बुधवार, 6 अगस्त 2014

यादव संस्कृति


यादव जाति : एक परिचय :-
(1)
यदोवनशं नरः श्रुत्त्वा सर्वपापैः परमुच्यते।
यत्राव्तीर्णं कृष्णाख्यं परंब्रह्म निराकृति ।।
(श्री विष्णु पुराण)
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(2)
वर्णयामि महापुण्यं सर्वपापहरं नृणां ।
यदोर्वन्शं नरः श्रुत्त्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते।
यत्र-अवतीर्णो भग्वान् परमात्मा नराकृतिः।
यदोसह्त्रोजित्क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुताः।।
(श्रीमदभग्वत् -महापुराण)

अर्थ:
(यदु वंश परम पवित्र वंश है. यह मनुष्य के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है. इस वंश में स्वयम भगवान परब्रह्म ने मनुष्य के रूप में अवतार लिया था जिन्हें श्रीकृष्ण कहते है. जो मनुष्य यदुवंश का श्रवण करेगा वह समस्त पापों से मुक्त हो जाएगा.
      यादव भारत एवं नेपाल में निवास करने वाला एक प्रमुख जाति है, जो चंद्रवंशी राजा यदु के वंशज हैं | इस वंश में अनेक शूरवीर एवं चक्रवर्ती राजाओं ने जन्म लिया है, जिन्होंने अपने बुद्धि, बल और कौशल से कालजयी साम्राज्य की स्थापना किये | भाफ्वान श्री कृष्ण इनके पूर्वज माने जाते हैं |

      प्रबुद्ध समाजशास्त्री एम्. एस ए राव के अनुसार यादव एक हिन्दू जाति वर्ण, आदिम जनजाति या नस्ल है, जो भारत एवं नेपाल में निवास करने वाले परम्परागत चरवाहों एवं गड़ेरिया समुदाय अथवा कुल का एक समूह है और अपने को पौराणिक राजा यदु के वंशज मानते हैं | इनका मुख्य व्यवसाय पशुपालन और कृषि था |
      यादव जाति की जनसंख्या भारत की कुल जनसंख्या के लगभग 9% है | अलग-अलग राज्यों में यादवों की आबादी का अनुपात अलग-अलग है| 1931 ई० की जनगणना के अनुसार बिहार में यादवों की आबादी लगभग 11% एवं उत्तर प्रदेश में 8.7% थी | यादव भारत की सर्वाधिक आबादी वाली जाति है, जो कमोबेश भारत के सभी प्रान्तों में निवास करती है | नेपाल में भी यादवों के आबादी लगभग 10% के आसपास है| नेपाल के तराई क्षेत्र में यादव जाति की बहुलता अधिक है, जहाँ इनकी आबादी 15 से 30% है|
      वर्त्तमान एवं आधुनिक भारत में यादव समुदाय को भारत की वर्त्तमान सामाजिक एवं जातिगत संरचना के आधार पर मुख्य रूप से तीन जाति वर्ग में विभक्त किया जा सकता है | ये तीन प्रमुख जाति वर्ग है –
1.   अहीर, ग्वाला, आभीर या गोल्ला जाति
2.   कुरुबा, धनगर, पाल, बघेल या गड़ेरिया जाति तथा
3.   यदुवंशी राजपूत जाति
1.     अहीर, ग्वाला, आभीर - वर्तमान में अपने को यादव कहनेवाले ज्यादातर लोग इसी जाति वर्ग से आते हैं | यह योद्धा जाति रही है, परन्तु राज्य के नष्ट हो जाने पर जीवकोपार्जन हेतु इन्होनें कृषि एवं पशुपालन का व्यवसाय अपना लिया | इनका इतिहास बहुत ही संघर्षपूर्ण रहा है | अलग-अलग कालखंडों में इनकी सामाजिक स्थिति अलग -अलग रही है | प्राचीन काल में ये क्षत्रिय वर्ण के अंतर्गत आते थे, परन्तु कालांतर में आर्थिक स्थिति ख़राब हो जाने एवं पशुपालन व्यवसाय के अपनाने के कारण इन्हें शुद्र भी कहा गया है | इस जाति का गौपालन के साथ पुराना रिश्ता रहा है | अहीरों की तीन मुख्य शाखाएं है यदुवंशी, नंदवंशी एवं ग्वालवंशी |
      अहीर, ग्वाला, गोप आदि यादव के पर्यायवाची है | पाणिनी, कौटिल्य एवं पंतजलि के अनुसार अहीर जाति के लोग हिन्दू धर्म के भागवत संप्रदाय के अनुयायी हैं
अमरकोष मे गोप शब्द के अर्थ गोपाल, गोसंख्य, गोधुक, आभीर, वल्लब, ग्वाला व अहीर आदि बताये गए हैं। प्राकृत-हिन्दी शब्दकोश के अनुसार भी अहिर, अहीर, आभीर व ग्वाला समानार्थी शब्द हैं। हिन्दी क्षेत्रों में अहीर, ग्वाला तथा यादव शब्द प्रायः परस्पर समानार्थी माने जाते हैं। वे कई अन्य नामो से भी जाने जाते हैं, जैसे कि गवली, घोसी या घोषी, तथा बुंदेलखंड मे दौवा अहीर।
      गंगाराम गर्ग के अनुसार अहीर प्राचीन अभीर समुदाय के वंशज हैं, जिनका वर्णन महाभारत तथा टोलेमी के यात्रा वृतान्त में भी किया गया है| उनके अनुसार अहीर संस्कृत शब्द अभीर का प्राकृत रूप है| अभीर का शाब्दिक अर्थ होता है- निर्भय या निडर| वे बताते हैं की बर्तमान समय में भी बंगाली एवं मराठी भाषा में अहीर को अभीर ही कहा जाता है|
अहीरों की ऐतिहासिक उत्पत्ति को लेकर विभिन्न इतिहासकर एकमत नहीं हैं। परंतु महाभारत या श्री मदभागवत गीता के युग मे भी यादवों के आस्तित्व की अनुभूति होती है तथा उस युग मे भी इन्हें आभीर, अहीर, गोप या ग्वाला ही कहा जाता था।[20] कुछ विद्वान इन्हे भारत मे आर्यों से पहले आया हुआ बताते हैं, परंतु शारीरिक गठन के अनुसार इन्हें आर्य माना जाता है।[21] 
पौराणिक दृष्टि से, अहीर या आभीर यदुवंशी राजा आहुक के वंशज है। संगम तंत्र मे उल्लेख मिलता है कि राजा ययाति के दो पत्नियाँ थीं-देवयानी व शर्मिष्ठा। देवयानी से यदु व तुर्वशू नामक पुत्र हुये। यदु के वंशज यादव कहलाए। यदुवंशीय भीम सात्वत के वृष्णि आदि चार पुत्र हुये व इन्हीं की कई पीढ़ियों बाद राजा आहुक हुये, जिनके वंशज आभीर या अहीर कहलाए।[22]
आहुक वंशात समुद्भूता आभीरा इति प्रकीर्तिता।(पृष्ठ 164)
इस पंक्ति से स्पष्ट होता है कि यादव व आभीर मूलतः एक ही वंश के क्षत्रिय थे तथा "हरिवंश पुराण" मे भी इस तथ्य की पुष्टि होती है।[23]
ऐतिहासिक दृष्टिकोण से, अहीरों ने 108 AD॰ मे मध्य भारत मे स्थित 'अहीर बाटक नगर' या 'अहीरोरा' व उत्तर प्रदेश के झाँसी जिले मे 'अहिरवाड़ा' की नीव रखी थी। रुद्रमूर्ति नामक अहीर अहिरवाड़ा का सेनापति था जो कालांतर मे राजा बना। माधुरीपुत्र, ईश्वरसेन व शिवदत्त इस बंश के मशहूर राजा हुये, जो बाद मे यादव राजपूतो मे सम्मिलित हो गये।[1]
तमिल भाषा के एक- दो विद्वानों को छोडकर शेष सभी भारतीय विद्वान इस बात से सहमत हैं कि अहीर शब्द संस्कृत के आभीर शब्द का तद्भव रूप है।[12] आभीर (हिंदी अहीर) एक घुमक्कड़ जाति थी जो शकों की भांति बाहर से हिंदुस्तान में आई।[13]
आभीरों को म्लेच्छ देश में निवास करने के कारण अन्य स्थानीय आदिम जातियों के साथ म्लेच्छों की कोटि में रखा जाता था तथा वृत्य क्षत्रिय कहा जाता था।[14] महाभारत में भी युद्धप्रिय, घुमक्कड़, गोपाल अभीरों का उल्लेख मिलता है।[15] आभीरों का उल्लेख अनेक शिलालेखों में पाया जाता है। शक राजाओं की सेनाओं में ये लोग सेनापति के पद पर नियुक्त थे। आभीर राजा ईश्वरसेन का उल्लेख नासिक के एक शिलालेख में मिलता है। ईस्वी सन्‌ की चौथी शताब्दी तक अभीरों का राज्य रहा। अंततोगत्वा कुछ अभीर राजपूत जाति में अंतर्मुक्त हुये व कुछ अहीर कहलाए, जिन्हें राजपूतों सा ही योद्धा माना गया।[16]
आजकल की अहीर जाति ही प्राचीन काल के आभीर हैं।[13] सौराष्ट्र के क्षत्रप शिलालेखों में भी प्रायः आभीरों का वर्णन मिलता है। पुराणों व बृहतसंहिता के अनुसार समुद्रगुप्त काल में भी दक्षिण में आभीरों का निवास था।[17] उसके बाद यह जाति भारत के अन्य हिस्सों में भी बस गयी। मध्य प्रदेश के अहिरवाड़ा को भी आभीरों ने संभवतः बाद में ही विकसित किया। राजस्थान में आभीरों के निवास का प्रमाण जोधपुर शिलालेख (संवत 918) में मिलता है, जिसके अनुसार आभीर अपने हिंसक दुराचरण के कारण निकटवर्ती इलाकों के निवासियों के लिए आतंक बने हुये थे।[18]
यद्यपि पुराणों में वर्णित अभीरों की विस्तृत संप्रभुता 6ठवीं शताब्दी तक नहीं टिक सकी, परंतु बाद के समय में भी आभीर राजकुमारों का वर्णन मिलता है, हेमचन्द्र के "दयाश्रय काव्य" में जूनागढ़ के निकट वनथली के चूड़ासम राजकुमार गृहरिपु को यादव व आभीर कहा गया है। भाटों की श्रुतियों व लोक कथाओं में आज भी चूड़ासम "अहीर राणा" कहे जाते हैं। अंबेरी के शिलालेख में सिंघण के ब्राह्मण सेनापति खोलेश्वर द्वारा आभीर राजा के विनाश का वर्णन तथा खानदेश में पाये गए गवली (ग्वाला) राज के प्राचीन अवशेषों जिन्हें पुरातात्विक रूप से देवगिरि के यादवों के शासन काल का माना गया है। यह सभी प्रमाण इस तथ्य को बल देते हैं की आभीर यादवों से संबन्धित थे। आज तक अहीरों में यदुवंशी अहीर नामक उप जाति का पाया जाना भी इसकी पुष्टि करता है।[19]
भिन्न भिन्न राज्यों एवं क्षेत्रों में इन्हें भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता है
1.      गुजरात अहीर, नंदवंशी, परथारिया, सोराथिया, पंचोली, मस्चोइय
2.      पंजाब, हरियाणा एवं दिल्ली अहीर, सैनी, राव, यादव, हरल
3.      राजस्थान अहीर, यादव
4.      उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ अहीर, यादव, महाकुल,
  ग्वाला, गोप, किसनौत, मंझारौठ, गोरिया, गौर, भुर्तिया,राउतथेटवाररावघोषी आदि
5.      प बंगाल एवं उड़ीसा घोष, ग्वाला, सदगोप, यादव, प्रधान,
6.      हिमाचल प्रदेश एवं उत्तराखंड यादव, रावत
7.      महाराष्ट्र यादव, गवली, गोल्ला, अहीर, खेदकर
8.      कर्नाटक गोल्ला, ग्वाला, यादव
9.      आंध्रप्रदेश गोल्ला, यादव
10.   तमिलनाडु कोनार, आयर, मायर, ईडैयर, नायर, इरुमान, यादव, वदुगा आयर्स
11.   केरल मनियानी, कोलायण, उरली नायर, एरुवान, नायर
मणियानी, कोलायण, आयर, इरुवान
      मणियानी क्षत्रिय नैयर जाति की एक उप जाति है | केरल में यादवों को मणियानी या कोलायण कहा जाता है | मणियानी समुदाय मंदिर निर्माण कला में निपुण माने जाते हैं | मणि (घंटी) एवं अणि (काँटी) के उपयोग के कारण, जो मंदिर निर्माण हेतु मुख्य उपकरण है, ये मणियानी कहलाये | दूसरी मान्यता के अनुसार, भगवान श्री कृष्ण के स्यमन्तक मणि के कारण इन्हें मणियानी कहा जाता है| पौराणिक मान्यताओं के अनुसार ये अगस्त्य ऋषि के साथ द्वारिका से केरल आये|
कोलायण एवं इरुवान यादवों के दो मुख्य गोत्र है| यादवों को यहाँ आयर, मायर तथा कोलायण भी कहा जाता है| केरल के यादवों को व्यापक रूप से नैयर, नायर एवम उरली नैयर भी कहा जाता है |
      मंदिर निर्माण में महारत हासिल होने के कारण उत्तरी मालाबार क्षेत्र के कोलाथिरी राजाओं ने कोलायण कुल के लोगों को मणियानी की उपाधि प्रदान की|
कोनार, इडैयर, आयर
तमिलनाडु में यादवों को कोनार, इडैयर, आयर, इदयन, गोल्ला (तेलगु भाषी) आदि नाम से जाना जाता है| तमिल भाषा में कोण का अर्थ राजा एवं चरवाहा होता है | 1921 की जनगणना में तमिलनाडु के यादवों को इदयन कहा गया है|
2.      गड़ेरिया, कुरुबा, धनगर  - कुरुबा का अर्थ होता है योद्धा एवं विश्वसनीय व्यक्ति | ब्रिटिश इतिहासकार रिनाल्ड एडवर्ड एन्थोवें के अनुसार कुरुमादा जाति भी अहीर जाति का एक हिस्सा है| आईने-ए-अकबरी में धनगर को एक साहसी एवं शक्तिशाली जाति बताया गया है, जो किला बनाने में निपुण है तथा अपने क्षेत्र एवं राज्य पर शासन करते हैं| धांगर की चार शाखाएं हैं – (1) हतकर भेडपालक या गड़ेरिया (2) अहीर गौपालक (3) महिषकर भैंस पालक और (4) खेतकर उन एवं कम्बल बुनने वाले| भेड़ पालन से जुड़े यादवों को गड़ेरिया, कुरुबा या धनगर कहा जाता है | इंदौर का होलकर वंश इसी महान धनगर जाति से आते थे| इस जाति का भी अपना अलग सामाजिक एवं जातिगत संगठन है | आन्ध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु आदि राज्यों में कुरुबा / धनगर एवं अहीर जाति को एक ही माना जाता है, परन्तु कर्नाटक एवं अन्य कुछ राज्यों में कुरुबा एवं अहीर जाति के बीच एकता और सामंजस्य का घोर अभाव है | कर्णाटक के मुख्यमंत्री एस सिद्धारमैया, केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय, सामाजिक कार्यकर्त्ता अन्ना हजारे इसी कुरुबा समाज से आते है महान कवि कालिदास एवं संत कनकदास भी इसी समाज से आते हैं |
            इस जाति को आन्ध्रप्रदेश, कर्णाटक, तमिलनाडु आदि प्रदेशों में कुरुबा, कुरुम्बार, कुरुमा, गुजरात में भरवाडउत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में पालबघेल, होलकर तथा महाराष्ट्र में धनगर आदि नाम से भी जाना जाता है |
3. यदुवंशी राजपूत - भारत में छठी सदी या उसके बाद राज करने वाले यादव राजाओं के वंशज यदुवंशी राजपूत के नाम से जाने जाते हैं | चूँकि उनका शादी -ब्याह और उठना बैठना ज्यादातर अन्य राजपूत जातियों (सूर्यवंशी, अग्निवंशी , चंद्रवंशी राजपूतों) के साथ ही रहा है | इसलिए सामाजिक तौर पर यदुवंशी राजपूत आज के समय में पूरी तरह से राजपूत जाति में घुल-मिल गए हैं और अपने को सिर्फ राजपूत ही मानते हैं तथा यादवों के साथ उनका सामाजिक एवं राजनैतिक सम्बन्ध न के बराबर है | यादव जाति में उनकी गणना करना अपने एवं अपने समाज को भ्रम में रखने के सामान है | यदुवंशी राजपूत के अंतर्गत जडेजा, चुडासमा, गायकवाड, जाधववाडियारसैनी, सोलासकर, कलचुरी, जैसलमेर के भाटी राजपूत आदि जाति आती है |
मध्य युग में यादव राजाओं का एक समूह मराठों में, दूसरा समूह जाटों में और तीसरा समूह राजपूतों में विलीन हो गए |
किद्वंतियों के अनुसार, करौली रियासत की स्थापना भगवान श्री कृष्ण के 88वीं पीढ़ी के राजा, बिजल पाल जादों द्वारा 995 ई० में की गई थी | करौली का किला 1938 ई० तक राजपरिवार का सरकारी निवास था | करौली राज परिवार के सदस्य अपने को श्री कृष्ण के वंशज मानते है और वे जादौन राजपूत कहलाते हैं |
गायकवाड़, गायकवार अथवा गायकवाड एक मराठा कुल है, जिसने 18 वीं सदी के मध्य से 1947 तक पश्चिमी भारत के वड़ोदरा या बड़ौदा रियासत पर राज्य किया था गायकवाड़ यदुवंशी श्री कृष्ण के वंशज माने जाते हैं तथा यादव जाति से आते हैं | उनके वंश का नाम गायकवाड़ गाय और कवाड़ (दरवाजा) के मेल से बना है |
      नवानगर रियासत कच्छ की खाड़ी के दक्षिण में काठियावाड़ क्षेत्र में अवस्थित था | इस रियासत पर 1540 ई० से लेकर 1948 ई० तक जडेजा वंश का शासन रहा इस वंश के शासक अपने को यदुवंशी श्री कृष्ण के वंशज मानते थे, इसप्रकार यह वंश यदुवंशी राजपूत कुल के अंतर्गत आता है |
भाटी वंश के  रावल जैसल ने सन् 1156 में जैसलमेर की स्थापना की। ऐसा माना जाता हैं कि महाभारत युद्ध के पश्चात कालान्तर में यादवों का मथुरा से काफ़ी संख्या में बहिर्गमन हुआ। जैसलमेर के भूतपूर्व शासकों के पूर्वज जो अपने को भगवान कृष्ण के वंशज मानते हैंसंभवता छठी शताब्दी में जैसलमेर के भूभाग पर आ बसे थे। कालांतर में जैसलमेर के भाटी राजपरिवार के सदस्य राजपूत जाति में विलीन हो गए | इसी प्रकार भरतपुर के यादव शासक भी कालांतर में जाट जाति में शामिल हो गए | पटियाला, नाभा आदि के जादम शासक भी जाट हो गए |
पटियाला के महधिराज का तो विरुद्ध ही था: "यदुकुल अवतंशभट्टी भूषण |"
      देवगिरि के सेवुना या यादव राजाओं के वंशज जाधव कहलाते हैं | जाधव मराठा कुल के अंतर्गत आता है | वर्त्तमान में ये अपने आप को यदुवंशी मराठा कहते हैं | जमीनी स्तर पर ये महाराष्ट्र के अहीर, गवली या धनगर से अपने के भिन्न मानते हैं |
      सैनी  भारत की एक योद्धा जाति है | सैनीजिन्हें पौराणिक साहित्य में शूरसैनी के रूप में भी जाना जाता हैउन्हें अपने मूल नाम के साथ केवल पंजाब और पड़ोसी राज्य हरियाणाजम्मू और कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में पाया जाता है. वे अपना उद्भव यदुवंशी सूरसेन वंश से देखते हैंजिसकी उत्पत्ति यादव राजा शूरसेन से हुई थी जो कृष्ण और पौराणिक पाण्डव योद्धाओंदोनों के दादा थे. सैनीसमय के साथ मथुरा से पंजाब और आस-पास की अन्य जगहों पर स्थानांतरित हो गए.
प्राचीन ग्रीक यात्री और भारत में राजदूतमेगास्थनीज़ ने भी इसका परिचय सत्तारूढ़ जाति के रूप में दिया था तथा वह इसके वैभव के दिनों में भारत आया था जब इनकी राजधानी मथुरा हुआ करती थी. एक अकादमिक राय यह भी है कि सिकंदर महान के शानदार प्रतिद्वंद्वी प्राचीन राजा पोरसइसी यादव कुल के थे. मेगास्थनीज़ ने इस जाति को सौरसेनोई के रूप में वर्णित किया है.
इससे स्पष्ट है कि कृष्णराजा पोरसभगत ननुआभाई कन्हैया और कई अन्य ऐतिहासिक लोग सैनी भाईचारे से संबंधित थे" डॉ. प्रीतम सैनीजगत सैनी: उत्पत्ति आते विकास 26-04, -2002, प्रोफेसर सुरजीत सिंह ननुआमनजोत प्रकाशनपटियाला, 2008

यादव जाति की उत्पत्ति
      पौराणिक ग्रंथों, पाश्चात्य साहित्य, प्राचीन एवं आधुनिक भारतीय साहित्य, उत्खनन से प्राप्त सामग्री तथा विभिन्न शिलालेखों और अभिलेखों के विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकलता है के यादव जाति के उत्पति के सम्बन्ध में दो मत प्रचलित है | धार्मिक एवं पौराणिक मान्यताओं एवं हिन्दू ग्रन्थों के अनुसार यादव जाति का उद्भव पौराणिक राजा यदु से हुई है | जबकि भारतीय व पाश्चात्य साहित्य एवं पुरातात्विक सबूतों के अनुसार प्राचीन आभीर वंश से यादव (अहीर) जाति की उत्पति हुई है | इतिहासविदों के अनुसार आभीर का ही अपभ्रंश अहीर है |
      हिन्दू महाकाव्य महाभारतमें यादव एवं आभीर (गोप) शब्द का समानांतर उल्लेख हुआ है | जहाँ यादव को चद्रवंशी क्षत्रिय बताया गया है वहीँ आभीरों का उल्लेख शूद्रों के साथ किया गया है | पौराणिक ग्रन्थ विष्णु पुराण’, हरिवंश पुराणएवं पदम् पुराणमें यदुवंश का विस्तार से वर्णन किया गया है |
      यादव वंश प्रमुख रूप से आभीर (वर्तमान अहीर), अंधक, वृष्णि तथा सात्वत नामक समुदायो से मिलकर बना था, जो कि भगवान कृष्ण के उपासक थे। यह लोग प्राचीन भारतीय साहित्य मे यदुवंश के एक प्रमुख अंग के रूप मे वर्णित है। प्राचीन, मध्यकालीन व आधुनिक भारत की कई जातियाँ तथा राज वंश स्वयं को यदु का वंशज बताते है और यादव नाम से जाने जाते है।
जयंत गडकरी के कथनानुसार, " पुराणों के विश्लेषण से यह निश्चित रूप से सिद्ध होता है कि अंधकवृष्णिसात्वत तथा अभीर (अहीर) जातियो को संयुक्त रूप से यादव कहा जाता था जो कि श्रीक़ृष्ण की उपासक थी। परंतु पुराणो में मिथक तथा दंतकथाओं के समावेश से इंकार नहीं जा सकताकिन्तु महत्वपूर्ण यह है कि पौराणिक संरचना के तहत एक सुदृढ़ सामाजिक मूल्यो की प्रणाली प्रतिपादित की गयी थी|
लुकिया मिचेलुत्ती के यादवों पर किए गए शोधानुसार -
यादव जाति के मूल मे निहित वंशवाद के विशिष्ट सिद्धांतानुसारसभी भारतीय गोपालक जातियाँउसी यदुवंश से अवतरित है जिसमे श्रीक़ृष्ण (गोपालक व क्षत्रिय) का जन्म हुआ था .....उन लोगों मे यह दृढ विश्वास है कि वे सभी श्रीक़ृष्ण से संबन्धित है तथा वर्तमान की यादव जातियाँ उसी प्राचीन वृहद यादव सम समूह से विखंडित होकर बनी हैं।
 क्रिस्टोफ़ जफ़्फ़ेर्लोट के अनुसार,
यादव शब्द कई जातियो को आच्छादित करता है जो मूल रूप से अनेकों नामों से जाती रही हैहिन्दी क्षेत्रपंजाब व गुजरात में- अहीरमहाराष्ट्रगोवाआंध्र व कर्नाटक में-गवलीजिनका सामान्य पारंपरिक कार्य चरवाहेगोपालक व दुग्ध-विक्रेता का था।
लुकिया मिचेलुत्ती के विचार से -
यादव लगातार अपने जातिगत आचरण व कौशल को अपने वंश से जोड़कर देखते आए हैं जिससे उनके वंश की विशिष्टता स्वतः ही व्यक्त होती है। उनके लिए जाति मात्र पदवी नहीं है बल्कि रक्त की गुणवत्ता हैऔर ये दृष्टिकोण नया नही है। अहीर (वर्तमान मे यादव) जाति की वंशावली एक सैद्धान्तिक क्रम के आदर्शों पर आधारित है जो उनके पूर्वजगोपालक योद्धा श्री कृष्ण पर केन्द्रित हैजो कि एक क्षत्रिय थे।
सैन्य वर्ण ( मार्शल रेस )
      वर्ष 1920 मे भारत मे अंग्रेज़ी हुकूमत ने यदुवंशी अहीर जाति को सैन्य वर्ण ( मार्शल रेस ) के रूप मे सेना मे भर्ती हेतु मान्यता दीवे 1898 से सेना में भर्ती होते रहे थे। तब ब्रिटिश सरकार ने अहीरों की चार कंपनियाँ बनायीं थी, इनमें से दो 95वीं रसेल इंफंटरी में थीं। 1962 के भारत चीन युद्ध के दौरान 13 कुमायूं रेजीमेंट की अहीर कंपनी द्वारा रेजंगला मोर्चा पर पराक्रम व बलिदान भारत मे आज तक सरहनीय माना जाता है। वे भारतीय सेना की राजपूत रेजीमेंट में भी भागीदार हैं। भारतीय हथियार बंद सेना में आज तक बख्तरबंद कोरों व तोपखानों में अहीरों की एकल टुकड़ियाँ विद्यमान हैं।
उपजातीयां व कुल गोत्र
यादव मुख्यतया यदुवंशीनंदवंशी व ग्वालवंशी उपजातीय नामो से जाने जाते हैअहीर समुदाय के अंतर्गत 20 से भी अधिक उपजातीया सम्मिलित हैं। वे प्रमुखतया ऋषि गोत्र अत्रि से है तथा अहीर उपजातियों मे अनेकों कुल गोत्र है जिनके आधार पर सगोत्रीय विवाह वर्जित है।

इतिहास
      भारत की मौजूदा आर्य क्षत्रिय जातियों में अहीर सबसे पुराने क्षत्रिय हैं। जब तक जाटराजपूत, गूजर और मराठा नामों की सृष्टि भी नहीं हुई थी, अहीरों का अभ्युदय हो चुका था। ब्रज में अहीरों की एक शाखा गोपों का कृष्ण-काल में जो राष्ट्र था, वह प्रजातंत्र प्रणाली द्वारा शासित 'गोपराष्ट्र' के नाम से जाना जाता था।
      शूरसेन या मथुरा मंडल जिसमें श्रीकृष्ण के लीला स्थल विशेष रुप से सम्मिलित है, भक्तिकाल में ब्रज प्रदेश के रुप में प्रसिद्ध हुआ। पुराणकाल में यह क्षेत्र मथुरा मंडल तथा विभिन्न ग्रंथों में शूरसेन जनपद के रुप में विख्यात रहा था। वर्तमान ब्रज क्षेत्र पर यदि ऐतिहासिक संदर्भ में विचार किया जाए तो यह क्षेत्र भी कभी एक सुरम्य वन प्रदेश था, जहाँ प्रमुख रुप से आभीर निवास करते थे। मथुरा राज्य के आदि संस्थापक मधु ने हरिवंश पुराण में स्वयं कहा है कि मेरे राज्य में चारों ओर आभीरों की बस्ती है।
      सर्वप्रथम पतंजलि के महाभाष्य में अभीरों का उल्लेख मिलता है। जो ई० पू० 5 वीं शताब्दी में लिखी गई थी | वे सिन्धु नदी के निचले काँठे और पश्चिमी राजस्थान में रहते थे।
दूसरे ग्रंथों में आभीरों को अपरांत का निवासी बताया गया है जो भारत का पश्चिमी अथवा 
कोंकण का उत्तरी हिस्सा माना जाता है। 'पेरिप्लसनामक ग्रन्थ तथा टालेमी के यात्रा वृतांत में भी आभीर गण का उल्लेख है। पेरिप्लस और टालेमी के अनुसार सिंधु नदी की निचली घाटी और काठियावाड़ के बीच के प्रदेश को आभीर देश माना गया है।मनुस्मृति में आभीरों को म्लेच्छों की कोटि में रखा गया है।  आभीर देश जैन श्रमणों के विहार का केंद्र था। अचलपुर (वर्तमान एलिचपुरबरार) इस देश का प्रमुख नगर था जहाँ कण्हा (कन्हन) और वेष्णा (बेन) नदियों के बीच ब्रह्मद्वीप नाम का एक द्वीप था। तगरा (तेराजिला उस्मानाबाद) इस देश की सुदंर नगरी थी। आभीरपुत्र नाम के एक जैन साधु का उल्लेख भी जैन ग्रंथों में मिलता है।
आभीरों का उल्लेख अनेक शिलालेखों में पाया जाता है। शक राजाओं की सेनाओं में ये लोग सेनापति के पद पर नियुक्त थे। आभीर राजा ईश्वरसेन का उल्लेख नासिक के एक शिलालेख में मिलता है। ईस्वी सन्‌ की चौथी शताब्दी तक अभीरों का राज्य रहा।
      आजकल की अहीर जाति ही प्राचीन काल के आभीर हैं। अहीरवाड (संस्कृत में आभीरवारभिलसा औरझांसी के बीच का प्रदेश) आदि प्रदेशों के अस्तित्व से आभीर जाति की शक्ति और सामर्थ्य का पता चलता है। अहीर एक पशुपालक जाति है, जो उत्तरी और मध्य भारतीय क्षेत्र में फैली हुई है। इस जाति के साथ बहुत ऐतिहासिक महत्त्व जुड़ा हुआ है, क्योंकि इसके सदस्य संस्कृत साहित्य में उल्लिखित आभीर के समकक्ष माने जाते हैं।

      कुछ लोग आभीरों को अनार्य कहते हैं, परन्तु 'अहीरक' अर्थात आहि तथा हरि अर्थात नाग अर्थात् कृष्ण वर्णी रहे होंगे या अहि काले तथा तेज शक्तिशाली जाति अहीर कहलाई होगी। जब आर्य पश्चिम एशिया पहुंचे तब अहीर (दक्षिण एशियाइ पुरुष/South Asian males) पश्चिम एशिया पर राज्य करते थेI उन्होंने आर्य महिलाओं (पश्चिम यूरेशियन महिलाओं) से शादी की और आर्यों की वैदिक सभ्यता का स्विकार कियाI ईसा की दूसरी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आभीर राजा पश्चिमी भारत के शक शासकों के अधीन थे। ईसवीं तीसरी शताब्दी में आभीर राजाओं ने सातवाहन राजवंश के पराभव में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। समुद्रगुप्त के इलाहाबाद के स्तम्भ लेख में आभीरों का उल्लेख उन गणों के साथ किया गया है, जिन्होंने गुप्त सम्राट की अधीनता स्वीकार कर ली थी।

भारत की मौजूदा आर्य क्षत्रिय(वैदिक क्षत्रिय) जातियों में हट्टी, गुर्जर और अभिरा/अहिर(पाल) सबसे पुराने क्षत्रिय हैं। जब तक जाट, राजपूत, और मराठा नामों की सृष्टि भी नहीं हुई थी, हट्टी और अहीरों का अभ्युदय हो चुका था।

नेपाल एवं दक्षिण भारत के आधुनिक उत्तखनन से भी स्पष्ट होता है की गुप्त उपाधि अभीर राजाओं में सामान्य बात थी| इतिहासकार डी आर. रेग्मी का स्पष्ट मत है की उत्तर भारत के गुप्त शासक नेपाल के अभीर गुप्त राजाओं के वंशज थे | डॉ बुध प्रकाश के मानना है की अभिरों के राज्य अभिरायाणा से ही इस प्रदेश का नाम हरियाणा पड़ा| इस क्षेत्र के प्राचीन निवासी अहीर ही हैं| मुग़ल काल तक अहीर इस प्रदेश के स्वतन्त्र शासक रहे हैं

अभीर या सुराभीर की ओर से विश्व को कृषिशास्त्र, गौवंशपालन या पशुपालन आधारित अर्थतंत्र, भाषा लेखन लिपि, चित्र व मूर्तिकला, स्थापत्य कला (नगर शैली), नगर रचना (उन्ही के नाम से नगर शब्द), खाध्यपदार्थो मे खमीरिकरण या किण्वन (fermentation) प्रक्रिया की तकनीक (अचार, आटा/ब्रेड/नान, घोल/batter, सिरका, सुरा) इत्यादि जैसी सदैव उपयोगी भेट मिली है जो वर्तमान युग मे भी मानव जीवन और अर्थतन्त्र की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है।

मैक्स मुलर, क्रिस्चियन लास्सेन, मिसेज मैन्निंग तथा अन्य इतिहासकारों के अनुसार बाइबल मे उल्लेखित अपनी समृद्धि के लिए प्रसिद्ध ओफिर (सोफिर) क्षेत्र और बन्दरगाह भी अभीर (सूराभीर) का ही द्योतक है। ग्रीक भाषा मे ओफिर का अर्थ नाग होता है। हिब्रू भाषा मे अबीर’ ‘Knight’ याने शूरवीर योद्धा या सामंत के अर्थ मे प्रयोग होता है। संस्कृत मे अभीर का अर्थ निडर होता है। भारतवर्ष मे अभीरअभीर-वंशी-राजा के अर्थ मे भी प्रयोग हुआ है। आज भी इस्राइल मे ओफिर शीर्ष नाम का प्रयोग होता है। यह जानना भी रसप्रद होगा की कोप्टिक भाषा (मिस्र/इजिप्त) मे सोफिरभारतवर्ष के संदर्भ मे प्रयोग होता था।
सोफिर बन्दरगाह से हर तीन साल में क्षेत्र के अभीर राजा सोलोमन को सोना, चाँदी, गंधसार (संदल), अनमोल रत्न, हाथीदांत, वानर, मयूर, इत्यादि प्राप्त होते थे। इसमे ओफिर पर्वत (वर्तमान मे गुनुङ्ग लेदान पर्वत, मुयार, मलेशिया-जहा उस काल मे अभीरों का दबदबा था) से भी सोने और अन्य वस्तुओ के प्रेषण आते थे।

अभीर भारत वर्ष के किसी न किसी भूभाग पर निरंतर १२०० वर्ष का दीर्घ कालीन शासन करने वाले एकमात्र राजवंश है। ग्रीक इतिहास मे उल्लेखित अभिरासेस भी अभीर के ही संदर्भ मे है। प्राचीन ग्रीस के रोमनादों या रोमक यानि एलेक्ज़ांड्रिया के साथ भी अभीरो के राजद्वारी संबंध रहे थे।
      सांप्रदायिक सद्भावना सभी अभीर शासकों की लाक्षणिकता रही है। हिन्दू वैदिक संस्कृति मे आस्था रखते हुए भी अभीरों ने राज्य व्यवस्था मे समय समय पर जर्थ्रोस्टि, बौद्ध, जैन सम्प्रदायो को भी पर्याप्त महत्व दिया है। भारतवर्ष मे त्रिकुटक वंश के अभीर वैष्णव धर्मावलम्बी होने की मान्यता है। शक शिलालेखों मे भी अभीर का उल्लेख मिलता है। अभीरों मे नाग पुजा व गोवंश का विशेष महत्व रहा है। सोलोमन के मंदिरो से लेकर के वर्तमान शिवमंदिरो मे नंदी का विशेष स्थान रहा है। मध्य भारत के अभीर कालचुर्यों का राजचिन्ह भी स्वर्ण-नंदी ही था।
      शक कालीन 102 ई० या 108 ई० के उतखनन से ज्ञात होता है की शक राजाओं के समय अभीर सेना के सेनापति होते थे | रेगीनाल्ड एडवर्ड एन्थोवें ने नासिक उत्तखनन के आधार पर बताया है की चौथी सदी में अभीर इस क्षेत्र के राजा थे | सम्राट समुद्रगुप्त के समय यानि चतुर्थ शताब्दी के मध्य में अभीर पूर्वी राजपूताना एवं मालवा के शासक थे| हेनरी मिएर्स इलियट के अनुसार ईसा संवत के आरम्भ के समय अहीर नेपाल के राजा थे | संस्कृत साहित्य अमरकोष में ग्वाल, गोप एवं बल्लभ को अभीर का पर्यायवाची बताया गया है| हेमचन्द्र रचित द्याश्रय काव्य में जूनागढ़ के निकट अवस्थित वनथली के चुडासमा राजकुमार रा ग्रहरिपू को अभीर एवं यादव दोनों बताया गया है| उस क्षेत्र के जन श्रुतियों में भी चुडासमा को अहीर राणा कहा गया है|
यूनानी राजदूत मैगस्थनीज
यूनानी राजदूत मैगस्थनीज बहुत वर्षों तक चंद्रगुप्त और उसके पुत्र बिंदुसार के दरबारों में रहा । मैगस्थनीज ने भारत की राजनैतिकसामाजिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों का विवरण किया , उसका बहुत ऐतिहासिक महत्व है । मूल ग्रंथ वर्तमान समय में अनुपलब्ध हैपरन्तु एरियन नामक एक यूनानी लेखक ने अपने ग्रंथ 'इंडिकामें उसका कुछ उल्लेख किया है । मैगस्थनीज के श्री कृष्णशूरसेन राज्य के निवासीनगर और यमुना नदी के विवरण से पता चलता है कि 2300 वर्ष पूर्व तक मथुरा और उसके आसपास का क्षेत्र शूरसेन कहलाता था । कालान्तर में यह भू-भाग मथुरा राज्य कहलाने लगा था । उस समय शूरसेन राज्य में बौद्ध-जैन धर्मों का प्रचार हो गया था किंतु मैगस्थनीज के अनुसार उस समय भी यहाँ श्री कृष्ण के प्रति बहुत श्रद्धा थी|
मथोरा और क्लीसोबोरा
मैगस्थनीज ने शूरसेन के दो बड़े नगर 'मेथोराऔर 'क्लीसोबोराका उल्लेख किया है । एरियन ने मेगस्थनीज के विवरण को उद्घृत करते हुए लिखा है कि `शौरसेनाइलोग हेराक्लीज का बहुत आदर करते हैं । शौरसेनाई लोगों के दो बडे़ नगर है- मेथोरा [Methora] और क्लीसोबोरा [Klisobora] उनके राज्य में जोबरेसनदी बहती है जिसमें नावें चल सकती है ।प्लिनी नामक एक दूसरे यूनानी लेखक ने लिखा है कि जोमनेस नदी मेथोरा और क्लीसोबोरा के बीच से बहती है ।[प्लिनी-नेचुरल हिस्ट्री 6, 22] इस लेख का भी आधार मेगस्थनीज का लेख ही है ।
टालमी नामक एक अन्य यूनानी लेखक ने मथुरा का नाम मोदुरा दिया है और उसकी स्थिति 125और 20' - 30" पर बताई है । उसने मथुरा को देवताओं की नगरी कहा है ।यूनानी इतिहासकारों के इन मतों से पता चलता है कि मेगस्थनीज के समय में मथुरा जनपद शूरसेन [1] कहलाता था और उसके निवासी शौरसेन कहलाते थेहेराक्लीज से तात्पर्य श्रीकृष्ण से है । शौरसेन लोगों के जिन दो बड़े नगरों का उल्लेख है उनमें पहला तो स्पष्टतःमथुरा ही हैदूसरा क्लीसोबोरा कौन सा नगर थाइस विषय में विद्वानों के विभिन्न मत हैं ।

जनरल एलेक्जेंडर कनिंघम
      जनरल एलेक्जेंडर कनिंघम ने भारतीय भूगोल लिखते समय यह माना कि क्लीसीबोरा नाम वृन्दावन के लिए है । इसके विषय में उन्होंने लिखा है कि कालिय नाग के वृन्दावन निवास के कारण यह नगर `कालिकावर्तनाम से जाना गया । यूनानी लेखकों के क्लीसोबोरा का पाठ वे `कालिसोबोर्कया `कालिकोबोर्तमानते हैं । उन्हें इंडिका की एक प्राचीन प्रति में `काइरिसोबोर्कपाठ मिलाजिससे उनके इस अनुमान को बल मिला ।परंतु सम्भवतः कनिंघम का यह अनुमान सही नहीं है ।
वृन्दावन में रहने वाले के नाग का नामजिसका दमन श्रीकृष्ण ने कियाकालिय मिलता है ,कालिक नहीं । पुराणों या अन्य किसी साहित्य में वृन्दावन की संज्ञा कालियावर्त या कालिकावर्त नहीं मिलती । अगर क्लीसोबोरा को वृन्दावन मानें तो प्लिनी का कथन कि मथुरा और क्लीसोबोरा के मध्य यमुना नदी बहती थीअसंगत सिद्ध होगाक्योंकि वृन्दावन और मथुरा दोनों ही यमुना नदी के एक ही ओर हैं ।
अन्य विद्धानों ने मथुरा को 'केशवपुराअथवा 'आगरा ज़िला का बटेश्वर [प्राचीन शौरीपुर]माना है । मथुरा और वृन्दावन यमुना नदी के एक ओर उसके दक्षिणी तट पर स्थित है जब कि मैगस्थनीज के विवरण के आधार पर 'एरियनऔर 'प्लिनीने यमुना नदी दोनों नगरों के बीच में बहने का विवरण किया है । केशवपुराजिसे श्रीकृष्ण जन्मभूमि के पास का वर्तमान मुहल्ला मल्लपुरा बताया गया हैउस समय में मथुरा नगर ही था । ग्राउस ने क्लीसोवोरा को वर्तमान महावन माना है जिसे श्री कृष्णदत्त जी वाजपेयी ने युक्तिसंगत नहीं बतलाया है ।
कनिंघम ने अपनी 1882-83 की खोज-रिपोर्ट में क्लीसोबोरा के विषय में अपना मत बदल कर इस शब्द का मूलरूप `केशवपुरा'[2] माना है और उसकी पहचान उन्होंने केशवपुरा या कटरा केशवदेव से की है । केशव या श्रीकृष्ण का जन्मस्थान होने के कारण यह स्थान केशवपुरा कहलाता है । कनिंघम का मत है कि उस समय में यमुना की प्रधान धारा वर्तमान कटरा केशवदेव की पूर्वी दीवाल के नीचे से बहती रही होगी और दूसरी ओर मथुरा शहर रहा होगा । कटरा के कुछ आगे से दक्षिण-पूर्व की ओर मुड़ कर यमुना की वर्तमान बड़ी धारा में मिलती रही होगी ।जनरल कनिंघम का यह मत विचारणीय है । यह कहा जा सकता है । कि किसी काल में यमुना की प्रधान धारा या उसकी एक बड़ी शाखा वर्तमान कटरा के नीचे से बहती रही हो और इस धारा के दोनों तरफ नगर रहा होमथुरा से भिन्न `केशवपुरया `कृष्णपुरनाम का नगर वर्तमान कटरा केशवदेव और उसके आस-पास होता तो उसका उल्लेख पुराणों या अन्य सहित्य में अवश्य होता ।
प्राचीन साहित्य में मथुरा का विवरण मिलता है पर कृष्णपुर या केशवपुर नामक नगर का पृथक् उल्लेख कहीं प्राप्त नहीं होता । अत: यह तर्कसम्मत है कि यूनानी लेखकों ने भूलवश मथुरा और कृष्णपुर (केशवपुर) कोजो वास्तव में एक ही थेअलग-अलग लिख दिया है । लोगों ने मेगस्थनीज को बताया होगा कि शूरसेन राज्य की राजधानी मथुरा केशव-पुरी है और भाषा के अल्पज्ञान के कारण सम्भवतः इन दोनों नामों को अलग जान कर उनका उल्लेख अलग-अलग नगर के रूप में किया हो । शूरसेन जनपद में यदि मथुरा और कृष्णपुर नामक दो प्रसिद्ध नगर होते तो मेगस्थनीज के पहले उत्तर भारत के राज्यों का जो वर्णन साहित्य (विशेषकर बौद्ध एवं जैन ग्रंथो) में मिलता हैउसमें शूरसेन राज्य के मथुरा नगर का विवरण है ,राज्य के दूसरे प्रमुख नगर कृष्णपुर या केशवपुर का भी वर्णन मिलता । परंतु ऐसा विवरण नहीं मिलता । क्लीसोबोरा को महावन मानना भी तर्कसंगत नहीं है [3]
अलउत्वी के अनुसार महमूद ग़ज़नवी के समय में यमुना पार आजकल के महावन के पास एक राज्य की राजधानी थीजहाँ एक सुदृढ़ दुर्ग भी था । वहाँ के राजा कुलचंद ने मथुरा की रक्षा के लिए महमूद से महासंग्राम किया था । संभवतः यह कोई पृथक् नगर नहीं थावरन वह मथुरा का ही एक भाग था । उस समय में यमुना नदी के दोनों ही ओर बने हुए मथुरा नगर की बस्ती थी[यह मत अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है] । चीनी यात्री फ़ाह्यान और हुएन-सांग ने भी मथुरा नदी के दोनों ही ओर बने हुए बौद्ध संघारामों का विवरण किया है । इस प्रकार मैगस्थनीज का क्लीसोवोरा [कृष्णपुरा] कोई प्रथक नगर नहीं वरन उस समय के विशाल मथुरा नगर का ही एक भाग थाजिसे अब गोकुल-महावन के नाम से जाना जाता है । इस संबंध में श्री कृष्णदत्त वाजपेयी के मत तर्कसंगत लगता है – "प्राचीन साहित्य में मधुरा या मथुरा का नाम तो बहुत मिलता है पर कृष्णापुर या केशवपुर नामक नगर का पृथक् उल्लेख कहीं नहीं प्राप्त होता है । अतः ठीक यही जान पड़ता है कि यूनानी लेखकों ने भूल से मथुरा और कृष्णपुर [केशवपुर] कोजो वास्तव में एक ही थेअलग-अलग लिख दिया है । भारतीय लोगों ने मैगस्थनीज को बताया होगा कि शूरसेन जनपद की राजधानी मथुरा केशवपुरी है । उसने उन दोनों नामों को एक दूसरे से पृथक् समझ कर उनका उल्लेख अलग-अलग नगर के रूप में किया होगा । यदि शूरसेन जनपद में मथुरा और कृष्णपुर नाम के दो प्रसिद्ध नगर होतेतो मेगस्थनीज के कुछ समय पहले उत्तर भारत के जनपदों के जो वर्णन भारतीय साहित्य [विशेष कर बौद्ध एवं जैन ग्रंथो] में मिलते हैउनमें मथुरा नगर के साथ कृष्णापुर या केशवपुर का भी नाम मिलता है ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
1.    लैसन ने भाषा-विज्ञान के आधार पर क्लीसोबोरा का मूल संस्कृत रूप `कृष्णपुर'माना है । उनका अनुमान है कि यह स्थान आगरा में रहा होगा । (इंडिश्चे आल्टरटुम्सकुण्डेवॉन 1869, जिल्द 1, पृष्ठ 127, नोट 3 
2.    श्री एफएसग्राउज का अनुमान है कि यूनानियों का क्लीसोबोरा वर्तमान महावन हैदेखिए एफएसग्राउज-मथुरा मॅमोयर (द्वितीय सं0, इलाहाबाद1880), पृ0 257-8 फ्रांसिस विलफोर्ड का मत है कि क्लीसोबोरा वह स्थान है जिसे मुसलमान `मूगूनगरऔर हिंदू `कलिसपुरकहते हैं-एशियाटिक रिसचेंज (लंदन, 1799), जि0 5, पृ0 270। परंतु उसने यह नहीं लिखा है कि यह मूगू नगर कौन सा है। कर्नल टॉड ने क्लीसोबोरा की पहचान आगरा ज़िले के बटेश्वर से की है (ग्राउजवही पृ0 258)
3.   अर्रियनदिओदोरुसतथा स्ट्रैबो के अनुसार मेगास्थनीज़ ने एक भारतीय जनजाति का वर्णन किया है जिसे उसने सौरसेनोई कहा हैजो विशेष रूप से हेराक्लेस की पूजा करते थेऔर इस देश के दो शहर थेमेथोरा और क्लैसोबोराऔर एक नाव्य नदी,. जैसा कि प्राचीन काल में सामान्य था,यूनानी कभी कभी विदेशी देवताओं को अपने स्वयं के देवताओं के रूप में वर्णित करते थेऔर कोई शक नहीं कि सौरसेनोई का तात्पर्य शूरसेन से हैयदु वंश की एक शाखा जिसके वंश में कृष्ण हुए थे; हेराक्लेस का अर्थ कृष्णया हरि-कृष्ण: मेथोरा यानि मथुराजहां कृष्ण का जन्म हुआ थाजेबोरेस का अर्थ यमुना से है जो कृष्ण की कहानी में प्रसिद्ध नदी है. कुनिटास कर्तिउस ने भी कहा है कि जब सिकंदर महान का सामना पोरस से हुआतो पोरस के सैनिक अपने नेतृत्व में हेराक्लेस की एक छवि ले जा रहे थे. कृष्ण: एक स्रोत पुस्तक, 5 पी,एडविन फ्रांसिस ब्रायंटऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस अमेरिका, 2007


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      यादव भारतवर्ष के प्राचीनतम जातियों में से एक है, जो क्षत्रिय राजा यदु के वंशज हैं| यदुकुल में ही हैहय, तालजंघ, अभीर, वृष्णि, अन्धक, सात्वत, कूकुर, भोज, चेदी नामक वंशों का उदय हुआ | भारतीय साहित्य एवं पुराणों के अध्यययन के आधार पर महाभारत काल एवं उसके पश्चात यादव वंश कि निम्न शाखाएं भारत में निवास करती थी -
हैहय वंश – 
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में हैहय राजाओं का वर्णन है, जो अवन्ती प्रदेश के राजा थे तथा उनकी राजधानी महिष्मती थी | पुराणों में हैहय वंश के सबसे प्रतापी राजा कार्तवीर्य अर्जुन का उल्लेख है| ऋग्वेद में उसे चक्रवर्ती सम्राट कहा गया है | पुराणों में हैहय के पांच कुल वीतिहोत्र, शर्यात, भोज, अवन्ती तथा तुन्डिकर का उल्लेख है, जो सामूहिक रूप से तालजंघ कहलाते थे | वीतिहोत्र कुल का अंतिम शासक रिपुंजय था |
चेदी वंश
यदु के दुसरे पुत्र क्रोष्टा के वंशज क्रोष्टा यादव कहलाये | क्रोष्टा के वंश में ही विदर्भ वंश की उत्पति हुई| कालांतर में विदर्भ वंश से ही चेदि वंश की उत्पति हुई|
चेदि आर्यों का एक अति प्राचीन वंश है। ऋग्वेद की एक दानस्तुति में इनके एक अत्यंत शक्तिशाली नरेश कशु का उल्लेख है। ऋग्वेदकाल में ये संभवत: यमुना और विंध्य के बीच बसे हुए थे।
पुराणों में वर्णित परंपरागत इतिहास के अनुसार यादवों के नरेश विदर्भ के तीन पुत्रों में से द्वितीय कैशिक चेदि का राजा हुआ और उसने चेदि शाखा का स्थापना की।चेदिराज दमघोष एवं शिशुपाल इस वंश के प्रमुख शासक थे चेदि राज्य आधुनिक बुंदेलखंड में स्थित रहा होगा और यमुना के दक्षिण में चंबल और केन नदियों के बीच में फैला रहा होगा। कुरु के सबसे छोटे पुत्र सुधन्वन्‌ के चौथे अनुवर्ती शासक वसु ने यादवों से चेदि जीतकर एक नए राजवंश की स्थापना की। उसके पाँच में से चौथे (प्रत्यग्रह) को चेदि का राज्य मिला। महाभारत के युद्ध में चेदि पांडवों के पक्ष में लड़े थे। छठी शताब्दी ईसा पूर्व के 16 महाजनपदों की तालिका में चेति अथवा चेदि का भी नाम आता है। चेदि लोगों के दो स्थानों पर बसने के प्रमाण मिलते हैं - नेपाल में और बुंदेलखंड में। इनमें से दूसरा इतिहास में अधिक प्रसिद्ध हुआ। मुद्राराक्षस में मलयकेतु की सेना में खशमगध,यवनशक हूण के साथ चेदि लोगों का भी नाम है।
भुवनेश्वर के समीप उदयगिरि पहाड़ी पर हाथीगुंफा के अभिलेख से कलिंग में एक चेति (चेदि) राजवंश का इतिहास ज्ञात होता है। यह वंश अपने को प्राचीन चेदि नरेश वसु (वसु-उपरिचर) की संतति कहता है। कलिंग में इस वंश की स्थापना संभवत:महामेघवाहन ने की थी जिसके नाम पर इस वंश के नरेश महामेघवाहन भी कहलाते थे। खारवेलजिसके समय में हाथीगुंफा का अभिलेख उत्कीर्ण हुआ इस वंश की तीसरी पीढ़ी में था। महामेघवाहन और खारवेल के बीच का इतिहास अज्ञात है। महाराज वक्रदेव,जिसके समय में उदयगिरि पहाड़ी की मंचपुरी गुफा का निचला भाग बनाइस राजवंश की संभवत: दूसरी पीढ़ी में था और खारवेल का पिता था।
      खारवेल इस वंश और कलिंग के इतिहास के ही नहींपूरे प्राचीन भारतीय इतिहास के प्रमुख शासकों में से है। हाथीगुंफा के अभिलेख के विवरण में अतिशयोक्ति की संभावना के पश्चात्‌ भी जो शेष बचता हैउससे स्पष्ट है कि खारवेल असाधारण योग्यता का सेना नायक था और उसने कलिंग की जैसी प्रतिष्ठा बना दी वैसी बाद की कई शताब्दियों संभव नहीं हुई।
खारवेल के राज्यकाल की तिथि अब भी विवाद का विषय हेजिसमें एक मत ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के पूर्वार्ध के पक्ष में है किंतु खारवेल को ईसा पूर्व पहली शताब्दी के उत्तरार्ध में रखनेवाले विद्वानों की संख्या बढ़ रहीं है।

वृष्णि कुल – 
सात्वत के पुत्र वृष्णि के वंशज वृष्णिवंशी यादव अथवा वार्ष्णेय कहे जाते हैं | इसी वंश में राजा शूरसेन, वसुदेव, देवभाग, श्री कृष्ण, बलराम, उद्धव, अक्रूर, सात्यिकी, कृतवर्मा आदि प्रतापी राजा एवं शूरवीर योद्धा हुए
अन्धक वंश -
क्रोष्टा के कुल में राजा सात्वत का जन्म हुआ| सात्वत के सात पुत्रों में एक राजा अन्धक थे| जिनके वंशज अन्धक वंशी कहलाये| इसी वंश में शूरसेन देश के राजा उग्रसेन, कंस, देवक तथा श्री कृष्ण की माता देवकी का जन्म हुआ|
भोज वंश
सात्वत के दुसरे पुत्र महाभोज के वंशज भोजवंशी यादव कहलाये| इसी वंश में राजा कुन्तिभोज हुए, जिनके निःसंतान होने पर राजा शूरसेन ने अपनी पुत्री पृथा (कुंती ) को उसे गोद दे दिया|
विदर्भ वंश -
क्रोष्टा के वंश में ही विदर्भ वंश की उत्पति हुई | ज्यामघ के पुत्र विदर्भ ने दक्षिण भारत में विदर्भ राज्य की स्थापना की | शैब्या के गर्भ से विदर्भ के तीन पुत्र हुए कुश, क्रथ और रोमपाद | महाभारत काल में विदर्भ देश में भीष्मक नामक एक बड़े यशस्वी राजा थे | उनके रुक्म, रुक्मरथ, रुक्मवाहु, रुक्मेश और रुक्ममाली नामक पाँच पुत्र थे और रुक्मिणी नामक एक पुत्री भी थी | महाराज भीष्मक के घर नारद आदि महात्माजनों का आना - जाना रहता था | महात्माजन प्रायः भगवान श्रीकृष्ण के रूप-रंग, पराक्रम, गुण, सौन्दर्य, लक्ष्मी वैभव आदि की प्रशंसा किया करते थे | राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी का विवाह श्री कृष्ण से हुआ था | रोमपाद विदर्भ वंश में बहुत ही श्रेष्ठ हुए | मत्स्य पुराण एवं वायु पुराण में उन्हें दक्षिणापथ वासी कहा गया है| लोपामुद्रा विदर्भ की ही राजकुमारी थी, जिनका विवाह अगस्त्य ऋषि के संग हुआ था |

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