का नाम मिलता है पर ये नामाकरण
अलग-अलग ग्रंथों में भिन्न-भिन्न हैं । इतिहासकार ऐसा मानते हैं कि ये अन्तर
भिन्न-भिन्न समय पर राजनीतिक परिस्थितियों के बदलने के कारण हुआ है । इसके
अतिरिक्त इन सूचियों के निर्माताओं की जानकारी भी उनके भौगोलिक स्थिति से अलग हो
सकती है । बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तर निकाय , महावस्तु मे 16 महाजनपदों का उल्लेख है-
·
कुरु - आधुनिक हरियाणा तथा दिल्ली का यमुना नदी के पश्चिम वाला
अंश शामिल था । इसकी राजधानी आधुनिक दिल्ली (इन्द्रप्रस्थ)
थी ।
·
कोशल - उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिला, गोंडा और बहराइच के
क्षेत्र शामिल थे । इसकी राजधानी श्रावस्ती थी ।
·
गांधार - पाकिस्तान का पश्चिमी तथा अफ़ग़ानिस्तान का पूर्वी
क्षेत्र । इसे आधुनिक कंदहार से जोड़ने की
गलती कई बार लोग कर देते हैं जो कि वास्तव में इस क्षेत्र से कुछ दक्षिण में स्थित
था ।
·
वज्जि या वृजि - आठ गणतांत्रिक कुलों का
संघ जिसकी प्रदेश उत्तर बिहार में गंगा के उत्तर में था तथा जिसकी राजधानी वैशाली थी ।
ये सभी महाजनपद ई० पू० 600 से ई० पू० 300 के बीच आज के
उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान से बिहार तक और हिन्दुकूश से गोदावरी नदी तक में फैला हुआ था
। दीर्घ निकाय के महागोविंद सुत्त में भारत की
आकृति का वर्णन करते हुए उसे उत्तर में आयताकार तथा दक्षिण में त्रिभुजाकार यानि
एक बैलगाड़ी की तरह बताया गया है । बौद्ध निकायों में भारत को पाँच भागों में
वर्णित किया गया है - उत्तरापथ (पश्चिमोत्तर भाग), मध्यदेश, प्राची (पूर्वी भाग) दक्षिणापथ तथा अपरांत (पश्चिमी भाग) का उल्लेख मिलता है । इससे इस बात का भी प्रमाण मिलता है कि
भारत की भौगोलिक एकता ईसापूर्व छठी सदी से ही परिकल्पित है । इसके अतिरिक्त जैन
ग्रंथ भगवती सूत्र और सूत्र कृतांग, पाणिनी की अष्टाध्यायी, बौधायन धर्मसूत्र (ईसापूर्व सातवीं सदी में रचित) और महाभारत में उपलब्ध जनपद सूची पर दृष्टिपात करें तो पाएंगे कि उत्तर में हिमालय से
कन्याकुमारी तक तथा पष्चिम में गांधार प्रदेश से लेकर पूर्व में असम तक का प्रदेश इन जनपदों से आच्छादित
था । कौटिल्य ने एक चक्रवर्ती सम्राट के अन्तर्गत संपूर्ण देश की रादनीतिक एकता की
परिकल्पना की थी । ईसापूर्व छठी सदी से ईसापूर्व दूसरी सदी तक प्रचलन में रहे आहत
सिक्को के वितरण से अन्देशा होता है कि ईसापूर्व चौथी सदी तक सम्पूर्ण भारत में एक
ही मुद्रा प्रचलित थी । इससे उस युग में भारत के एकीकरण की साफ़ झलक दिखती है ।
सत्ता संघर्ष
ईसापूर्व छठी सदी में जिन चार महत्वपूर्ण राज्यों ने
प्रसिद्धि प्राप्त की उनके नाम हैं - मगध के हर्यंक, कोसल के इक्ष्वाकु, वत्स के पौरव और अवंति के प्रद्योत । हर्यंक एक ऐसा वंश था जिसकी स्थापना
बुहद्रथों को परास्त करवने के लिए बिंबिसार द्वारा मगध में की गई थी । प्रद्योतों का नाम ऐसा उस वंश के संस्थापक के
कारण ही था । संयोग से महाभारत में वर्णित प्रसिद्ध राज्य - कुरु-पांचाल, काशी और
मत्स्य इस काल में भी थे पर उनकी गिनती अब छोटी शक्तियों में होती थी ।
ईसापूर्व छठी सदी में अवंति के राजा
प्रद्योत ने कौशाम्बी के राजा तथा प्रद्योत के दामाद उदयन के साथ लड़ाई हुई थी ।
उससे पहले उदयन ने मगध की राजधानी राजगृह पर हमला किया था । कोसल के राजा प्रसेनजित ने काशी को अपने अधीन कर लिया और बाद
में उसके पुत्र ने कपिलवस्तु के शाक्यराज्य
को जीत लिया । मगध के राजा बिंबिसार ने अंग को अपने में मिला लिया तथा उसके पुत्र
अजातशत्रु ने वैशाली क लिच्छवियों को जीत लिया ।
ईसापूर्व पाँचवी सदी में पैरव और प्रद्योत सत्तालोलुप नही
रहे और हर्यंको तथा इक्ष्वांकुओं ने राजनीतिक मंच पर मोर्चा सम्हाल लिया ।
प्रसेनजित तथा अजातशत्रु के बीच संघर्ष चलता रहा । इसका हंलांकि कोई परिणाम नहीं
निकला और अंततोगत्वा मगध के हर्यंकों को जात मिली । इसके बाद मगध उत्तर भारत का
सबसे शक्तिशाली राज्य बन गया । ४७५ ईसापूर्व में अजातशत्रु की मृत्यु के बाद उसके
पुत्र उदयिन ने सत्ता संभाली और उसी ने मगध की राजधानी राजगृह से पाटलिपुत्र
(पटना) स्थानांतरित की । हँलांकि लिच्छवियों से लड़ते समय अजातशत्रु ने ही
पाटलिपुत्र में एक दुर्ग बनवाया था पर इसका उपयोग राजधानी के रूप में उदयिन ने ही
किया ।
उदयिन तथा उसके उत्तराधिकारी प्रशासन तथा राजकाज में
निकम्मे रहे तथा इसके बाद शिशुनाग वंश का उदय हुआ । शिशुनाग के पुत्र कालाशोक के
बाद महापद्म नंद नाम का व्यक्ति सत्ता पर काबिज हुआ । उसने मगध की श्रेष्ठता को और
उँचा बना दिया ।
महाजनपद
बौद्ध और
जैन धर्म के प्रारंम्भिक ग्रंथों में महाजनपद नाम के सोलह राज्यों का विवरण मिलता
है। महाजनपदों के नामों की सूची इन ग्रंथों में समान नहीं है परन्तु वज्जि, मगध,कोशल, कुरु, पांचाल, गांधार और
अवन्ति जैसे नाम अक्सर मिलते हैं। इससे यह ज्ञात होता है कि ये महाजनपद
महत्त्वपूर्ण महाजनपदों के रूप में जाने जाते होंगे। अधिकांशतः महाजनपदों पर राजा
का ही शासन रहता था परन्तु गण और संघ नाम से प्रसिद्ध राज्यों में लोगों का समूह
शासन करता था, इस समूह का हर व्यक्ति राजा कहलाता था। हर एक महाजनपद की एक राजधानी थी जिसे क़िले से घेरा दिया जाता था। भारत के
सोलह महाजनपदों का उल्लेख ईसा पूर्व छठी शताब्दी से भी पहले का है। ये महाजनपद थे:
1. अवन्ति: आधुनिक मालवा का प्रदेश जिसकी राजधानी उज्जयिनी और महिष्मति थी।
उज्जयिनी (उज्जैन) मध्य प्रदेश राज्य का एक प्रमुख शहर है। जैन ग्रंथ भगवती सूत्र
में इसी जनपद को मालव कहा गया है। इस जनपद में स्थूल रूप से वर्तमान मालवा, निमाड़ और मध्य प्रदेश का बीच का भाग सम्मिलित था।
पुराणों के अनुसार अवंती की स्थापना हैहय कुल के यदुवंशी क्षत्रियों द्वारा की गई
थी। कार्तवीर्य अर्जुन इस वंश का सबसे प्रतापी राजा था, जिसे सहस्त्रबाहु भी कहा
जाता था | इनके वंशज तालजंघ एवं वीतिहोत्र यादव के नाम से विख्यात हुए | चतुर्थ
शती ई. पू. में अवन्ती का जनपद मौर्य-साम्राज्य में सम्मिलित था और उज्जयिनी
मगध-साम्राज्य के पश्चिम प्रांत की राजधानी थी। गुप्त काल में चंद्रगुप्त
विक्रमादित्य ने अवंती को पुन: विजय किया और वहाँ से विदेशी सत्ता को उखाड़ फैंका।
मध्यकाल में इस नगरी को मुख्यत: उज्जैन ही कहा जाता था और इसका मालवा के सूबे के
एक मुख्य स्थान के रूप में वर्णन मिलता है। जैन ग्रन्थ विविधतीर्थ कल्प में मालवा
प्रदेश का ही नाम अवंति या अवंती है। महाकाल की शिव के द्वादश ज्योतिर्लिगों में
गणना की जाती है। इसी कारण इस नगरी को शिवपुरी भी कहा गया है। प्राचीन अवंती
वर्तमान उज्जैन के स्थान पर ही बसी थी, यह तथ्य इस बात से
सिद्ध होता है कि क्षिप्रा नदी जो आजकल भी उज्जैन के निकट बहती है, प्राचीन साहित्य में भी अवंती के निकट ही वर्णित है।
2. चेदि: वर्तमान में बुंदेलखंड का इलाक़ा इसके अर्न्तगत आता है। गंगा और
नर्मदा के बीच के क्षेत्र का प्राचीन नाम चेदि था। बौद्ध ग्रंथों में जिन सोलह
महाजनपदों का उल्लेख है उनमें यह भी था। महाभारत के समय यदुवंशी शासक शिशुपाल यहाँ
का प्रसिद्ध राजा था। उसका विवाह रुक्मिणी से होने वाला था कि श्रीकृष्ण ने
रूक्मणी का हरण कर दिया इसके बाद ही जब युधिष्ठर के राजसूय यज्ञ में श्रीकृष्ण को
पहला स्थान दिया तो शिशुपाल ने उनकी घोर निंदा की। इस पर श्रीकृष्ण ने उसका वध कर
डाला। मध्य प्रदेश का ग्वालियर क्षेत्र में वर्तमान चंदेरी कस्बा ही प्राचीन काल
के चेदि राज्य की राजधानी बताया जाता है। महाभारत में चेदि देश की अन्य कई देशों
के साथ, कुरु के परिवर्ती देशों
में गणना की गई है। कर्णपर्व में चेदि देश के निवासियों की प्रशंसा की गई है।
महाभारत के समय कृष्ण का प्रतिद्वंद्वी शिशुपाल चेदि का शासक था। इसकी राजधानी
शुक्तिमती बताई गई है। खारवेल के हथिगुम्फा अभिलेख के अनुसार चेदि वंश के ही एक
शाखा ने कालांतर में कलिंग साम्राज्य के स्थापना किये थे |
तथ्य
§ रैपसन के अनुसार कशु या कसु महाभारत
में वर्णित चेदिराज वसु है [2] और इन्द्र के कहने से उपरिचर राजा वसु ने रमणीय चेदि देश का
राज्य स्वीकार किया था।
§ महाभारत के समय* कृष्ण का प्रतिद्वंद्वी शिशुपाल चेदि का शासक था। इसकी राजधानी
शुक्तिमती बताई गई है। चेतिय जातक* में
चेदि की राजधानी सोत्थीवतीनगर कही गई है जो श्री नं0 ला॰ डे के मत में शुक्तिमती ही है* इस
जातक में चेदिनरेश उपचर के पांच पुत्रों द्वारा हत्थिपुर, अस्सपुर, सीहपुर,
उत्तर पांचाल और दद्दरपुर नामक नगरों के बसाए जाने का उल्लेख है।
§ महाभारत* में शुक्तिमती को शुक्तिसाह्वय भी कहा गया है।
§ अंगुत्तरनिकाय में सहजाति नामक नगर की स्थिति चेदि प्रदेश में मानी
गई है।* सहजाति इलाहाबाद से दस मील पर स्थित भीटा है।
चेतियजातक में चेदिनरेश की नामावली है जिनमें से अंतिम उपचर या अपचर, महाभारत आदि0 पर्व 63
में वर्णित वसु जान पड़ता है।
§ विष्णु पुराण में चेदिराज शिशुपाल का उल्लेख है।*
§ मिलिंदपन्हो* में चेति या चेदि का चेतनरेशों से संबंध सूचित होता है। सम्भवतः
कलिंगराज खारवेल इसी वंश का राजा था। मध्ययुग में चेदि प्रदेश की दक्षिणी सीमा
अधिक विस्तृत होकर मेकलसुता या नर्मदा तक जा पहुँची थी जैसा कि कर्पूरमंजरी से
सूचित होता [5] कि
नदियों में नर्मदा, राजाओं में
रणविग्रह और कवियों में सुरानन्द चेदिमंडल के भूषण हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
1. ↑ 'तामे अश्विना सनिनां विद्यातं नवानाम्। यथा चिज्जेद्य: कशु:
शतुमुष्ट्रानांददत्सहस्त्रा दशगोनाम्। यो में हिरण्य सन्दृशो दशराज्ञो अमंहत।
अहस्पदाच्चैद्यस्य कृष्टयश्चर्मम्ना अभितो जना:। माकिरेना पथागाद्येनेमें यन्ति
चेदय:। अन्योनेत्सूरिरोहिते भूरिदावत्तरोजन:' ऋग्वेद / 8,5,37-39
।
3. ↑ 'सन्ति रम्या जनपदा बह्लन्ना: परित: कुरुन् पांचालाश्चेदिमत्स्याश्च
शूरसेना: पटच्चरा:' महाभारत विराट0 पर्व
/ 1,12
4. ↑ 'कौरवा: सहपांचाला: शाल्वा: मत्स्या: सनैमिषा: चैद्यश्च महाभागा धर्म
जानन्तिशाश्वत्म' कर्णपर्व / 45,14-16
5. ↑ 'नदीनां मेकलसुतान्नृपाणां रणविग्रह:, कवीनांच
सुरानंदश्चेदिमंडलमंडनम्' कर्पूरमंजरी स्टेनकोनो पृ0
182
3. मत्स्य: इसमें राजस्थान के अलवर, भरतपुर तथा जयपुर ज़िले के क्षेत्र शामिल थे। महाभारत काल का एक प्रसिद्ध
जनपद जिसकी स्थिति अलवर-जयपुर के परिवर्ती प्रदेश में मानी गई है। इस देश में
विराट का राज था तथा वहाँ की राजधानी उपप्लव नामक नगर में थी। विराट नगर मत्स्य
देश का दूसरा प्रमुख नगर था। सहदेव ने अपनी दिग्विजय-यात्रा में मत्स्य देश पर
विजय प्राप्त की थी। भीम ने भी मत्स्यों को विजित किया था। पांडवों ने मत्स्य देश
में विराट के यहाँ रह कर अपने अज्ञातवास का एक वर्ष बिताया था। पाली साहित्य के अनुसार मत्सयों का उत्पति शूरसेन वंश से हुआ था |मत्स्य
की एक शाखा बाद में विशाखापत्तनम चली गयी | राजा सुजाता ने चेदि एवं मत्स्य दोनों
जनपद पर राज किया था , जो यह साबित करते हैं की दोनों एक ही वंश के थे |
4. शूरसेन: शूरसेन महाजनपद उत्तरी-भारत का प्रसिद्ध जनपद था जिसकी राजधानी मथुरा
में थी। विष्णु पुराण में शूरसेन के निवासियों को ही संभवत: शूर कहा गया है
और इनका आभीरों के साथ उल्लेख है | श्री कृष्ण के दादा जी एवं पांडवों के नाना
शूरसेन के नाम पर इस प्रदेश का नाम शूरसेन पड़ा | इसके वंशज सौरसैनी भी कहे जाते थे
| सिकंदर का प्रतिद्वंदी पोरस भी सौरसैनी था | यह जनपद मत्स्य जनपद के पूर्व एवं
यमुना नदी के पश्चिम में अवस्थित थी | इसके अंतर्गत उत्तरप्रदेश का ब्रज क्षेत्र,
हरियाणा, राजस्थान एवं मध्यप्रदेश का ग्वालियर क्षेत्र आता था | पाणिनी के
अष्टाध्यायी में मथुरा के अन्धक एवं वृष्णि वंश के लोगों को शूरसेन कहा गया है |
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में वृष्णियों का वर्णन संघ अथवा गणतंत्र के रूप में किया
गया है | इसमें कहा गया है कि वृष्णि, अन्धक एवं यादवों के अन्य कुलों को मिलाकर
एक संघ के स्थापना किया गया था तथा वसुदेव कृष्ण को संघ मुखिया कहा गया है |
मेगास्थनीज के समय भी शूरसेन जनपद की राजधानी मथुरा में कृष्ण की पूजा की जाती थी
|
वैशाली का नामकरण महाभारत काल के इक्षवाकु वंश के एक राजा के नाम पर हुआ था। ऐतिहासिक
प्रमाणों के अनुसार वैशाली ने ही विश्व का सबसे पहला गणतंत्र कायम किया। यह स्थान
जैन धर्म के 24वे तीर्थकर भगवान महावीर की जन्म स्थली भी है।
इस कारण जैन धर्म के मतावलम्बियों के लिए वैशाली एक
पवित्र स्थान है। इस पवित्र धरती पर भगवन बुद्ध का
तीन बार आगमन हुआ था। भगवन बुद्ध के समय इसके सोलह महाजनपद थे और मगध के समान ही यह स्थान भी बहुत महत्वपूर्ण था। आधुनिक समय में यह स्थान बिहार प्रान्त के तिरहुत मंडल का
एक जिला है। इसका मुख्यालय हाजीपुर है।
विष्णु पुराण के
अनुसार यदु के चार पुत्रों में एक का नाम क्रोष्टा था। क्रोष्टा कुल में आगे चलकर भगवान श्रीकृष्ण अवतरित हुए वही उनके (यदु के) के एक अन्य पुत्र सहस्त्रजित के
कुल में आगे चलकर हैहय उत्पन्न हुए। उसके वंशज हैहय वंशीय यादव क्षत्रिय कहलाये।
इसी हैहय वंश में आगे चलकर तालजंघ नमक एक प्रतापी राजा
हुआ। इक्षवाकु वंश के राजा सगर के पिता का नाम बाहु
था। एक बार हैहय वा तालजंघ वंश
के यादव क्षत्रियों ने उसको
(बाहु को) युद्ध में परास्त कर दिया था। तब वह भागकर वन में चला गया था और सागर के पैदा होने से पूर्व ही स्वर्ग गमन कर गया था।
सगर के पिता बाहु को
पराजित करके हैहय वंशियों ने वैशाली में अपने पराक्रम से आठ गणराज्यो वाले एक शक्तिशाली राज्य की स्थापना की, जिसे 'वज्जि' संघ कहा जाता था।
पाणिनि ने इसको 'वृज्जि'
संघ का नाम दिया है। इस गण की राजधानी
वैशाली थी। कई इतिहासकार विदेहों और लिच्छवि
(लिच्छवियों) के संगठन को वृजिगण मानते हैं,।किन्तु कौटिल्य अर्थशास्त्र 'लिच्छवि' गण को वृज्जि से
अलग मानता है। लिच्छवि-वृज्जि गण जहाँ एक ओर
लम्बे समय तक अपनी स्वतंत्रता कायम रखने में कामयाब रहे
वहीं भारत के इतिहास में एक वीर एवं शक्तिशाली गण के
रूप में अपनी अमिट छाप भी बनाये रखी।
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